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________________ प्राचीन जैन इतिहास । ४९ । है वहां नागकुमार कुछ कर नहीं सकते, तब पर्वतने चारों ओर जिन मूर्तियां रखीं । यह देख नागकुमार विघ्न न कर सके और इस तरह विश्वभूतका यज्ञ भी पूर्ण हो गया और वह मरकर नरक गया। तब महाकाल असुग्ने अपना असली रूप प्रकट कर कहा कि सगर सुलता और विश्वभूतसे मेरा बैर होनेके कारण मैंने यह यज्ञकी प्रवृत्ति चलाई है । पर सत्य धर्म अहिंसा ही है । उसके इस कहने का उस समय कुछ अधिक असर नहीं पड़ा क्योंकि यज्ञको प्रवृत्ति चल पड़ी थी और पशुओंको स्वर्ग जाते देख कई लोगोंने उस मार्गपर श्रद्धा कर ली थी । तथा पशुओं के हवन से यज्ञ करना प्रारंभ कर दिया था । नोट:-- पद्मपुराण में और इस कथा में बहुत अंतर है । इसमें तो क्षीरकदंब शिष्यों का भविष्य मुनियोंसे सुनकर घर पर आया है और बहुत दिनों बाद वसु राजाको पुत्रकी व स्त्रीकी रक्षाका भार सौंप दीक्षा ली ऐसा लिखा है, पर पद्मपुराणमें वर्णन है कि भविष्य सुननेके साथ ही क्षीरकदंबने दीक्षा ली और क्षीरsant स्त्रीने गुरु दक्षिणाके बदले में वसुसे अपने पुत्रकी बातको कहनेको लिये वाधित किया और वसुने वैसा किया जिसके कारण वसु नरक गया । राजा सगर, सुलसाका स्वयंवर, महाकाल, असुर आदिका और क्षीरकंदवके द्वारा ली हुई नारद पर्वतकी परीक्षाका पद्मपुराण में वर्णन नहीं है । भगवद् गुणभद्राचार्यने तो राजा वसुके पिताका क्षीरकदंवसे पहिले से ही दीक्षा लेना लिखा है पर पद्मपुराणकारने पीछेसे दीक्षा लेना बतलाया है। दोनोंमें वसुके पिता के नाम में भी अंतर है । पद्मपुराणकारने "ययाति नाम लिखा है और महापुराणकार विश्वासु" नाम लिखते हैं ।
SR No.022684
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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