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________________ १४८ दुसरा भाग जागृतावस्थामें अथवा स्वप्नावस्था तक में रघुनाथ रामचन्द्रके. सिवा अन्य पुरुषसे पतिका भाव किया हो तो यह अग्नि मेरे इस शरीरको भस्म कर दे । मेरे सत्कृत्य और दुत्कृत्यकी साक्षी रूप यही अग्नि है । बस, इतना कहकर सीता कुण्डमें जा कूदी, जन-समूहकी आंखें मुंद गईं । सहस्त्रों मुखोंसे हाय २ की अस्पष्ट ध्वनि निकल पड़ी । परन्तु उसी क्षणमें वह अग्निकुण्ड, जलकुण्ड हो गया । उस ऊपर बैठे हुए देवने यह सब लीला कर डाली । जलकुंडमें कमल खिले हुए थे । एक बड़े कमलपर सिंहासन था उस पर सीता बिराजमान थीं। अब जल बढ़ने लगा और यहां तक बढ़ा कि लोगोंके कंठ तक आ लगा। कई डूबने लगे । फिर शोर मचा और “ माता रक्षा करो ! "" " रक्षा करो ! " की ध्वाने होने लगी । सीताने फिर गम्भीर स्वरमें कहा कि इस बिकट समयमें जिसने मेरी सहायता की है, उससे प्रार्थना है कि वही इन लोगोंकी भी रक्षा करे । वैसा ही हुआ। दैवीलीला संवरण हो गई। (४) सीता, रामके समीप आई । रामने गृह चलनेके लिये कहा, परन्तु आत्म-कल्याणामिलापिनी सीताने अपने सिरके केशोंका लोंञ्च किया और पृथ्वीमति आर्यिकाके निकट दीक्षा ली। अब राम, सीताके वियोगसे फिर दुःखी होने लगे और कहने लगे कि अग्निकुंडसे सीताकी रक्षा कर देबोंने बड़ा उपकार किया । परन्तु उसे मुझसे छुड़ाकर अच्छा नहीं किया, मैं देवोंसे युद्ध करूंगा । लक्ष्मणने बहुत कुछ समझाया । फिर सकल-भूषण स्वामी के समवशरणमें जाकर सम्बोधको प्राप्त हुए ।
SR No.022684
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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