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________________ प्राचीन जैन इतिहास | मार्ग ही वज्रको सिंहोदरके कोपका कारण मालूम हो जानेसे वह अपने नगरको लौट आया। और अपनी रक्षाका प्रबन्ध कर रहने लगा । सिंहोदरने आकर नगर घेर लिया है। इसलिये यह नगर उजाड़ दीख रहा है । इस उजड़े हुए नगरसे बर्तन आदि इधर-उधर पड़ी हुई वस्तुएँ मैं उठाने जा रहा हूँ । रामचंद्रने उस दरिद्रीको रत्नोंका हार दिया | और आप उस नगर में पहुंचे । नगर के बाहर चन्द्रप्रभुके मंदिर में ठहर लक्ष्मणको भोजनसामग्री लेने भेजा । नगरके बाहर सिंहोदरका कटक था । इनसे सिंहोदरके द्वारपाल आदि बुरी तरह पेश आये । उन्हें नीच समझ लक्ष्मण नगरकी और जाने लगे । द्वार बंद था । वज्रकर्णके सामन्त द्वारपर खड़े थे और स्वयं वज्रकर्ण द्वारके ऊपर बैठा हुआ था । द्वार-रक्षकोंने लक्ष्मण से पूछताछ की। इनका सुन्दर रूप और आकृति देखकर वज्रकर्णने सादर इन्हे बुलाया और सब समाचार पूंछकर भोजनकी प्रार्थना की। इन्होंने कहा कि हमारे बड़े भ्राता अभी चंद्रप्रभु स्वामोके मंदिर में ठहरे हैं उनके विना हम भोजन नहीं कर सकते । तब वज्रकर्णने भोजनकी सब सामग्री बनाकर सेव - कोंके साथ भेजी । रामचंद्र, लक्ष्मण, और सीताने भोजन किया । भोजन के पश्चात् रामचंद्रने लक्ष्मणसे कहा कि वज्रकर्ण सज्जन और धर्मात्मा है । उसकी रक्षा करना अपना धर्म है । अतः तुम जाकर सिंहोदरसे युद्ध करो । लक्ष्मण, रामचन्द्रकी आज्ञानुसार सिंहोदर के पास भरतके दूत बनकर गये। और कहा कि - "भरत महाराज ने कहा है कि तुम वज्रकर्णसे विरोध मत रक्खो । " सिंहोदर ने उत्तर दिया कि भरतको इसमें हस्तक्षेप करनेकी क्या ९७
SR No.022684
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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