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दुसरा भाग।
लांछनका द्वेष बना रहा । वह पवित्र और सुशील थी। इसलिए इस झूठे दोषका द्वेष उसके हृदयसे नहीं निकला । वह मर कर राक्षसी हुई । और फिर सकलभूषण मुनिके तपमें उपसर्ग किया, जिसे सहन करनेसे कर्मोका नाश हुआ।और सकलभूषण कैवल्यो हुए।
पाठ ३६.
हनुमानका दीक्षा ग्रहण । एक समय वसन्त ऋतुमें हनुमानको जिन दर्शनकी इच्छा उत्पन्न हुई । अतः वे रानियों और मंत्रियों सहित सुमेरु पर्वतः पर गये । वहां रानियों सहित पूजन कर घरको लौटे आ रहे थे। मार्ग में संध्या हो जानेसे सुरदुन्दुभी पर्वत पर ठहर गये। परस्परमें बातें कर रहे थे कि उन्हें आकाशमें एक तारा टूटता हुधा दिखलाई दिया । बप्स, आपको संसारकी असारताका ध्यान आया और दीक्षा लेनेको उद्यत हो गये । दूसरे दिन चैलवान नामक वनमें सन्त-चारण नामक चारण ऋद्धिधारी मुनिसे दिगम्बरी दीक्षा धारण की । इनके साथ सातसौ पचास अन्य राना
ओंने भी दीक्षा ली । अन्तमें घोर तपसे कर्मोको नष्ट कर तुङ्गीगिरि नामक पर्वतसे हनुमान मोक्ष गये ।