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प्राचीन जैन इतिहास। १२५
कि रावणने हमारा अपराध किया है उसे हम विद्या सिद्ध करने देना नहीं चाहते । तब उन्होंने कहा कि आपका द्वेष रावणसे है, नगरवासियोंसे नहीं अतएव रावणको सताओ, नगर निवासियोंको नहीं । लक्ष्मणने यह स्वीकार किया। फिर रामपक्षके कुछ कुछ पुरुष रावणके महलोंमें रावणको क्रोध उत्पन्न करनेके लिये गये ताकि उसे विद्या-सिद्धि न हो सके । सुग्रीव का पुत्र अङ्गद कई पुरुषों के साथ रावणके महलोंमें गया । रावणके महल रत्नोंसे सुसज्जित थे । स्फटिककी छतें थीं। उनके चित्रादिकोंको देख कर इन्हें साक्षात् सनीव प्राणियोंका भ्रम होता था। बड़ी कठिनतासे शान्तिनाथके मन्दिरमें पहुंचे । वहां भगवान्की स्तुति कर रावणको ध्यानसे डिगानेका प्रयत्न करने लगे । उसकी माला छुड़ाते, उसके कपड़े उतारते, उसकी स्त्रियोंको पकड़ लाते, उन्हें बेचने के लिये अपने सुभटोंको आदेश करते, दो स्त्रियोंकी चोटियां परस्परमें बांध देते; आदि कई प्रकारकी चेष्टाएं की। भगवान्के मन्दिर में भी सुग्रीवके पुत्र और रामपक्षके योद्धाओंने इस प्रकार अत्याचार कर अपना नाम सदाके लिये कलंकित किया है । अस्तु, परन्तु रावण इन विन्नोंसे नहीं डिगा । तब बहुरूपिणी विद्या सिद्ध हुई । परन्तु सिद्ध होते समय विद्याने यह कह दिया कि मैं चक्रवर्ती और नारायणका कुछ नहीं कर सकूँगी । जब रावण ध्यानसे उठा तब रानियोंने अङ्गदकी शिकायत की । रावणने समझा बुझा कर सबको शान्त किया । फिर रावण, विमानमें चढ़ कर सीताके पास गया । और उसे समझा कर कहा कि रामका युद्ध में शीघ्र ही निपात होगा। अतएव