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दूसरा भाग
उस यक्ष रामचंद्रको हार, लक्ष्मणको मणिकुण्डल, और सीताको चूड़ामणि, भेंटमें दी ।
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(१३) वहां से चल कर रामचंद्र विजयपुर नगर के समीप बालोद्यान में ठहरे | यहांका राजा पृथ्वीधर था । रानीका नाम इन्द्राणी और पुत्रीका वनमाला था । वनमालाने लक्ष्मणके रूप, गुणकी प्रशंसा सुन रक्खी थी इसलिये वह मन ही मन लक्ष्मण पर आसक्त थी । जब यह सुना गया कि दशरथने दीक्षा ली और लक्ष्मण वनको गये तब उसके पिताने इन्द्रनगर के युवराज बालमिant वनमाला देना चाही । परन्तु वनमाला इस सम्बन्धसे अप्रसन्न थी । और उसने प्रण कर लिया था कि मैं इस सम्बन्ध होने के
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पहिले प्राण त्याग दूंगी । इसने उपवास करना शुरू कर दिया । एक दिन रात्रिको वन-क्रीड़ाकी आज्ञा मांग वनमाला अपने सेवकों सहित वन में पहुंची । जब उसके सेवक सो गये तब आप प्राण देने की इच्छासे अपने सेवकोंको छोड़ आगे गई । दैवयोगसे राम, लक्ष्मण यहां ठहरे हुए थे । लक्ष्मणने पत्र - पुष्पोंकी शय्या पर रामको सुला दिया था और आप जाग रहे थे । जब वनमालाको दूरसे जाते देखा तब यह समझा कि शायद इसे कोई कष्ट होगा जभी यह स्त्री अकेली वनमें आई है । आप भी पीछे २ गये । जब वनमाला कपड़ेसे फांसी लगा कर प्राण देने को तैयार हुई तब उसने कहा कि हे वनके रक्षक देवो ! यदि लक्ष्मण घूमते घूमते यहां आयें तो कहना कि वनमालाने तुम्हारे वियोग से यहां प्राण त्याग किये हैं । इस जन्ममें तो संयोग नहीं हुआ परन्तु आगामीमें तुम्हारे संयोगकी उसकी उत्कट इच्छा है । लक्ष्मण छु