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दूसरा भाग।
साथ विवाह करा दूंगा। परन्तु सहस्ररस्मिने कहा कि मुझे अब वैराग्य हो गया है. इसलिये मैं अब इन सांसारिक कार्योंमें प्रवृत्त नहीं होना चाहता । यह कह कर अपने पिता मुनि शतबाहुसे दीक्षा ली और अपने मित्र अयोध्याके स्वामी अरण्यके पास दीक्षा ग्रहणके समाचार भेजे । अरण्यने भी सहस्त्ररस्मिके दीक्षा ग्रहणके समाचार सुन दीक्षा ली क्योंकि दोनों मित्रोंमें एक साथ दीक्षा लेनेकी प्रतिज्ञा थी।
(ङ, यहांसे रावण फिर आगे उत्तर दिशाकी ओर बढ़ा । मार्गमें सम्पूर्ण रानाओंको वशमें करता, चलता था। जिन मंदिर बनवाता था । जीर्णोद्धार करता था । हिंसकोंको दण्ड देता था । दरिद्रियोंको दान देता और जैनियोंसे प्रेम करता था। (च) मार्गमें राजपुर नामक नगर मिला । वहाँका राजा मरूत यज्ञ कर रहा था । देवर्षि नारद आकाश मार्गसे जा रहे थे । उन्होंने राजपुरमें विशेष चहल पहल देखी । नारदका स्वभाव कौतूहली था। वे पृथ्वी पर उतरे । जब उन्होंने देखा कि राजा यज्ञ कर रहा है
और उसमें पशुओंका हवन कर रहा है तब नारदने राजासे यज्ञ न करनेके लिये कहा । इस पर रानाने कहा कि हम कुछ नहीं समझते । हमारे यज्ञाचार्य सम्वर्तसे आप धार्मिक चर्चा करो। तब नारद और सम्बर्तमें विवाद हुआ । जब सम्वर्त नारदको न जीत सका तब कई यज्ञकर्ता ब्राह्मणों के साथ नारद पर आक्रमण करने लगा । नारदने भी अपने शारीरिक अंगों द्वारा उनके प्रहारोंको बचाया और स्वयं प्रहार किया। परन्तु प्रहार करनेवाले अधिक थे इसलिये नारदके प्राण संकटमें आ पड़े। इधर रावणका