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________________ दूसरा भाग। देकर जीवनकी शृंखला, विशृंखलित कर दी । हम यहां पर लक्ष्म'णके आत्मबलकी प्रशंसा करेंगे और साथमें यह भी कहेंगे कि जब हम लक्ष्मणका चरित्र पढ़ते हैं तब विदित होता है कि उनकी जीवन शृंखला कहीं भी विशृखलित नहीं हुई । आदिसे अंत तक एकसी ही रही । और यह उनके जीवनकी एक बड़ी भारी विशेषता थी । रामचंद्र इस विशेषतासे वञ्चित रहे । अस्तु, कृतांतवक सीताको छोड़ आया । (३) छोड़ते समय सीताको बहुत दुःख हुआ। परन्तु पतिभक्तिपरायण सीताने अपने स्वामी रामके लिये किसी प्रकार अपमान जनक शब्दोंका प्रयोग नहीं किया। सीताने कृतांतवक्रसे यही कहा कि:-कृतांतवक्र ! स्वामीसे कहना कि सीताने कहा है मेरे त्यागके सम्बन्धमें आप किसी प्रकारका विषाद न करना, धैर्य सहित सदा प्रजाकी रक्षा करना, प्रनाको पुत्र समान समझना, सम्यग्यशेनकी सदा आराधना करना, राज्यसम्पदाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन कहीं श्रेष्ठ है । अभय जीवोंके द्वारा की जानेवाली निन्दाके भयसे सम्यग्दर्शनका त्याग नहीं करना । जगत् की बात तो सुनना परन्तु करना वही जो उचित हो । क्योंकि वह गाडरी प्रवाह के समान है। दानसे सदा प्रेम रखना, मित्रोंको अपने निर्मल स्वभावसे प्रसन्न रखना, साधुओं. तथा आर्यिकाओंको प्रासुक आहार सदा देना, चतुर्विध संघकी सेवा करना, क्रोध, मान, माया, लोमको इनके विपक्षी गुणोंसे जीतना । और मैंने कभी अविनय की हो तो सुझे क्षमा करना । " ऐसा कह वह सती साधी सीता रथसे उतर मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी।
SR No.022684
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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