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प्राचीन जैन इतिहास। ७५ आपको सम्भव है कि वह बतला दे । रावणने यही उपाय किया। और उसकी सखीसे कहा कि तुम्हारा कहना हमें स्वीकार है। उसे यहां ले आओ । उपारम्भा (नल(वरकी स्त्री) रावणके पास आई और सम्भोग करनेकी इच्छा प्रगट की । रावणने कहा कि मेरी इच्छा उर्लघिपुर नगरमें तुम्हारे साथ रमनेकी है । अतएव नगरके कोटको नष्ट करनेका उपाय बताओ । तब उसने आसाल नामक विद्या दी । और नानाप्रकारके दिव्यास्त्र दिये, जिनके द्वारा रावणने उस रचनाको नष्ट किया। नलदूंबर रावणको नगर जीतते देख युद्धके लिये सन्मुख हुआ । दोनों ओरसे युद्ध हुआ पर विभीषणने उसे पकड़ लिया । रावणने नलदूंबरकी स्त्रो उपारम्भाको बहुत समझा कर दुष्कृत्यसे परांगमुख किया । उसकी बात गुप्त रक्खी । नलदूबर अपनी स्त्र की कुचेष्टाओंओ नहीं जान सका । नलदूंबरने रावणकी आधीनता स्वीकार की। रावणने उसे छोड़ दिया। यहां रावणके कटकमें सुदर्शनचक्र-रत्न उत्पन्न हुआ। (झ) इस तरह नलदूंबरको जीत रावण आगे बढ़ा और वैताव्य पर्वतके समीप डेरा डाला । इन्द्रने रावणको समीप आते देख पितासे कहा कि मैंने कई वार रावणको नष्ट कर डालनेका विचार किया परन्तु आप मनाही करते रहे, अब शत्रु प्रबल हो गया है। अब क्या उपाय करना चाहिये ? इन्द्र के पिता सहस्त्रारने कहा कि तुम शीघ्रता मत करो, मंत्रियोंसे सम्मति मिला लो। हमारी समझसे रावण प्रबल है उससे युद्ध करना उचित नहीं। उससे मिल लेना ही ठीक है और अपनी रूपवती कन्याका भी उसके साथं पाणि ग्रहण करना ठीक है । इस पर इन्द्रको क्रोध उत्पन्न