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दूसरा भाग तीन खण्डके विद्याधर और मनुष्य सेवक । रामचंद्रके निजके. चार रत्न इस प्रकार थे; हल, मूसल, रत्नमाला और गदा ।
(५) लक्ष्मण के सात रत्न थे:- शंख, चक्र, गदा, खड्ग, दण्ड, नागशय्या, कौस्तुभमणि । आपकी सभाका नाम वैजयन्ती था । नाटकगृहका नाम वर्द्धमानक था । आपके अनेक प्रकारके शीत उष्ण, आदि ऋतुओंके उपयोगी महल थे। आपके पांवोंकी खड़ाऊओंका नाम विषमोचिका था । जिनके द्वारा आप आकाश मार्गसे गमन कर सकते थे । पचास लक्ष कृषि कार्यके उपयोगी हल थे । एक करोड़ से अधिक गायें थीं ।
(इ) राम, लक्ष्मणके आजाने पर भरत अपनी प्रतिज्ञानुसार तप करनेको उद्यत हुए । राम, लक्ष्मणने, उनकी माताओं और भावियोंने बहुत समझाया, पर वे राज़ी नहीं हुए । एक दिन उन की भावियां उन्हें संसार में आसक्त करनेके लिये सरोवर पर ले गई और वहां जल क्रीड़ा करने लगीं । भरत कुछ देर तक तो साधारण दृष्टि से देखते रहे । फिर पूजन करने लगे । इतने में त्रैलोक्य - मण्डन नामक हाथी छूट गया और उपद्रव मचाता हुआ जहां भरत थे वहां आ खड़ा हुआ । इनकी भावियाँ भी भयके कारण जलसे निकल इनके पास आ खड़ीं हुईं । विचलित हाथीको भरतके समीप देख कर भरतकी माता व अन्य पुरुष घबड़ाये । परन्तु धीरवीर भरत निर्भय हो कर हाथीके सन्मुख खड़े हो गये इन्हें देख कर हाथी शान्त हो गया । हाथीको उस समय पूर्वभवका ज्ञान हो गया था । भरत और सीता तथा लक्ष्मणकी पटरानी