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दूसरा भाग।
दिगम्बर जैन साधु अपने तीन शिष्योंको अष्टांग निमित्तज्ञान पढ़ा रहे थे । क्षीरकदंव और उसके शिष्योंके वनमें पहुँचने पर श्रुतधर मुनिने अपने शिष्योंसे क्षीरकदंवके तीनों शिष्योंका भविष्य पूछा। शिष्योंने कहा कि वसु नामक राजपुत्र हिंसा धर्मको सत्य धर्म प्रगट करने के कारण नरक जायगा। पर्वत नामका शिष्य यज्ञकी प्रवृत्ति चलानेके कारण नरक जायगा । और नारद अहिंसा धर्मका प्रचार करेगा और सर्वार्थसिद्वि जायगा । इस भविष्यको क्षीरकदंव भी सुन रहा था उसे यह भविष्य सुनकर बड़ा दुःख हुआ पर भवितव्य पर श्रद्धा रख कर समय व्यतीत करने लगा। कुछ दिनों बाद राजा वसके पिता महाराज विश्वासने तप धारण किया और वसु रान सिंहासन पर बैठा । एक दिन वसु वनमें गया, वहां पर ठोकर खाकर आकाशसे पक्षो गिरते देखा। इसने अपना बाण फेंका वह भी ठोकर खाकर गिरा। वसु यह भेद जानने के लिये ब णके गिरनेके स्थान पर पहुंचा वहां उसे आकाश स्फटिक नामक पाषाणका स्तंभ दिखा जो कि दूसरों की दिखाईमें नहीं आता था । इस स्तंभको वसु अपने यहां लाया और उसका सिंहासन बनाया । वह सिंहासन अधर रहता था उस पर बैठ कर बसु राज्य कार्य करने लगा । लोगोंमें यह प्रसिद्धि हुई कि महारान वमुका सिंहासन न्याय और सत्यके कारण अधर रहता है । अब क्षीरकदंवके पास दो शिष्य रह गये। एक दिन ये दोनों शिष्य वनमें हवनकी काष्टादि सामग्री लेने गये थे वहां