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प्राचीन जैन इतिहास । ९३
बार कहा था कि जो चाहो सो मांगो तब कैकयीने कहा था कि अभी मुझे आवश्यकता नहीं है, आप अपना बचन रक्खें; जबआवश्यकता होगी तब मांगूंगी । सो आज जब उसने मुझे और अपने पुत्र भरतको वैराग्य लेते देखा तब मोहसे विह्वल हो पुत्रको वैराग्य से पराङ्गमुख होनेके लिये मुझसे वर माँगा है, कि मैं भरतको राज्य दृ । यद्यपि नीति और न्यायके अनुसार तुम्हें राज्य देना चाहिये परन्तु अपने बचनकी रक्षा तथा कैकयीकी रक्षा के लिये मुझे ऐसा करना पड़ता है । अगर न करूं तो कैकयी प्राण त्याग करेगी । तुम सुपुत्र हो, आशा है कि स्वीकार: करोगे । " रामचन्द्रने उत्तर दिया- "पूज्यवर ! पुत्रका धर्म यही है कि पिताके पावित्र्यकी रक्षा करे । हमारे होते यदि आपके बचन भंग हुए तो हमारा होना न होना समान है । आप मेरी चिन्ताको छोड़ो, मैं अब कहीं अन्यत्र जाकर रहूंगा । ऐसा कह पिता के चरणोंमें नमस्कार कर अन्यत्र जानेको तत्पर हुए |
(२) रामको जाते देख दशरथको मूर्छा आगई। फिर माता के पास गये । माताने भी बहुत रोका, साथ चलने का हठ किया, परन्तु सबको समझाकर जानेको उद्यत हुए । पतिको जाते देख सीता भी उद्यत हुई। उसने भी सासु-वसुरसे विदा मांगी। इस घटना से लक्ष्मणको क्रोध उत्पन्न हुआ । और मन ही मन पिताकी निन्दा करने लगे । परन्तु फिर यह विचार कर कि मुझे इन विचारों से क्या ? पिताजी दीक्षा लेनेको उद्यत हुए हैं ऐसे समय में मुझे ऐसे विचार करना अनुचित है । अतएव शान्त हुए और