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दूसरा भाग।
समझ राना वसुसे उसकी और उसकी माताकी पालना करनेको कहकर और अपने पद पर नारदको विठला कर दीक्षा धारण की । नारद और पर्वत दोनों उसो नगरमें पठन पाठनका कार्य करने लगे । एक दिन सर्व साधारणके सन्मुख दोनोंका शास्त्रार्थ इस विषय पर हुआ कि हवनादिमें अन शब्दका क्या अर्थ करना चाहिये । नाद कहता था कि जिनमें उत्पन्न होनेकी शक्ति नहीं है ऐसे जूने नौ (नव) को अन कहते हैं और पर्वत अन शब्दसे पशुका अर्थ करता था । पर पर्वतका अर्थ मान्य नहीं हुआ । लोगोंने इसे संघसे पृथक् कर दिया तब यह बनमें गया और इसे वहाँ ब्राह्मण रूपधारी उक्त महाकाल
नामक असुर मिला। (ङ) असुरने पर्वतके समाचार सुनकर कहा कि मैं तेरे शत्रुको
नष्ट करूँगा । तूं मेरे धर्मभाई क्षीरकदंवका पुत्र है। वे मेरे सहाध्यायी थे । ऐसा कहकर उसे अथर्ववेद बनाकर पढ़ाया। इसकी साठ हजार रुला थीं। जब वह पढ़ गया तब महाकालने अपने साथी असुरोंको सगर राजाके ग्राममें बीमारी फैलानेकी आज्ञा दी जिसे उन्होंने तत्काल मानकर बीमारी फैलाई । इधर महाकाल और पर्वत सगरके पास जाकर कहने लगे कि यदि आप हमारे कहनेके अनुसार सुमित्र नामका यज्ञ करो तो रोगादिकी शांति हो जाय । और अथर्ववेदकी आझा दिखलाकर यज्ञके लिये साठ हजार पशु व अन्य