Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri, Vijayendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
Catalog link: https://jainqq.org/explore/001891/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 06:00 श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला- ग्रन्थाङ्कः १२६ 5 श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः ।। पू. आ. श्रीविजयामृतसूरिभ्यो नमः ।। कविकटारमल्ल - पूज्याचार्यदेव श्री रामचन्द्रसूरीश्वर - विरचितं नलविलासनाटकम jood or सम्पादक: संशोधक श्व तपोमूर्ति-पूज्याचार्यदेव श्रीविजयकर्पू रसूरीश्वर पट्टधरहालारदेशोद्धारक - पूज्याचार्यदेव श्री विजयामृतसूरीश्वरपट्टधरः पूज्याचार्यश्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरः 5 वर्द्धमानपुर (वढवाणशहेर) निवासी शाह लाडकचन्द जीवराज-राजकोट निवासी वसा सौभाग्यचन्द तलकचन्द इत्येतयोः सहाय्येन प्रकाशितोऽयं ग्रन्थः 5 प्रकाशिका - श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावल - शांतिपुरी (सौराष्ट्र ) **** . छ *** . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ..... .......................! श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्कः १२६ ॐ श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः ॥ पू. आ. श्रीविजयामृतसूरिभ्यो नमः ।। कविकटारमल्ल-पूज्याचार्यदेव ... श्री रामचन्द्रसूरीश्वर-विरचितं नलविलासनाटकम् OBOOSESSOOO""" सम्पादकः संशोधकश्च तपोमूर्ति-पूज्याचार्यदेव श्रीविजयकर्पूरसूरीश्वर-पट्टधरहालारदेशोद्धारक-पूज्याचार्यदेव श्री विजयामृतसूरीश्वर __ पट्टधरः पूज्याचार्यश्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरः ................................................................." वर्द्धमानपुर (वढवाणशहेर) निवासी शाह लाडकचन्द जीवराज-राजकोट निवासी वसा सौभाग्यचन्द तलकचन्द इत्येतयोः सहाय्येन प्रकाशितोऽयं ग्रन्थः प्रकाशिकाश्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावल-शांतिपुरी (सौराष्ट्र) श्री वामाचार मना दिल Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका-श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखाबावल-शांतिपुरी (सौराष्ट्र) ज वीर सं० २५१० वि० सं० २०४० सन् १९८४ प्रथमावृत्ति प्रतयः ७५० आभार एवं मार्गदर्शन प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशन योजनामां कलिकालसर्वज्ञ पूज्य आचार्यदेव श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजाना पट्टधर कविकटारमल्ल पूज्याचार्यदेव श्री रामचन्दसूरीश्वरजी म. विरचित आ श्री 'नलविलासनाटकम्' प्रगट करीए छीए. आ ग्रन्थ प्रगट करवा माटे हालारदेशोद्धारक पू. आ. श्री विजयामृतसूरीश्वरजी महाराजना पट्टधर पू. आ. श्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरजी म. ना सदुपदेश थी वढवाणशहेर निवासी शाह लाडकचन्द जीवराजभाई तथा राजकोट निवासी वसा सौभाग्यचन्द तलकचन्दभाईनो सहकार मल्यो छे. अने तेमना तरफ थी आ ग्रन्थ प्रगट करतां आनन्द अनुभवीए छीए. तेमज तेमनो आभार मानी प्राचीन साहित्य प्रकाशन माटे मलेल तेमना सहकारनी अनुमोदना करीए छोए. ता०९-६-८४ शाक मारकेट सामे, जामनगर (सौराष्ट्र) लि०मगनलाल चत्रभुज महेता मुद्रक : गौतम आर्ट प्रिन्टर्स, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: सम्पादकीय : श्रो अरिहंत परमात्मा सर्वज्ञ होय छे तेमना ज्ञानमा क्यांय अपूर्णता होती नथा तेथी जैन दर्शन ए सर्वज्ञनु अने सत्यनुदर्शन कहेवाय छे. ए दर्शननो अविच्छिन्न प्रवाह महान श्रुतधरीनी परंपराथो चाले छे. आठसो वर्ष पहेलां थइ गयेला पू० कलिकाल सवज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ए महान् श्रुतधर हता. तेम नो श्रुतनी सार्वत्रिक प्रतिभा जगप्रसिद्ध छे. तेमना पट्टधर पू० आ० श्री रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज महाविद्वान कवि अने गुरु समर्पित हता. तेमणे एकसो प्रबन्ध रच्यानो प्रबोधचितामणिमां उल्लेख छे. तेमांना केटलाक ग्रन्थो विद्यमान छे. तेमनो 'नलविलासनाटकम्' पण एक महान् ग्रन्थ छे. नलविलास ए नल राजा अने दमयन्ती महासतीना जीवनने वणी लेतु नाटक छे. जेमां प्रसंग सौष्ठत्व, रोवकता भावनी उत्कट रजूआत, प्रसंगनु आबेहूब वर्णन वाचकने प्रासंगिक हास्यरस तथा प्रासगिक भारे करुणरस पेदा करी दे छे. तेमा सूक्तिओ आदि द्वारा धर्म, शील, फरज, सज्जनता आदि गुणो ने प्राप्त करवानी अद्भुत रजूआत छे. तेना सात अंक छे. उपरांत पहेला अंकमां आमुख अने छट्ठा अंकमां गर्भाङ्कनो समावेश छे. प्रासंगिक पात्रोनी गोठवणी रसिक छे. मा ग्रन्थ सने १९२६मां गायकवाड ओरिएन्टल सीरीझ सेन्ट्रल लाइब्रेरी बडोदरा तरफथी श्री गोन्देकर तथा श्री लालचन्द बी. गांधी हस्तक सम्पादन करावी प्रसिद्ध थएल छे. तेमा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जैनेत्तर नल साहित्य, नलविलास तथा तेना कर्ता श्री रामचन्द्रसूरीश्वरजी म० तथा तेमना साहित्य अंगे संस्कृतमां विशद प्रस्तावना पण छे. नल दमयन्ती अंगे जैन जैनेतर साहित्य पुष्कल ग्रन्थो लखाएला छे. जेमांथी हजु केटलाक प्रसिद्ध पण थया नथी. हस्तलिखित संग्रहमां रक्षित छे. जैन ग्रन्थो— (१) नलचरितं - प्राकृत गद्य. धर्मसेनगणि विरचित वसुदेवहिण्डी - मध्यखण्डान्तगंत. (२) नलचरितं - श्री हेमचन्द्राचार्यसूरीश्वर विरचित त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्रान्तर्गत पर्व ८ सर्ग-३ (३) नलायनं कुबेर पुराण - बीजु नाम, श्री माणिक्यसूरि विरचित. (४) नलविलास नाटकं - श्री रामचन्द्रसूरि विरचित. (५) दवदन्ती चरितं - श्री सोमप्रभाचार्य विरचित कुमारपाल प्रतिबोधान्तर्गत. (६) नलोपाख्यानं - श्री देवप्रभसूरि विरचित पांडव चरित्रा न्तर्गत. (७) दवदन्ती चरितं नलदवदन्त्युपाख्यानं श्री विनयचन्द्रसूरि विरचित श्री मल्लिनाथ महाकाव्यान्तर्गत. (८) दवदन्तीकथा - श्री सोमतिलकसूरि विरचित शीलोपदेशमालान्तर्गत. 11 श्री जिनसागरसूरि विरचित कर्पूर प्रकर टीकामां. ( 2 ) दमयन्ती कथा - श्री शुभशीलगणि विरचित भरतेश्वर बाहुबली टीकामां. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) नलचरितं - श्री देवविजयगणि विहित पांडव चरिता (११) नलचरितं - श्री गुणविजयगणि विरचित गद्य नेमिनाथ चरितान्तर्गत. न्तर्गत. (१२) दवदन्तीचरियं - प्राकृत पाटण भण्डार सूचि पत्रमां. (१३) दमयन्ती प्रबन्ध - गद्य | जैन ग्रंथावलीमां नोंध छे. (१४) - पद्य ** उपरांत हरिवंशपुराण पाण्डवपुराण, नेमिनाथपुराण, त्रिषष्टिलक्षण पुराण, जैन नैषधीय चरित, कथाकोष, कथावली, नेमिनाथ चरित्र, वसुदेव कथा, कनकवती कथा आदिमा अन्तर्गत, स्वतन्त्र चरित्र रूपे नलदमयन्तीना आख्यान छे. गुजरातीमां जैन कविओए रास, चोपाइ, सज्झाय आदि रूपे पण नल दमयन्तीनु जीवन आलेख्युं छे ते नीचे मुजब उपलब्ध न धमां छे. -- रासो नलदमयन्ती रास (१) कर्ता ऋषिवर्धनसू. (अंचलगच्छ) सं० १५१२ (२) कर्ता - मेधराज मुनि (पा.) रचना सं० १६६५ (३) कर्ता - हर्षविजय मुनिराज रचना १७ शतक (४) कर्ता - - उ० समयसुन्दरजी रचना सं० १६७३ (५) कर्ता-ज्ञानसागरजी रचना सं० १७२० ( ६ ) दमयन्ती रास कर्ता-संयमराजसू शिष्य रचना सं० १५६० (७) नलदवदंति चरित्र रास (ले० १५६८) उपरांत जैनेतर कविओ भालण ( १५४५) नाकर (१५८१ ) प्रेमानन्द ( १७२८-४२) आदिए रास आख्यान नल दमयन्तीना जीव अंगे आलेख्या छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेतर ग्रन्थो आ ग्रन्थो संस्कृतमां छे. (१-५) नलोपाख्यान-(१) महर्षि व्यास प्रणोत महाभातरमां, (२) श्री गुणाढ्य कवि विरचित बृहत्कथामां (३) श्री क्षेमेन्द्र कवि विरचित भारत मंजरीमां. (४) श्री क्षेमेन्द्र कवि विरचित बृहत्कथा मंजरीमां. (५) श्री सोमदेव भट्ट कृत कथासरित्सागरमां. (६) नेषधीयचरितं-महाकवि हर्ष विरचित. (७) नलदमयन्ती कथा चम्पू:-श्री त्रिविक्रम भट्ट कृत. (८) नलोदव काव्य-कवि कालिदास ? रविदेव कृत. (६) नलाभ्युदय:-महाकवि वामन भट्ट बाण विरचित. (१०) नलचरितनाटक-श्री नीलकण्ठ दीक्षित कृत. (११) सहृदयानन्दं-श्री कृष्णानन्द कवि कृत. (१२) राघव-नैषधीयं-श्री हरदत्तसूरि विरचित. (१३) भैमीपरिणयनाटकं-श्री मण्डिकलराम शास्त्री-नूतन. (१४) पुण्यश्लोकोदय नाटकं-श्री देवीशरण चकति निर्मित नूतन. (१५) नलदमयन्तीयं--नूतन. (१६) नलानन्दनाटक-श्री जीव विबुध कृत. (१७) नल वर्णन काव्यं-श्री लक्ष्मीधर विरचित. (१८) नलभूमियालरूपकं (१९) नलविक्रमनाटकं (भावप्रकाश निर्दिष्ट) (२०) नलचरित काव्यं (२१) नल यादवपाण्डव-राघवीयं (२२) नलस्तोत्रं (२३) दमयन्ती परिणय काव्यं विगेरेनी ओफेट, कुल्हर, आपर्ट, कील्हाण, सूचिपत्रमा नोंध छे. __ आ बघा चरित्रो आदिमां पात्रो प्रसंगो विगेरे केटलाक भेदो छे. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकार श्री रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज पू० श्री रामचन्द्रसूरीश्वर महाराज कलिकाल सर्वज्ञ महान ग्रन्थ कर्ता, संस्कृत-प्राकृत व्याकरणादि कर्ता, काव्यकोष त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, योगशास्त्र, प्रमाणमीमांसा आदि विपुल साहित्य ना सर्जन पू. हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजाना मुख्य पट्टधर हता. श्री हेमचन्द्रम. म. ना प्रसिद्ध पट्टधरो(१) श्री रामचन्द्रसू म.- जे आ ग्रन्थना कर्ता तेमनु जीवन अने साहित्य अगे आगल कहे शु. (२) श्री महेन्द्रसू. म.- श्री हैम, नेकार्थसंग्रहनी १४००० श्लोक प्रमाण केरवाकर कौमुदी टीका तेमणे रची छे. आ टीका बे भागमां संपादन करीने आ ग्रंथमाला द्वारा त्रण वर्ष पहेलां सौ प्रथम प्रगट करावी छे. (३) पं. श्री गुणचन्द्र गणि-पं. रामचन्द्र गणिना ते परमप्रीति पात्र हता. बन्नेए साथे मलीने स्वोपशद्रव्यालंकार वृत्ति तथा नाटयदर्पण विवृति रचो छे. (४) श्री वर्धमान गणि-तेमणे कुमारपालप्रशस्तिकाव्यनु व्याख्यान कयू छे. प्रथम आ काव्यना अर्थ कर्या अने पछी आज काव्यना तेमणे ११६ अर्थ कर्या छे. श्री सोमप्रभाचार्यश्रोए कूमारपालप्रतिबोध ग्रन्थ १२४१ मां बनान्यो ते ग्रन्थ आ त्रणे पट्टधरोए सांभल्यो हतो. कुमारपाल प्रतिबोधमां तेमणे लख्यु छ के हेमसूरिपदपङ्कजहंसैर्महेन्द्रमुनिपैः श्रुतमेतत् । बर्धमान गुणचन्द्रगणिभ्यां साकमाकलितशास्त्र रहस्यैः ।। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ श्री हेमचन्द्रसू. मं. ना चरणकमलने विषे हंस समान तथा शास्त्रना रहस्योना जाणकार श्री महेन्द्रमुनीश्वरे श्री वर्धमान गणि तथा श्री गुणचन्द्र गणि साथै आ कुमारपाल प्रतिबोध ग्रन्थ सांभल्यो छे. ( ५ ) श्री देवचन्द्र मुनि तेमणे चन्दलेखाविजय प्रकरण रच्यु छ ( ६ ) श्री यशचन्द्र गणि- श्री मेरुतुंगसू. महाराजे सं० १३६१ माँ रचेल प्रबन्धचितामणिमां उल्लेख छे. (७) श्री उदयचन्द्र - तेमना उपदेशथी श्री देवचन्द्रसू. म. ना ( शिष्य श्री कनकप्रभ मुनिए हैमन्याससारसमुद्धार कर्यो छे श्री उदयचन्द्र मुनि जीवनभर व्याख्यान रूपी ज्ञानामृतनी परब समान हता. (८) श्री बालचन्द्रसू. म. - ए पू. रामचन्द्रसू. म. ना हरोफ हता. अजयपालना प्रीति पात्र हता. श्री रामचन्द्रसू. म.ना मृत्यु मां तेमने आचार्यपद आपवानु कारण बन्यु हतु' तेमणे 'स्नातस्या' स्तुति बनावी छे. श्री सिद्धराजे श्री हेमचन्द्रसू. म. ने एक बार कहयुं 'आप सरस्वती पुत्र छो. सर्वज्ञपुत्र छो आपनी पाटने दीपावे तेवा विद्वान गुणवान शिष्य कोण छे ?' सूरिजीए कहयु', 'पं. रामचन्द्र गुणवान अने संघमान्य छे' राजा पं. श्री रामचंद्र गणिने वंदन करी प्रसन्न थयो. एक वार राजाए पं. श्री रामचन्द्र गणिने पूछयु' 'उनालाना दिवसो लांबा केम होय छे. ?' कविए कहयुं 'तमे दिग्विजय करवाथी दोडता घोडानी खरीथी उडेल धूलथी आकाशगंगामां कादव थतां त्या धो उगो ते Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खावा सूर्यना घोडा रोकाता होवाथी दिवस लांबो थाय छे' आवी कवित्वशक्तिथी प्रसन्न थइ राजाए तेमने 'कविकटारमल्ल' बिरुद आप्यु. 3 सिद्धराजे भाइ तरीके स्वीकारेल भने श्री हेमचन्द्रसूरीयद्विसंधान महाकाव्यना संशोधक महाकवि श्रीपाले सिद्धराजे बनावेल सहस्रलिंग सरोवरनी प्रशस्ति लखी ते सिद्धराजे कोतरावी हती. राजाए ते प्रशस्तिनुं संशोधन करवा सर्वदर्शनना पंडितो बोलाव्या. श्री हेमचन्द्रसू महाराजे 'सर्वपंडितमान्य प्रशस्तिमाँ तमारे कंइ पांडित्य रजु न करबु तेम कहीने पं रामचन्द्र गणिने मोकल्या. श्रीपाल कविनी शरमथी कोइए कंड भूल के शंका बतावी नहि. प्रसंशा करो. सिद्धराजे श्री रामचंद्र गणिने आग्रहथी पूछयं तेणे का ं 'विचारवा योग्य छे.' बधाए संमति आपी त्यारे गणिवरे का 'आ प्रशस्तिमां सैन्यवाचक दल शब्द छे तथा कमल शब्द नित्यनपुंसकलिंग छे. ते बे दूषण छे' ते वखते बधा पंडितोए राजसैन्य अर्थमां दल शब्द नक्की कर्यो अने 'कमलशब्दनु लिंगानुशासनमा नित्यक्लीबत्व का छे. तेनों कोण निर्णय करे ? माटे पुलिंग थाय अथवा न थाय' तेम अक्षरभेव कराव्यो. आवा : जब्बर विद्वान पं. रामचन्द्र गणि हता. ७ ७ तेओ शब्द, प्रमाण अने काव्यना लक्षणना पारंगत हता. तेमने श्री हेमचन्द्रसू. म. ए आचार्यपदथी अलंकृत करी पोतानी पाटे स्थाप्या हता. तेमणे अंक सो प्रबन्ध रच्यानो उल्लेख तेमना कौमुदी मित्राणन्द तथा निर्भय भीमव्यायोग-ग्रंथोमां 'प्रबन्धशतविधान निष्णात बुद्धिना' 'प्रबन्धशतकर्तृ : ए विशेषणो वडे कर्यो छे. रोगथी तेमनी जमणी आंख गइ हती. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. हेमचन्द्रसू. म. नो जन्म वि. सं० ११४५, दाक्षा वि. सं. १४५०, सूरिपद वि. सं. ११६६, स्वर्गवास वि. सं. १२२९मां छे. सिद्धराजनो समय वि. सं. ११४९ थी ११९९ छे. कुमारपालनो राज्य समय ११९९ थी १२३० छे. अजयपाल १२३० मां गादीए आव्यो. त्रण वर्ष राज्य कयु. जेसलमेरना भंडारमां वि. सं. १२०२ मां लखेल पू. रामचन्द्रसू. म. ना रघुविलासनी ताडपत्रीय प्रत छे. वि. सं. १२४१मां रचाएल 'कुमारपाल प्रतिबोध' मां तथा वि. सं १२९५ मां रचायेल गणधर सार्धशतक वृत्तिमां 'नलविलास' ग्रन्थना अवतरण आप्या छे. श्री रामचन्द्रसू. म. आ त्रणे राजाओना समयमां हता जेथी तेमनो सत्तासमय ११४९ था १२३३ वच्चेनो गणाय. १२३०मां अजयपाल सोलंकी राजा थयो. तेने बालचन्द्र मुनि साथ मेल हतो. केमके - एक वार रात्रे कुमारपाल मंत्री आभड साथै श्री हेमचन्द्रसू. म. साथै वात करता हता. राजाए पूछयु - 'मारी गादी उपर कोने बेसाडु ?' गुरु बोल्या, 'धर्मनी स्थिरता माटे तमारा दोहित्र प्रतापमल्लने राजा करो. जो तमारो भत्रीजो अजयपाल राजा थशे तो आ विस्तारेलो धम नाश पामशे'. आभड कहे- 'जेवो तेवो तो य पोतानो सारो, अजयपाल सोलंकी पोतानो कहेवाय. फरी श्री हेमसू. म. बोल्या अजयपाल तो न थाय तो सारूं' आ वात बालचन्द्र मुनिए सांभलीने अजयपालने कही. हेमचन्द्रसू. म. ना स्वर्गवास बाद अजयपाले आपेला भर थी कुमारपाल मृत्यु पाम्या. अजयपाल राजा थयो तेणे श्री रामचन्द्रसू. म. ने बालचन्द्रमुनिने आचार्यपद आपका का सूरिजीए गुरुनी मनाइ होवाथी ना पाडी. राजा कहे जो पदवी न आपो तो आ तपावेली तांबानी पाट उपर बेसो. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी कहे-'जगतने प्रकाश आपनार सूर्य पण अस्त थाय छे. जे थवानु होय ते थाय, एम कही आराधना करी धगती पाट उपर बेसो स्वर्गवास पाम्या.... अजयपाले कुमारपाले बंधावेला घणा मंदिर तोड़ी नाख्या. बालचन्द्रमुनिने पण स्वगोत्रहत्याकारक-एम कही ब्राह्मणोए मनथी उतारी पाम्यो ते लज्जा थी मालवा गयो भने तेमां मृत्यु पाम्यो. अजयपालने जल देव नामना प्रतीहारे छरी मारी तमां जोवात पडी नरक जेवी वेदना अनुभवी मरण पाम्यो. तेणे १२३० थी १२३३ मांत्रण वर्ष राज्य कर्यु. __ श्री रामचन्द्रसू. म. नुं साहित्य (१) नाट्यदर्पणम् (स्वोपज्ञ) (२) द्रव्यालङ्कारः (स्वोपज्ञ) (३) सत्य हरिश्चन्द्रनाटकम् (४) नलविलासनाटकम् (५) कौमुदीमित्राणन्दनाटकम् (६) राघवाभ्युदयम् (७) यदुविलासम् (८) निर्भय भीमव्यायोगः (६) रोहिणमृगाङ्कप्रकरणम् (१०) कुमारविहार शतकम् (११) सुधाकलश सुभाषित कोश: (१२) हैमबृहद्वृत्तिन्यासः (५३००० श्लोक प्रमाण) (१३) ऋषभपञ्चाशिका (१४) व्यतिरेकद्वात्रिशिका (१५) अपह्न ति द्वात्रिशिका (१६) अर्थान्तर० द्वात्रिंशिका (१७) दृष्टांतगर्भजिनस्तुति (१८) शांतिद्वात्रिंशिका (१९) भक्तिद्वात्रिशिका (२०) नेमिद्वात्रिंशिका (२१) उदयनविहार प्रशस्ति (२२-३७) षोडशका: साधारणजिनस्तवाः (३८) जिनस्तोत्राणि (३९) मल्लिकामकरन्दप्रकरणम् (४०) यादवाभ्युदयम् (४१) रघुविलासम् (४२) वनमालानाटिका (४३) युगादिदेवद्वात्रिशिका (४४) प्रसादद्वात्रिशिका (४५) मुनिसुव्रतदेवस्तवः (४६) नेमिस्तवः । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ११ नाटक अने घणां प्रबोधो ने पण रच्या छे. सो प्रबन्धनो उल्लेख छे. हस्तलिखित साहित्यमां क्यांक विरल प्रतो पण पडी हशे. केटलाक ग्रन्थो मात्र बीजा ग्रन्थोमां निर्देश करायेला नामथी ज मले छे. पू० रामचन्द्रसू. म. नु काव्य आदि उपरनु अनोखु प्रभुत्व, शासनना शिरोमणि भावनु जोवन, गुरुसमर्पण विगेरे अद्भुत हता. तेमनी आ 'नलविलासनाटकम्' कृतिनु सम्पादन करतां आनन्द थाय छे. प्राचीन साहित्यनुवांचन मनन वधे तो तेथी भाषादिना ज्ञान साथे भावनो पण विकास थाय अने ते द्वारा आत्मा निस्वार्थ निर्मल भावनापूर्वक मुक्तिमार्गनो पुनोत पथिक बने एज शुभ अभिलाषा. सं० २०४० जेठ सुद ११ लि०शनिवार ता० ९-६-८४ प्रकृष्टवक्ता पू. गुरुदेव मु. लाखाबावल-शांतिपुरी आ. श्री विजयामृतसूरीश्वर विनेय जि. जामनगर (सौराष्ट्र) जिनेन्द्रसूरि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ पात्र -- परिचयः नल:- निषधाधिपतिः । दमयन्ती - विदर्भाधिपतिभीमरथस्य पुत्री नलनृपस्य पत्नी । किम्पुरुषः - नलनृपस्यामात्यः । कूबर : - युवराजो निषधस्य पुत्रः । भीमरथः- विदर्भाधिपतिर्दमन्त्याः पिता । पुष्पवती - भीमरथस्य पत्नी दमयन्त्या माता । कलहंसः - नलवयस्यः । खरमुख:- विदूषकः । कोरकः - राजभाण्डारिको नलसत्कः । सिंहलक: } राजपुरुषौ नलपरिग्रहे । माकन्द: शेखरः - मत्तमयूरोद्यानरक्षकः । लम्बोदरः - कापालिको घोरघोणस्य शिष्यः । चित्रसेनः - कलचुरिपतिः चेदिपतिः । मेषमुखः - चित्रसेनस्य प्रणिधिर्घोरघोणनामधारी कापालिकः । कोष्ठकः - लंबोदर नामधारी कापालिक, चित्रसेनस्य चरः, घोरघोणस्यानुचरः । मकरिका - करङ्कवाहिनी नलपरिग्रहे । कपिञ्जला-विदर्भराजचामरग्राहिणी दमयन्त्याः सखी । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोरधोण:-कापालिका, चित्रसेनस्य चरः । लम्बस्तनी-कापालिकघोरघोणस्य भार्या । कुरङ्गका-विदर्भराजपुरुषः । मुकुल:-विदर्भराजोद्यानरक्षकः। कौशलिका-दमयन्त्या दासी । वसुदत्तः-भीमरथस्यामात्यः । मङ्गलक:--विदर्भराजपुरुषः । माधवसेनः--विदर्भराजान्तःपुरकञ्चुकी । बल:-काशीक्षितिपतिः । विजयवर्मा--मथुराधिपतिः। दधिपर्ण:--अयोध्याधिपतिरिक्ष्वाकुकुलीनः । सपर्ण:--दधिपर्णस्यामात्यः। जीवलक:--दधिपर्णनृपपुरुषः। बाहुकः--दधिपर्णस्य सूपकारो विपर्यस्तरूपधारी नलः। ऋतुपर्णः--अचलपुरस्वामी । धनदेवः--अचलपुरनिवासी सार्थवाहः । गन्धारः- 1 धनदेवसार्थवाहस्य मनुष्यो। पिङ्गलकः-- भस्मकः--लम्बोदरः कापालिकः : Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमः क्रमः विषयः पृष्ठम् १ . orocom mr - ur or * सम्पादकीय पात्र परिचयः ३. अनुक्रमः शुद्धिपत्रकम् १. प्रथमोङ्कः २. प्रथमेऽङ्क आमूखम् ३. द्वितीयोऽङ्कः ४. तृतीयोऽङ्कः ५. चतुर्थोऽङ्कः ६. पञ्चमोऽङ्कः ७. षष्ठोऽङ्कः ८. षष्ठेऽङ्क गर्भाङ्कः ६. सप्तमोङ्कः १०. नलविलास्थानां पद्यानां अकारादि-सूची Our U० rur m wom ११८ १३४ - - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठं पंक्तिः शुद्धिपत्रकम् ॐ अशुद्धं रायं ! इम किमयरै? ०वाढा० सरोषत् १ 99-392222m 2022029. शुद्धम् राय ! इयं किमपरैः ? ०बाढा० सरोषम् नितम्ब० मक रिकया प्रत्युत्तरम् भूयाज्जगति यया न कोवि ०प्रतिरवजात विलंबीयदि ०मगमत् मातः ०दभिनवां मां वा परित्यक्तुम् । ०रस्माभिः धरेदु (सरोषम्) नितम्ब० मकरिका प्रत्युत्तम् भूयाजगति यथा नवि को वि ०प्रतिरवज त० विलंबीयादि ०मगतम् भातः ०दभनवां मा वा वरित्यक्तुम् । ०रस्याभिः धणेदु (सरोचम्) १०५ १०७ ११३ । ११७ १२२ १२८ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ तपागच्छाधिराज महाराष्ट्र देशोद्धारक पू. आ श्री विजयरामचन्द्रसूरिभ्यो नमः। कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश्वर-पट्टपुरन्दर गुरुसमर्पित कविकटारमल्लाचार्यदेव श्रीरामचन्द्रसूरिवरविरचितं नलविलासम् । वैदर्भी रीतिमहं लभेय सौभाग्यसुरभितावयवाम् । दमयन्ती वैरस्यं दिशति गिरा या परां लक्ष्मीम् ॥१॥ (नान्द्यन्ते) सूत्रधारः-( मप्रमोदम् ) कविः काव्ये रामः सरसवचसामेकवसति नलस्येदं हृद्यं किमपि चरितं धीरललितम् । समादिष्टो नाट्ये निखिलनटमुद्रापटुरहं प्रसन्नः सभ्यानां कटरि ! भगवानेष स विधिः ॥ २॥ तद् गृहं गत्वा रङ्गोपजीविनः प्रगुणयामि ( इति परिक्रामति । पुरोऽवलोक्य) कथमयमित एवाभिपतति वयस्यो मन्दारः ! Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] नलविलासे ( प्रविश्य ) नटः-भाव ! दत्तः कोऽपि सामाजिकैरभिनयादेशः ? सूत्रधारः-दत्तः श्रीमदाचायहेमचन्द्रस्य शिष्येण रामचन्द्रेण विरचितं नलविलासाभिधानमाद्यं रूपकमभिनेतुमादेशः। नट:-भाव ! एतस्यां रामचन्द्रकृतौ सम्भाव्यते कोऽपि सामाजिकानां रसास्वादः ? सूत्रधारः-मारिष ! सम्भाव्यत इति किमुच्यते ? यतः प्रवन्धानाधातु नवभणितिवदग्ध्यमधुरान् कवीन्द्रा निस्तन्द्राः कति नहि मुरारिप्रभृतयः। ऋते रामानान्यः किमुत परकोटौ घटयितुं रसान् नाट्यप्राणान् पटुरिति वितर्को मनसि नः ॥३॥ अपरं च प्रबन्धा इक्षुवत् प्रायो हीयमानरसाः क्रमात् । कृतिस्तु रामचन्द्रस्य सर्वा स्वादुः पुरः पुरः ॥ ४ ॥ नटः-भाव ! अयमर्थः सत्य एव । यतःसङ्ख्यायामिव काकुत्स्थ-यादवेन्द्रप्रवन्धयोः । वर्धमानैगुणैरङ्काः प्रथमानतिशेरते ॥ ५॥ किन्तु रघु-यदुचरितं निसर्गतोऽपि रमणीयम् , अतस्तत्र सुकरो रसनिवेशः नलचरितं तु न तथा, ततः साशङ्कोऽस्मि । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः । सूत्रधारः - मारिष ! मा शङ्किष्ठाः श्रुतीनां पीयूषं कविकुलगिरां कीर्तिपटहो रसापीतेः पात्रं रघु-यदुचरित्रं विजयते । परं किञ्चित् किञ्चिन्नलललितमप्येतदमृतस्रवन्तीं श्रोतॄणां श्रवसि विनिधातु प्रभवति ॥ ६ ॥ नट: - ( विमृश्य ) भाव ! अयं कचिः स्वयमुत्पादक उताहो परोपजीवकः । सूत्रधारः - अत्रार्थे तेनैव कविना दत्तमुत्तरम् -- जनः प्रज्ञाप्राप्तं पदमथ पदार्थ घटयतः पराध्वाध्वन्यान् नः कथयतु गिरां वर्त्तनिरियम् । अमावास्यायामप्यविकलविकासीनि कुमुदा | ३ न्ययं लोकश्चन्द्रव्यतिकरविकासीनि वदति ॥ ७ ॥ अपि च शपथप्रत्येयपदपदार्थसम्बन्धेषु प्रीतिमादधानं जनमवलोक्य जात खेदेन तेनेदं चाभिहितम् - स्पृहां लोकः काव्ये वहति जरठैः कुण्ठिततमैर्वचोभिर्वाच्येन प्रकृतिकुटिलेन स्थपुटिते । वयं वीथीं गाढुं कथमपि न शक्ताः पुनरिमामियं चिन्ता चेतस्तलरयति नित्यं किमपि नः ॥ ८ ॥ नटः -- ( क्षणं विमृश्य) भाव ! अद्य नटी विषादिनी । सूत्रधारः - - जानासि किमपि विषादस्य कारणम् ? Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे नटः-जानामि । या भवत्पुत्री कुन्तला नाम सा भर्ना स्वगृहानिर्वासिता । सूत्रधारः-हुँ ! कुन्तला भर्ना गृहानिर्वासिता ? नटः-अथ किम् । सूत्रधारः-(विमृश्य ) अवयं किमप्युद्भाव्य उताहो मुधैव ? नट:-मुधैव। सूत्रधारः-अनवसरस्तर्हि विषादस्य । किश्च कृतेनापि विषादेन सा गृहप्रवेशं न लभते । यतः न स मन्त्रो न सा बुद्धिर्न स दोष्णां पराक्रमः । अपुण्योपस्थितं येन व्यसनं प्रतिरुध्यते ॥ १ ॥ - यदि च सा निरवद्या, तदा तां पुनरपि पतिः सम्भावयिष्यति । नट:-पुराप्ययमों जातोऽस्ति । किन्तु परमं गृहाधिपत्यमवाप्य साम्प्रतं सा कमकरवृत्त्या तिष्ठतीति नटी विषादमुद्वहति । सूत्रधारः-(साक्षेपम् ) मारिष ! त्वमप्येवमभिदधासि ! ननु अकृताखण्डधर्माणां पूर्व जन्मनि जन्मिनाम् । सापदः परिपच्यन्ते गरीयस्योऽपि सम्पदः ॥१०॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः । ( नेपथ्ये ) वयस्य कलहंस ! परमेश्वरस्य युगादिदेवस्य सपर्यया वयमतीव श्रान्ताः । तदादेशय खरमुखम् । येनास्मद्विश्रामहेतुं सच्छायं कमप्युद्यान प्रदेश मवलोकयति । सूत्रधारः - ( समाकर्ण्य ) कथं नलनेपथ्यधारी नटो वदति ? तदेहि मारिष वयमप्यनन्तरकरणीयाय सज्जीभवाम । ( इति निष्क्रान्तौ ) आमुखम् । ( ततः प्रविशति राजा कलहंसादिकश्च परिवार: ) राजा - - ( वयस्य कलहंस इत्यादि पुनः पठति ) कलहंसः -- हो ! खरमुख ! गवेषय कमपि देवस्य विश्रामहेतुमारामप्रदेशम् । [ ५ ( प्रविश्य ) विदूषकः -- भो कलहंस ! अगकरालवालविहुरे आरामकुहरे एयंमि एगागी भयामि, ता न गवेसइस्सं । राजा - - ( स्मित्वा ) वयस्य ! महावीरः खल्वसि, ततस्त्वमेव (वं ) विभेषि । १. भो कलहंस ! अनेक करालव्यालविधुरे आरामकुहरे एतस्मिन् एकाकी बिभेमि तन्न गवेषयिष्यामि । , Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे विदूषकः--'साहु पियवयस्सेण सुमराविदम्हि । मए जाणिदं अहं भोयणलंपडो बंभणो न गवेसइस्सं ( इति परिक्रामति ) राजा--(समन्तादवलोक्य कलहंसं प्रति) कटरि ! आराममण्डनानां तरुखण्डानां नेत्रपात्रकलेह्यः कोऽपि चारिमा। तथाहि आपाकपिञ्जरफलोत्करपिङ्गभासो भास्वत्करप्रसररोधिगुलुच्छभाजः । कूजत्पिकी कुलकुलायकलापवन्तः प्रीणन्ति पश्य पथिकान सहकारवृक्षाः ॥११॥ विदूषकः-एदं उज्जाणकेलिसरसीसीकरासारसिणिद्धच्छायं तरुखंडं, ता इत्थ एदु पिअवयस्सो। राजा--(विलोक्य स्वगतम् ) समुचितोऽयं प्रदेशः। पवित्रसरसप्रदेशप्रकाशनीयः खलु शुभोदकः स्वप्नः । (प्रकाशम् , अपवाय कलहंसं प्रति ) किमद्यापि चिरयति नैमित्तिकः ? कलहंसः-एष इदानीमायाति । १. साधु प्रियवयस्येन स्मारितोऽस्मि । मया ज्ञातम् . अहं भोजनलम्पटो ब्राह्मणो न गवेषयिष्यामि । २. एतदुद्यानकेलिसरसीसीकरासारस्निग्धच्छायं तरुखण्डम् , तदत्रैतु प्रियवयस्यः। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः। राजा-(समन्ततो विलोक्य ) दात्युहकुक्कुभकपिञ्जलचक्रवाक सारङ्गभृङ्गकलकूजितमञ्जुकुञ्जाः । उद्यानकेलिसरसीनवफुल्लमल्लीवल्लीगृहाङ्गणभुवो रमयन्ति चेतः ॥ १२ ॥ (प्रविश्य) प्रतीहारः-देव ! निवधाधिपते ! एको ब्राह्मणो द्वारि वर्तते। राजा--(स्वगतम् ) नैमित्तिकः खल्वयम् । (प्रकाशम्) वयस्य ! क्षणमेकमिदानों मङ्गलाभिधायिना भवता भाव्यम् । विदूषकः-(सरोषम्') 'किं अहं तए सव्वदा अमङ्गलभासगो जाणिदो ? ता न इत्थ चिट्ठीस्सं । (इति गन्तुमिच्छति) राजा-वयस्य ! न गन्तव्यम् । विदूषकः-'न तुह सयासे वि चिट्ठिस्सं, किंतु गरुअनिअवंभणीए चलणस्स सेविस्सं । (इति गन्तुमिच्छति) कलहंसः--खरमुख! यदादिशति देवस्ता क्रियताम् । १. किमहं त्वया सर्वदाऽमङ्गलभाषको ज्ञातः ? । ततो नात्र स्थास्यामि। २. न तव सकाशेऽपि स्थास्यामि, किन्तु निजगुरुब्राह्मण्याश्चरणी सेविष्ये। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] नलविलासे (विदूषको निःश्वस्य यथास्थानमुपविशति) राजा-(स्वगतम्) यथाऽयमकाण्डे कुपितः प्रसन्नश्च, तथा ज्ञायते प्रत्यूहगर्भः स्वप्नार्थः । तथापि यन्नैमित्तिको व्याख्यास्यति तत् प्रमाणम् । (प्रकाशम् ) प्रियङ्कर ! शीघ्र प्रवेशय । प्रतीहारी-यदादिशति देवः (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः) ( प्रविश्य ) नैमित्तिकः--स्वस्ति महाराजाय । राजा--इदमासनमास्यताम् । (नैमित्तिक उपविशति) अद्यास्माभिस्त्रियामातुर्ययामचतुर्भागे स्वप्नो दृष्टः । यथा कुतोऽप्यागत्यास्मत्करतलमारूढा प्रथममेका मुक्तावली, पुनः प्रभ्रष्टा, पुनरप्यस्माभिरादाय कण्ठे निवेशिता । ततो वयं तया प्रकामं कान्तिमन्तः सञ्जाताः। नैमित्तिकः--(विमृश्य) देव ! प्रशस्ततमोऽयं स्वप्नः । स्त्रीरत्नलाभेन महता प्रतापेन च फलिष्यति । किन्तु प्रत्यूह(इत्य?क्ते सभयम् ) राजा-दैवज्ञ ! मा भैषीर्यथाज्ञातमावेदय । नैमित्तिकः- किन्तु प्रत्यूहगर्भः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः । [ ९ विदूषकः - ( दण्डमुद्यम्य ) 'अरे दासिए पुत्ता ! नेमित्ति ! खरमुहे वि सन्निहिदे पियवयस्सस्स पच्चूहो ? राजा - अस्तु प्रत्यूहगर्भः, पर्यन्ते चेच्छुभोदकः । नैमित्तिकः कः सन्देहः ? राजा - दैवज्ञ ! स्वप्नार्थपरिज्ञानप्रत्ययहेतुं कमप्यचिरभाविनमर्थमावेदय । नैमित्तिकः —— परमप्रीतिहेतुरचिरादेव देवस्य कोड व्यर्थः सम्पत्स्यते । राजा - ( विमृश्य ) कोऽत्र भोः ! ( प्रविश्य ) पुरुषः- एषोऽस्मि | आज्ञापयतु देवः । राजा - अये ! सिंहलक ! दर्शय मत्प्रसादस्य फलं नैमित्तिकाय । सिंहलकः - यदादिशति देवः | ( इत्यभिधाय सनैमित्तिको निष्क्रान्तः) ( नेपथ्ये ) कोऽत्र भोः ? निवेद्यतां निषधाधिपतयेऽस्मदागमनम् । राजा - ( समाकर्ण्य ) वयस्य 1 विलोकय गत्वा कोऽयम् । १. अरे दास्याः पुत्र ! नैमित्तिक ! खरसुखेऽपि सन्निहिते प्रियव यस्यस्य प्रत्यूहः ? Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] नलविलासे विदूषकः-'जं आणवेदि भवं ( इत्यभिधाय निष्क्रम्य, ससम्म्रमं प्रविश्य ) भो लहुँ उत्थेहि उत्थेहि, जेण पलायम्ह । राजा--विश्रब्धमभिधीयतां कि भयस्य कारणम् । विदूषकः-- एगो पिसाओ दुवारे चिट्ठदि । राजा--असम्भावनीयोऽयमर्थः । कुतो नामात्र भगवद्युगादिदेवतायतनयावने वने पिशाचानां सम्भवः ? विदूषकः--(सरोषम् ) युगादिदेवावटेंभेण तुझे इह ज्जेव चिट्ठध । राजा-वयस्य ! क्षणं मर्षय यावत् सम्यग् निर्णयामि। विषक:- भो ! ता न निस्सरिस्सं । नियवंभणीचलणसमरणेण नट्ठ मह भयं । कलहंसः-(विहस्य ) अतीव ब्राह्मणीभक्तोऽयम् । राजा--कलहंस ! स्थितिरियं जगतः। १. यदाज्ञापयति भवान् । भो ! लघूत्तिष्ठोत्तिष्ठ, येन पलायामहे । २. एक: पिशाचो द्वारे तिष्ठति ।। ३. युगादिदेवावष्टम्भेन यूयमिहैव तिष्ठत । ४. भोः ! तन्न निःसरिष्यामि, निजब्राह्मणीचरणस्मरणेन नष्टं मम भयम् । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः । [११ आत्मन्यपत्यदारेषु प्राणेषु विभवेषु च । इतो नृप इतो रङ्कस्तुल्या प्रीतिद्वयोरपि ॥१३॥ तत उत्थाय स्वयं विलोकय कोऽयं द्वारि । ( कलहंसो निष्क्रम्य पुनः प्रविशति ) विदूषकः-'भो रायं ! अहं तुह पिट्ठिभाए चिट्ठिस्सं । बीहामि एआओ बंभरक्खसाओ। राजा-(विलोक्य) कथं खट्वाङ्गसङ्गी कापालिकः ? स्वागतं तपोधनाय। कलहंसः-मुने ! इदमासनमास्यताम् । कापालिकः-( स्वगतम् ) अयमपि तावद् द्रष्टव्यः। कदाचिदेतदीयमपि चरितं कलचुरिपतिः पृच्छति । (प्रकाशम्) स्वस्ति महाराजाय । राजा-कुतस्तपोधनः ? कापालिकः-साम्प्रतं विदर्भमण्डला तु। राजा-कियदवधिगमनम् ? कापालिक:-जीवितावधि । राजा-(स्वगतम् ) वचनशठस्तापसच्छद्मा चर इव लक्ष्यते । (प्रकाशम् ) देशावधिं पृच्छामि। १. भो राजन् ! अहं तव पृष्ठभागे स्थास्यामि, विभेमि एतस्माद् ब्रह्मराक्षसात् । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] नलविलासे कापालिकः - - नवनवतीर्थदर्शनश्रद्धालूनां तपस्विना कुत एव देशावधिः । राजा - (स्वगतम् ) नियतमयं चरः । अनुचितमाचरितमस्माभिर्यदस्मिन्ननावृते वने समीपीकृतः । कदाचिदयं घातकोऽपि स्यात् । भवतु तावत् | ( प्रकाशम् ) कुतो भवति दीक्षामः ? कापालिक:- राम गिरिनिवासिनः कापालिक चूडामगणेश्चन्द्रशेखरात् । विदूषकः - दिट्टिया महं सालो समागदो । सो खलु चंदसेहरो मह बंभणीए पिआ । कलहंसः -- ( विहस्य ) मुने ! महोपाध्यायोऽसौ निपधायां तदमुना भगिनीपतिना भवद्भिने लज्जितव्यम् । कापालिकः - ( सरोषम् ) सम्पदापि निवेदितमस्य महोपाध्यायत्वम् । राजा - (स्मिन्दा ) अल्पसम्पत्तिकत्व महेतुरमहोपाध्यायत्वे | अल्पवेतना हि विद्याजीविनः प्रायेण । देवीं वाचमविक्रेयां विक्रीणीते धनेन यः । क्रुद्धेव तस्मै सा मूल्यमत्यल्पमुपढौकयेत् ॥ १४ ॥ १. दिष्टया मम श्यालः समागतः । स खलु चन्द्रशेखरो मम ब्राह्मण्याः पिता । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः । [१३ कापालिकः--(सोपहासम् ) किमभिधानोऽयं महोपाध्यायः ? राजा-खरमुखाभिधानोऽयम् । कापालिकः-(सोपहासम्) आकारानुरूपमभिधानम् । राजा-मुने! किमभिधानमलङ्करोषि ? । कापालिकः-लम्बोदराभिधानोऽस्मि । विदूषकः-'आगिदीए सरिसं नाम । राजा-( सस्मितम् ) वयस्य ! सर्वस्याभ्यागतो गुरुरिति नैनं हसितुमर्हसि । विदूषकः--समाणे वि बंभचारित्तणे किं मे एस हसदि, अहं कीस न हसिस्सं! राजा--अपयोजकः सामान्योपन्यासः परिहासस्य । समेऽपि देहदेशत्वे तूलमप्यक्षि पीडयेत् । पाषाणघपणेनापि पादाः कान्तिमुपासते ॥ १५ ॥ विदषकः--भो कावालिया ! जइ मे पत्थणं विहलं न करेसि, ता किं पिं पत्थेमि । १. आकृत्याः सदृश नाम । २. समानेऽपि ब्रह्मचारित्वे किं मामेष हसति ? अहं कथं न हसिष्यामि ? ३. भोः कापालिक ! यदि मे प्रार्थनां विफलां न करोषि, तदा किमपि प्रार्थये। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल विलासे कापालिक:-यथेच्छं विज्ञपय । विदूषकः - 'जह मे इमं खड्ड गं समप्पेसि, ता तुह बहिणीए खंडणोवगरणं मुसलं भोदि । १४] कापालिकः - ( सरोषम् ) आः पाप ! ब्राह्मणत्रुव ! मामासादितपरमब्रह्माणं तपोधनमवजानासि ? एष ते खट्वा - गेन शिरः पातयामि । विदूषकः - ( सरोषमुत्थाय ) 'अरे दासीपुत्त ! कावालिया ! लहु इदो एहि, जेण दे एदिणा जन्नोपवित्तेण मत्थयं तोडेमि । (उभौ नियुध्येते ) राजा - अलमलमनुचिताचरणेन । कलहंस ! निवारय निवारय । कलहंसः - (परिक्रम्य) किमिदं युध्यमानस्य कापालिनः कक्षातः पतितम् ? राजा - ( विलोक्य) कलहंस 1 किमिदम् १ ! कलहंसः - देव ! अनेकवस्त्रग्रन्थिनिबद्धा मात्रेयं कापालिनः सम्भाव्यते । राजा - मध्यमवलोकय । ( कलहंसः तथा करोति ) १. यदि मे इदं खट्वाङ्ग समर्पयसि तदा तव भगिन्याः खण्डनोपकरणं मुशलं भवति । २. अरे दासीपुत्र ! कापालिक ! लघु इत एहि, येन त एतेन यज्ञोपवीतेन मस्तकं त्रोटयामि | , Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः। [१५ कापालिकः-(विलोक्य सभयमात्मगतम्) हा ! हतोऽस्मि । ( युद्धाद् विरम्य प्रकाशमुच्चैःस्वरम् ) भो भो ! नालोकनीयं मन्मन्त्रपुस्तकम् । कलहंसः-(विलोक्य) कथं वस्त्रान्तरे लेखः ? राजा-(गृहीत्वा वाचयति) स्वस्ति । महाराजचित्रसेनं मेपमुखः प्रणम्य विज्ञापयति यथा सर्वमपि युष्मन्मनोरथानुरूपं सम्भाव्यते । इमं च कोष्टकहस्तात् तत्प्रतिकृतिग्राह्य ति । कलहंसः कोऽयं चित्रसेनः ? को मेषमुख १ कः कोष्टकः १ का वा सा ? यस्याः प्रतिकृतिः । राजा-अव्यक्तस्थानश्वारलेखोऽयं न शक्यते ज्ञातुम् । भवतु तावत् , पुरोऽवलोकय । (कलहंसः तथा करोति) कापालिक:-(समयमुच्चैःस्वरम् ) तदेव व्याहरति । कलहंसा-(विलोक्य सहर्षमात्मगतम् ) अहो ! स्त्रीरत्न सेयं स्वप्नदृष्टा मुक्तावली। स चैव नैमित्तिकावेदितः स्वप्नार्थज्ञानप्रत्ययहेतुरथः । (प्रकाशम्) देव ! सफलीक्रियता नेत्रनिर्माणं लोकोत्तरवस्तुदर्शनेन । राजा-(विलोक्य सहर्षप्रकर्षम् ) अहो ! बहूनां वस्तूनामेकत्र वासः Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे वक्त्रं चन्द्रो नयनयुगली पाटलामोजपुग्म नासानालं दशनवसनं फुल्लबन्धूकपुष्पम् । कण्ठः कम्बुः कुचयुगमथो हेमकुम्भौ नितम्बो - गङ्गारोधश्चरणयुगलं वारिजद्वन्द्वमेतत् ॥१६॥ किश्च लावण्यपुण्यतनुयष्टिमिमा मृगाक्षी जाने स्वयं घटितवान् भगवान् विधाता । स्वोषितामपि चिरस्पहणीयमङ्ग विन्याससौरभमिदं कथमन्यथाऽस्याः ॥१७॥ (पुनर्विमृश्य) मुने! कि मदम् ? कापालिका-(सरोषमिव) यथेदं मौक्तिकप्रायमाभरणं, यथा दन्तपत्राश्चिती कर्णपाशी, तथा जाने दाक्षिणात्यायाः कस्या अपि योषितः प्रतिकृतिरियम् । राजा-(विलोक्य सस्पृहम् ) अशेषाणां मध्ये जलनिधिमणीनां गुणजुषः परं मुक्ता व्यक्तं दधतु हृदि दर्प किमपौ ? अयं यासां मल्लीमुकुलनबदामद्युतिहरः प्रभातारो हारः स्वपिति सुखमस्याः स्तनतटे ॥१८॥ किश्चदासस्तस्य गजान्वयार्णवमणेः स्तम्बेरमस्य स्वयं पौलोमीकृतचित्रकबुररदः सोऽप्यभ्रमूवल्लभः॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः __ [१७ यद्दन्तान्तविनिर्मिते प्रचलनप्रेसोलिनी कुण्डले काण्डीरस्मरपाण्डुगण्डफलकावस्याश्चिरं चुम्बतः॥१६॥ (पुनः सविनयम् ) मुने ! सर्वथा कथय किमिदम् ? कापालिकः--प्राणात्ययेऽपि किमसत्यमाभाष्यते ? राजा-भवतु तावत् , कथय कुत्रेयं समासादिता ? कापालिक:-अत्रैव कानने । राजा-यद्येवं ध्रुवमियं देवताप्रतिकृतिः काऽपि कस्यापि युगादिदेवदेवतायतनवन्दनार्थमागतस्य त्रिदशस्य हस्तानिपतिता, अनेन च समासादिता । विदूषकः- 'भो ! दाव पच्छा एदा जाणेयव्या, पढमं एदाए समीवे मं धरेध, जेण दिहिदोसो से न भोदि । राजा-(सप्रमोदम् ) साधु वयस्य ! साधु सर्वथा केलिकुशलोऽसि (दिशोऽवलोक्य) काऽत्र भोः! करङ्कवाहिनीषु ? (प्रविश्य ) युवतिः- एसा चिट्ठामि । राजा-अयि मकरिके ! वयस्याय प्रसादताम्बूलं प्रयच्छ । १. भोस्तावत् पश्चादेषा ज्ञातव्य। । प्रथममेतस्याः समीपे मां घरत, येन दृष्टिदोषोऽस्या न भवति । २. एषा तिष्ठामि । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] नलविलासे मकरिका - (तथा कृत्वा) 'भट्टा ! किं एदं महया पयतेण अवलोईयदि १ राजा - आयुष्मति ! देवताप्रतिकृतिरियम् । मकरिका - ( विलोक्य विमृश्य च ) भट्टा ! न एसा २ देवयापडिकिदी । राजा - ( ससम्भ्रमम् ) तहिं किमेतत् ? 3 मकरिका जड़ मे पारितोसिअं किंपि भट्टा पय - च्छदि, ता कहेमि । राजा - ( सादरम् ) निषधां तुभ्यं पारितोषिकं दास्यामि । भृशमावेदय । मकरिका- 'भट्टा! एसा विदब्भाहिवइणो भीमरहस्स पुत्तीए दमयंतीए पडिकिदी | राजा - कथं पुनर्ज्ञातवती भवती ? मकरिका- 'भट्टा ! कु' डिणपुरे में मादिकुलं । तदहं सव्वं पि विदव्भवुत्तंतं जाणेमि । १. भर्त: ! किमेतत् महता प्रयत्नेनावलोक्यते ? २. भर्त: ! नैषा देवताप्रतिकृतिः । २. यदि मे पारितोषिकं किमपि भर्ता प्रयच्छति, तदा कथयामि । ४. भर्त ! एषा विदर्भाधिपतेर्भीमरथस्य पुत्र्या दमयन्त्याः प्रतिकृतिः । ५. भर्त: ! कुण्डिनपुरे मे मातृकुलम्, तदहं सर्वमपि विदर्भ वृत्तान्तं जानामि । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः [ १६ राजा-(स्वगतम् ) सम्भवत्येतत् । उक्तं चानेन कापालिकेन यथाऽहं साम्प्रतं विदर्भमण्डलादायातः। (प्रकाशम्) मुने ! दमयन्तीप्रतिकृतिरियम् ? कापालिकः-ब्रह्मचारिणो वयम्, न योषित्कथा प्रथयामः। राजा-(सरोषम् ) पाखण्डिचाण्डाल ! कौक्कुटिक ! तापसछमा प्रणिधिरसि । कोत्र भोः १ (प्रविश्य ) दण्डपाणिः पुरुषः-एषोऽस्मि । राजा-अये भीम ! एनं नियम्य कारायो क्षिप । पुरुषः-यदादिशति देवः (इत्यभिधाय कापालिके जटासु गृहीत्वा भीमो निष्क्रान्तः) । कलहंसः-मूर्त्या शान्तात्मेवायं परमतीव दुष्टः । * भद्रया मुद्रयैव प्रतिहतममूदृशां पाखण्डिनां शान्तात्मत्वम् । अपि चशान्तात्माऽपि खलः खलः कथमपि व्यारूढवाढावमो भेदस्यापि सतो न वम चरितुजङ्घालकेलिक्रमः। इन्दोः कृन्दसितैश्चितापि परितो दोषैव दोषा करै श्छन्नस्यापि पयोधरैः प्रतिदिशं नाह्नः धियं गाहते ॥२०॥ (पुनर्विमृश्य) मकरिके ! सत्यं मानुषीप्रतिकृतिरियम् ? ॐ रौद्रया। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] नल विलासे मकरिका- 'किं अन्नहा भट्ट (ट्टि) णो विन्नवीयदि १ राजा कामं कामं कुसुमधनुषोऽप्यावहन्ती सशोके लोकेऽप्यस्मिन् यदि मृगदृशामीदृशी रूपलक्ष्मीः । क्लेशाकीर्णे तपसि विपुलस्वर्ग भोगोत्सुकानां मन्दीभूता खलु तदधुना प्राणभाजां प्रवृत्तिः ॥ २१ ॥ ( पुनर्विमृश्य) वयस्य ! त्वत्प्रयत्नकृतोऽयमस्माकं रत्नलाभः । कोऽत्र भोः ? पुरुषः- एपोऽस्मि । राजा - अये माकन्द ! खरमुखाय कनकालङ्कार प्रयच्छ । ( प्रविश्य ) ( यदाज्ञापयति देव इत्यभिधाय माकन्दो निष्क्रान्तः ) विदूषकः - जि मए जिदं मए । (ऊडूर्वबाहुः २ प्रनृत्यति ) राजा - ( स्मित्वा ) संयोगे श्रीर्मदो भोगे वैकल्यस्य निबन्धनम् | ततस्तु वस्तुचिन्तायां शक्त्या श्री राधिका मदात् ||२२|| ( पुनः साभिलाषं प्रतिकृतिमवलोक्य स्वगतम् ) विफल एव ममावतारो जगति यदेतया सह सलीलमत्रोपवने न विहरामि । ( प्रकाशम् ) मकरिके ! दमयन्ती कन्यका १ १. किमन्यथा भर्तु विज्ञप्यते ? २. जितं मया जितं मया । # Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽङ्कः मकरिका - 'अथ इं । राजा - अनुगृहीतोऽस्मि वेधसा ( पुनरपवार्य ) कलहंस ! त्रिजगतोऽप्यसुलभं वस्तु सम्पादयितुं न शक्नोषि ? कलहंसः - किमपरमुच्यते १ यदि मत्प्राणैरपि सम्पद्यते, तदा सम्पादयामि | १. अथ किम् । ( नेपध्ये तूयध्वनि: ) कलहंसः - देव ! युगादिदेवदेवतायतन सन्ध्याबलिपटहध्वनिरयम् । राजा -- (स्वगतम् ) अहो ! परमं शकुनम् । ( पुनविमृश्य ) प्रेषयाम्येनं दमयन्त्याः पार्श्वे । इयं च मकरिका विदर्भभाषावेषाचारकुशला सहैव यातु । ( पुनर्नेपथ्ये ) भो भो गन्धर्वलोकाः ! स्वकार्याणि कृत्वा शीघ्रमागच्छत युगादिदेव सन्ध्यासङ्गीतक मनुष्ठातुम् । राजा - ( सप्रमोदमात्मगतम् ) अहो ! प्रयोजनसमर्थः शब्दपातः । ध्रुवमयं कलहंसः प्रयोजनमाधाय शीघ्रमायास्यति । भवतु । ( प्रकाशम् ) कलहंस ! चित्रकर्मालङ्कमणान्युपकरणानि प्रगुणयितु ं व्रज । मकरिके ! वैदर्भी प्रतिकृतिं त्वं गृहाण | वयस्य ! दर्शय पन्थानं येन सन्ध्याविधिमाधाय सौधमलङ्कुर्महे । [ २१ ( इति निष्कान्ताः सर्वे ) ॥ प्रथमोऽङ्कः ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] नलविलासे द्वितीयोऽङ्कः। ( नेपथ्ये ) स्वागतं कलहंसाय सपरिच्छदाय । ( ततः प्रविशति कलहंसः मकरिकाप्रभृतिश्च परिवारः) कलहंसः--कथं मत्तमयूरोद्यानरक्षकः शेखरोऽस्मदागमनमनुमोदते ? (प्रविश्य ) शेखरः-आर्य कलहंस ! युष्मदागमनोत्कण्ठितोऽतीव देवो वर्त्तते । तदहं गत्वा निवेदयिष्यामि । ( इति निष्क्रान्तः) कलहंसः--अयि मकरिके ! कच्चिदिदमभिहिता त्वया लम्बस्तनी ? यथा यावद् वयं त्वदागमनं देवाय विज्ञापयामः, तावत् त्वया मत्तमयूरोद्यान एव स्थातव्यम् । मकरिका--'अध इं। कलहंसा-अपि प्रगुणीकृतानि *देवस्योपायनीकर्तुं विदर्भमण्डलोद्भवानि वस्तूनि । __ मकरिका--सव्वमाचरिदं । ( नेपथ्ये) भो भोः सभाचारिणः ! प्रगुणीक्रियता सिंहासनम् । अहो गन्धर्वलोकाः ! प्रारभ्यता सङ्गीतकम् । इदानीमास्थानमलङ्करिष्यति देवः। १. अथ किम् । ॐ स्योपनयनी। २. सर्वमाचरितम् । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्कः [२३ कलहंसः कथमयममात्यः किम्पुरुषो वदति ? (नेपथ्ये) 'इदो इदो पियवयस्स !। कलहंसः-मकरिके ! यथाऽयं खरमुखो व्याहरति, तथा जाने समायाति देवः । तदास्थानमुपसाव । (इति परिक्रामतः) (ततः प्रविशति सिंहासनस्थो राजा, किम्पुरुष-खरमुखादिकश्च परिवार: ) राजा-(स्मृत्वा विपकं प्रति) वयस्य ! प्राप्तः कनकालङ्कारः? (प्रविश्य ) शेखर:-देव ! प्राप्तः । राजा-(ससम्भ्रमम् ) कः प्राप्तः ? शेखरः-देव ! दिष्टया वर्धसे । प्राप्तो मत्तमयूरोद्यानं सपरिच्छदः कलहंसः। किम्पुरुषः-न केवलमुद्यानं सभा च । ( कलहंस उपसृत्य मकरिकया सह प्रणमति) राजा-(बाहुभ्यामाश्लिष्य) अपि कुशलवान् कलहंस ? कुशलवती मकरिका ? कलहंसः-देवस्य प्रतापेन । राजा-(सौत्सुक्यम् ) समर्थितमनोरथः समायातोऽसि ? कलहंसा-न समर्थितमनोरथः। १. इत इतः प्रियवयस्य ! । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] नलविलासे . राजा-हताः स्मः । कलहंसः-किश्च सम्भावितमनोरथोपायः समायातोऽस्मि । - राजा-(सहर्षम् ) अनुगृहीताः स्मः । उपायसम्भावनायामुपेयमपि सम्भाव्यते । भातु तावत् । दृष्टवानसि विदर्भराजात्मजाम् __कलहंसः-देव ! अदृष्टविदर्भराजात्मजस्य कलहंसस्य विदर्भगमनं निष्फलम् । राजा-न केवलमदृष्टविदर्भराजात्मजस्य कलहंसस्य विदर्भगमनं निष्फलम् , जन्मापि । तदलं वाचालताविस्तरेण । प्रथमं तावद् दमयन्तीतनुचारिमाणं समासतो विज्ञपय । कलहंसः-अयं समासः । राजा--( सप्रमोदम् ) वैदर्भीतनुवर्णनां रसघनश्रोतव्यसीमामिमा___ माकर्ण्य श्रवणौ ! युवां गमयथः स्वं जन्म तावत्फलम् । त्रैलोक्याद्भुतरूपदर्शनसुवासम्पर्क हेतुः पुनः पुण्यं वा नयने ! फलिष्यति वपुलावण्यपुण्योत्सवे ॥१॥ ___ कलहंस ! सावधानोऽस्मि । कलहंसः-देव ! काव्यं चेत् सरसं किमर्थममृतं वक्त्रं कुरङ्गीदृशा चेत् कन्दर्पविपाण्डुगण्डफलकं राकाशशाङ्केन किम् ? Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्कः [ २५ स्वातन्त्र्यं यदि जीवितावधि सुधा स्वभूर्भुवो वैभवं वैदर्भी यदि बद्धयौवनभरा प्रीत्या सरत्याऽपि किम् ॥२॥ राजा - ( सहर्षमात्मगतम्) यदि सयौवनायां विदर्भराजतनयायां रति- प्रीत्योः पुनरुक्तार्थता, तदानीमेव स्थाने नलस्योत्कलिकाकापेयम् | ( पुनर्दिशोऽवलोक्य) कथमास्थानीजनवलकोलाहलेन कर्णयोः सप्रत्यूहो विदर्भराजात्मजालावण्यसौरभवर्णनामृतास्वादः १ ( प्रकाशम् | सरोषत् ) मञ्जीराणी रणन्ति वारयत हुं वाराङ्गनाश्रामर ग्राहिण्यो मणिकङ्कणावलिझ (र) णत्कारं चिरं रक्षत | पूर्ण पञ्चमगीतिरीतिभिरहो ! गन्धर्वलोकाः । कथं वैदर्भीगुणसङ्कथां खरतरै मुष्णीथ पापाः ! स्वरैः ॥ ३ ॥ कलहंसः - अपि च देव ! Off विश्वस्य श्रवणेन्द्रियं सफलतां नेतु पुरा भारती वाचां रूपमुपास्य निर्मितवती वासं विदर्भक्षितौ । बद्धेष्व नरेन्द्रभीमतनयावेषं विधृत्याधुना साफल्यं नयनेन्द्रियं गमयितुं देवी स्मरस्य प्रिया ॥ ४ ॥ विदूषकः - ' ही ही भो कलहंस ! सुठु तए दमयंतीए अंगचंगत्तणं समासेण कहिद, ता सत्थि भवदे भोदु । १. अहो अहो ! भोः कलहंस ! सुष्ठु त्वया दमयन्त्या अङ्गचङ्गत्वं समासेन कथितम् । तत् स्वस्ति भवते भवतु । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] नल विलासे कलहंसः - ( ससम्भ्रमम् ) कथमार्यः खरमुखः १ खरमुख ! नमस्ते । विदूषकः - 'मह समाणविहवो होहि । मकरिका - अञ्ज 1 पणमामि । 3. विदूषकः- मम सरिसं रूविणं पई लहसु । राजा - (स्मित्वा) अहो ! परमसम्पत्तिहेतुराशीर्वादः । विदूषकः - भो ! तए मह जोगं न किं पि विदन्भमंडलादो आणीदं १ कलहंसः - अस्त्यानीतम् । राजा - ( स्मित्वा सौत्सुक्यम् ) अलमप्रस्तुतेन । सविस्तरं विदर्भराजतनयास्वरूपमावेदय । कलहंसः - देव ! चलकमलविलासाभ्यासिनी नेत्रपत्रे दशनवसन भूमिबन्धुजीवं दुनोति । स्मरभर परिरोहत्पाण्डिमागूढरूढ द्युतिविजितमृगाङ्का मोदते गण्डभित्तिः ॥ ५ ॥ १. मम समानविभवो भव । २. आर्य ! प्रणमामि । ३. मम सदृशं रूपिणं पति लभस्व । ४. भोः ! त्वया मम योग्यं न किमपि विदर्भ मण्डलादानीतम् ? Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्कः [ २७ राजा - यथायं कलहंसो वर्णयति, तथैव यदि तस्या अङ्गसन्निवेशो यदि च भगवाननुकूलो विरश्चिस्तदा न निषधाधिपतेरपरो भूर्भुवःस्त्रत्रयेऽपि पुण्यप्रागल्भ्यवान् । विदूषकः - भो कलहंस ! ताए कन्नगाए मह वत्ता कावि पुच्छिदा ? मकरिका - पुच्छिदा । विदूषकः - ( सहर्षम् ) किं ताए भणिदं ? मकरिका - एदं भणिदं, सो गद्दहमुहो किं करेदि ? विदूषकः - ( सरोषम् ) हुं सा मं गद्दहमुहं भणदि, ता न तस्स वन्नणं सुणिस्सं । कलहंसः - - अपरं च । कार्कश्यभूः स्तनतटी न गिरां विलासः केशाः परां कुटिलतां दधते न चेतः । तस्याः कुरङ्गकदृशो नृपचक्रशक्र ! जाड्य गतौ न तु मतौ विधृतावकाशम् ॥ ६ ॥ किम्पुरुषः - (स्वगतम् ) ध्रुवमीदृशस्य स्त्रीरत्नस्य सम्प्राप्तिर्भरतार्द्ध राज्यमुपनयति । १. भोः कलहंस ! तया कन्यकया मम वार्ता काऽपि २. पृष्टा । ३. किं तया भणितम् ? ४. एतद् भणितम् स गर्दभमुखः किं करोति ? " ५. हुं ! सा मां गर्दभमुखं भणति, ततो न तस्या वर्णनं श्रोष्यामि । पृष्टा ? Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] नलविलासे कलहंसः-अपि च स्वयं विमृश्य सोऽयमवयवाना सौन्दर्यलेशो देवाय विज्ञपितः । परमार्थेन तुवदनशशिनो नेत्राम्भोजद्वयस्य कपोलयोः स्तनकलशयोर्दोष्णो भेनितम्बतटस्य च । तनुतनुलताज्योत्स्नावीचीनिमग्नदृशा मया न खलु कलितो दोषः कश्चिद् गुणो न च कश्चन ॥७॥ विदूषकः-(सहपम्) 'ही ही भो ! तीए अयं जेव महतो दोसो जं सरीरे तेएण पिखिदु पि न सकीयदि । राजा-( सस्पृहमात्मगतम् ) आः ! कि भविष्यति स कोऽपि कदापि विश्व___ कल्याणकन्दजलदप्रतिमो मुहूर्तः । यस्मिन् विदभंतनयावदनेन्दुसङ्गा. दुत्फुल्लमक्षिकुमुदं तदिदं मम स्यात् ॥ ८॥ कलहंसः - किश्चिन्निनिमेषनेत्रविषय एव वैदर्भीरूपप्रकरः प्रत्यक्षीकृतोऽपि न शक्यते वाचा वर्णयितुम् । राजा-सप्रश्रयमात्नगतम्) निर्निमेषनेत्रविषय एव वैदर्भीरूपप्रकर्ष इति पदमस्माकमुपश्रतिः । ध्रवं भविष्यति तदर्शनं नः। १. अहो अहो ! भो: ! तस्या अयमेव महान् दोषो यत् शरीरे तेजसा प्रेक्षितुमपि न शक्यते । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्कः [ २९ किम्पुरुषः-(सासूयमिव) तदस्ति किं किमपि यत्कविगिरामप्यगोचरः ? राजा-(सरोषममात्यं प्रति)अयुक्तमभिदधासि । यतःअधिका वर्णना वाव क्वचिद् वयं ततोऽधिकम् । वण्यस्याकान्ति-कान्तिभ्यां द्वयमप्युपपद्यते ॥६॥ अत्यन्तकमनीयं हि स्तोतुवाचोऽपि नेशते । स्वरूपतः सुधास्वादं वक्तुं ब्रह्मापि न क्षमः ॥१०॥ तदलमतिविस्तरेण । कलहंस ! कथय तावदितः स्थानाद् गतेन किमाचरितं त्वया ? कलहंसः-देव ! देव प्रतिकृति दमयन्तीप्रतिकृति चादाय देवपादान प्रणम्य कतिपयैरेवाहोभिरहं कुण्डिनमधिगतवान् । राजा-( सत्वरम् ) ततस्ततः । कलहसः-अनन्तरमनया मकरिका स्वाभिजनद्वारेण कथमप्यात्मनः कन्यान्तःपुरे प्रवेशः कृतः। राजा-( सस्पृहम्') आयुष्मति मकरिके ! तत्रभवती भवती प्रथमं वैदर्भी दृष्टवती मकरिका- 'अध इं। राजा-ततस्ततः। १. अथ किम् । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] नलविलासे मकरिका- 'तदो पडिदिणं सेवाववएसेण दमयंतीपासं गच्छामि, जधावसरं च देवस्स रूव-लावण्ण-विक्कमसमलंकिदं चरिदं विन्नवेमि । राजा-( सत्वरम् ) ततस्ततः। मकरिका- 'एगदा हरिसिदहिययाए दमयंतीए जंपिदं जधा-तुमं ज्जेव एगा निसढाहिवइणो इह अत्थि ? आदु अन्नो वि को वि १ तदो मए भणिदं अन्नो वि सव्वरहस्सहाणं दुढियं पिव हिदयं निसढाहिवइणो पियवयस्सो कलहंसो नाम अस्थि । किम्पुरुषः-मकरिके ! वाग्मिनी खल्वसि । सर्वरहस्यस्थानं द्वितीयमिव हृदयं वदन्त्या वया रहस्यालापेषु निःशङ्का कृता राजपुत्री। राजा-ततस्ततः । कलहंसः-अस्वस्थशरीरा दमयन्तीति प्रघोषं विधाय वैद्यव्याजेनाहमनया विदर्भदुहितुरभ्यर्ण नीतः । १. ततः प्रतिदिनं सेवाव्यपदेशेन दमयन्तोपागं गच्छामि, यथावसरं च देवस्य रूप लावण्य-विक्रमसमलंकृतं चरित विज्ञपयामि । २. एकदा हर्षित हृदयया दमयन्त्या जल्पितं यथा-त्वमेवैका निषधाधिपतेरिहासि, अथवाऽन्योऽपि कोऽपि ? ततो मया णितम्अन्योऽपि सर्वरहस्यरथान द्वितीयमिव हृदयं निषधाधिपतेः प्रियवयस्यः कलहंसो नामास्ति । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्कः [३१ राजा-( सप्रमोदम् ) मकरिके ! चतुराऽसि विकटकपटनाटकघटनासु । (विमृश्य ) सर्वथा कैतवं निन्द्यं प्रवदन्तु विपश्चितः। केवलं न विना तेन दुःसाधं वस्तु सिध्यति ॥ ११ ॥ किम्पुरुषः-देव ! किमपरमुच्यते ? कामं शाठ्यव्यपोहेन परलोकः प्ररोहतु। इहलोकप्रतिष्ठा तु शाठ्यप(पुण्येव निश्चितम् ॥१२॥ कलहंसः—देव ! निर्मायो यः कृपालुर्यः सत्यो यः सनयश्च यः । प्रायेण तत्र लोकस्य क्लीवबुद्धिर्विजृम्भते ॥ १३ ॥ राजा-(सत्वरम् ) ततस्ततः। कलहंसः-समलङ्कृतासने मयि राजपुत्री सलीलमिदमभिहितवती-स भवान् कलहंसोऽसि ? राजा-अहो ! गिरां मधुरिमा । ततः। कलहंसः -मयोक्तम्-यथा जानाति देवी । ततो राजपुत्री 'समासतो विवक्षितमर्थमावेदय' इति निगदितवती । अनन्तरमहमुक्तवान। राजा-(सौत्सुक्यम् ) किमुक्तवानसि ? कलहंसः-इदमुक्तवानस्मि । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] नलविलासे शौण्डीरेषु भयोज्ज्वलेषु शुभगोत्तंसेष च ग्रामणी देवो नैषधभूपतिः श्रुतमिदं स्वर्भूर्भुवो भूरिशः । एतच्च प्रथितं विदर्भतनया यद् विश्वविश्वस्फुरच्छौर्यादिप्रसरं वरं स्पृहयति ब्रूमः किमन्यत् ततः ? ॥१४॥ राजा-(स्वगतम् ) आः ! किमतः परं राजतनयाभिधास्यतीति यत्सत्यमाकुलोऽस्मि । भवतु (प्रकाशम् ) ततः किमुक्तवती ? कलहंसा-राजतनया न किंचित् । राजा-(सखेदमात्मगतम् ) हा ! हताः स्मः। कलहंसः-किन्तु कपिजला नाम विदर्भराजचामरग्राहिणी समीपस्थितेदमुक्तवती ।। राजा-(संसम्भ्रमम् ) किमाह स्म सा ? कलहंसः-इदमाह स्म सा । अनुरूपं योग ब.तु मीहते स भगवान् कलहंसः। राजा-(सहर्षमात्मगतम्) इयत्प्रत्युञ्जीविताः स्मः । जानाति तावदेतत्परिकरलोको यथा दमयन्त्या निषधपतिरनुरूपो वरः । (प्रकाशम् ) ततस्ततः । कलहंसः-अनन्तरं च स्मितं कुल्ला राजतनया देवस्य प्रतिकृतिपटं मम करतलादादाय पुनः प्रतिकृति पुनः पुलककोरकितमात्मानं सुचिरमालोकितवती । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्कः [३३ राजा-( ससम्भ्रमम् ) लक्षितः कोऽप्यवलोकनस्याभ्युपायः कलहंसेन ? विदूषकः-(सरोषम् ) 'भो ! किं पुच्छेसि १ पुलकिदेणं अंगेणं जेव निवेदिदं। कलहंसः-लक्षितः कपिञ्जलावचनात् । राजा-(ससम्भ्रमम् ) किं तत् कपिञ्जलावचः ? कलहंसः-इदं वचो यथा देवि ! किमर्थमत्यर्थमायास्यते पुनः पुनरवलोकनेन दृष्टिः १ सर्वथाऽनुहरत्येवैषा प्रतिकृतिदेवीवपुषः। राजा-साधु कपिजले ! भावज्ञानकुशले ! साधु, ततस्ततः । __कलहंसः-अत्रान्तरे च देवी प्रतिकृत्या सह निरूप्यते न पुनमूलरूपेणेति वदन्ती मकरिका कापालिकानीतां प्रतिकृति राजपुच्या दर्शितवती । राजा--समीचीनमाह मकरिका ! यथा मुख्यस्य सौन्दर्य प्रतिबिम्बस्य नो तथा । सूर्याचन्द्रमसौ वारिसङ्क्रान्तौ क्लान्ततेजसौ ॥ १५ ॥ कलहंसः-ततो मकरिके ! मत्करलिखितेयं प्रतिकृतिः कुतस्तवैतस्याः प्राप्तिरिति सरोषं राजपुत्री व्याहरत् । १. भोः ! किं पृच्छसि ? पुलकिदेनाङगेनैव निवेदितम् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] नलविलासे राजा-(सभयम्) कोऽयमुत्पातः ? ततस्ततः । कलहंसः-अनन्तरं च कपिञ्जले !प्रतिकृतिमेतां ताताय दर्शय, चित्रपटमेतं च देवतागृहे निघेहीत्यभिधाय राजतनया मां विसृष्टवती। राजा-(सभयम् ) कथं न किमपि प्रत्युत्तरम् ? कलहंसः-किन्तु देवप्रतिकृतिपटस्य देवतागृहविमोचनेन दत्तमेव राजपुच्या प्रत्युत्त म् । राजा-वाचिकं श्रोतुमिच्छामि । मकरिका- 'इदं पच्छा मम कहिदं । जहाइह अस्थि घोरघोणो जहत्थनामा कवालिओ एगो। दूरत्तणस्स कवडित्तणस्स पढमं पइट्टाणं ॥ १६ ॥ लंबत्थणी त्ति नाम भजा तस्सत्थि खुज्जतणुल(ज)ट्ठी। सयलाणं दोसाणं ठाणं दुई य मिहुणाणं ॥ १७ ॥ राजा-( कलहंसं प्रति) असंस्कृतवागियं मकरिका न स्फुटमर्थमावेदयति । ततस्त्वमेव कथय । १. इद पश्चात् मम कथितम् । यथा इहास्ति घोरघोणो यथार्थनामा कापालिक एकः । क्रूरत्वस्य कापट्यस्य प्रथमं प्रतिष्ठानम् ।। लम्बस्तनीति नाम भार्या तस्यास्ति कुब्जतनुयाष्टिः । सकलानां दोषाणां स्थानं दूती च मिथुनानाम् ।। - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्क कलहंसा-घोरधोणेन च भीमरथाय सन्दिष्टम् , यथेयं दमयन्ती कलचुरिपतेर्भार्या भविष्यति ।। राजा-(सभयमात्मगतम्) मुषिताः स्मः (प्रकाशम्) स घोरघोणः किमतीन्द्रियमर्थ जानाति ? कलहंसः-दाम्भिकोऽयं न किमपि जानातीति तत्रत्याः कथयन्ति । मया पुनगवेषयतापि न कोऽपि दम्भो लक्षितः। राजा--अत्रार्थे तत्रत्याः प्रमाणं न भवान् । यतःआगन्तुकोऽनुरागं नेतुमविज्ञातदूषणः शक्यः। विज्ञातदृषणः खलु जनस्तु शक्यो न सहवासी ॥१८॥ किन्तु कथय सहवास्यपि राजा केन हेतुना तस्य दम्भं नावधारयति । कलहंसः--राज्ञो व्यामोहो घोरघोणस्य च भाग्यमनवधारणे हेतुः। राजा--उपपन्नमिदम्-- जन्मिनां पूर्वजन्माप्तभाग्यमन्त्राभिमन्त्रितः । अचेतनोऽपि वश्यः स्यात् किं पुनर्यः सचेतनः १ ॥१६॥ ततस्ततः। कलहंसः--ततो राजापि कापालिकप्रत्ययेन स्वदुहितरं चित्रसेनाय दातुमिच्छति । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे राजा--ततस्ततः। कलहंसः--ततो दमयन्त्या मकरिकाऽभिहिता यथा यदि निषधाधिपतिर्लम्बस्तनों कथमप्यनुकूलयति, तदा पुनरपि सा तातं कदाग्रहान्निवतयति, मां च निषधाधिपतये दापयति । राजा-(सत्वरम् ) किं पुनर्लम्बस्तनी सहैव नानीता ? कलहंसः--आनीताऽस्ति । राजा--क्वासौ ? कलहंसः-अस्ति मत्तमयूरोद्याने। राजा--अये शेखर ! लम्बस्तनों शीघ्रमाकारय । शेखरः--यदादिशति देवः (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः) ( ततः प्रविशति कटितटं नर्तयन्ती लम्बस्तनी ) राजा--(विलोक्य) आकृत्या कृत्येव लक्ष्यते । कलहंसः- (अपवार्य) न केवलमाकृत्या कर्मणा:पीयं कृत्या। ( पुनर्विदूषक प्रति ) तवापि योग्यमिदं मया विदर्भदेशादानीतम् । विदूषकः-( विलोक्य सभयकम्पम् ) 'भो रायं ! अहं एयाओ ठाणाओ उहिस्सं । राजा--किमिति ? १. भो राजन् ! अहमेतस्मात् स्थानादुत्थास्यामि । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्कः [३७ विदूषकः-- 'जइ एसा लमहिसी कडियडं नचावंती ममोवरि पडेदि, ता धुवं मं मारेदि । राजा--वयस्य ! अस्मास्वनुग्रहेण राजपुत्र्येयं प्रषिता, तदेतामवज्ञातुं नार्हसि । विदूषकः- 'भो ! न मए एदाए अवन्ना कीरदि, किन्तु अप्पणो रक्खा। राजा-(सरोषमिव) सर्वथा परिहासावसरं न वेत्सि। विदूषकः-(निःश्वस्य) जदि मए मुदेण कावि फलसिद्धी भोदि, ता भोदु, इह ज्जेव चिहिस्सं । राजा-लम्बस्तनि ! इदमासनमास्यताम् । विदूषकः- भोदी लंबत्थणीए दुबलं खु एदं आसणं । ता तुमए सावहाणाए उवविसियव्वं । ( कलहंसः संज्ञया विदूषकं वारयति ) राजा-लम्बस्तनि ! कुशलवत्यसि ? १. योषा स्थूलमहिषी कटितट नर्तयन्ती ममोपरि पतेत् , तदा ध्रवं मां मारयेत् । २. भो ! न मयतस्या अवज्ञा क्रियते, किन्त्वात्मनो रक्षा । ३. यदि मया मृतेन काऽपि फलसिद्धिर्भवति, तदा भवतु, इहैव स्थास्यामि । ४. भगवति ! लम्बस्तन्या दुर्बलं खल्वेतदासनम्, ततस्त्वया साव धानया उपवेष्टव्यम् । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] नलविलासे लम्बस्तनी-(मुखं नर्तयित्वा ) 'अत्तणो जोगस्स अपसादेण । विदूषकः- 'भोदी ! किं अइदुब्बला सि ? लम्बस्तनी-- मग्गपरिस्समेण । विदूषकः- "भो कलहंसा! कित्तिएहिं गोणेहि मुहिं वा एसा इध संपत्ता ? (कलहंसो विहस्याधोमुखस्तिष्ठति) राजा--(समयमात्मगतम) ध्रवमयमेतां दरात्मा कोपयिष्यति । भवतु (प्रकाशम् ) लम्बस्तनि ! अकुटिलहृदयः प्रकृतिपरिहासशीलोऽयं ब्राह्मणः । तदस्य वचोभिन कोपितव्यम्। लम्बस्तनी-(कटितटं करतलेनाहत्य, मुखं वक्रीकृत्य) "नाहमीदिसाणं गद्दहमुहाणं उत्तरं देमि । राजा-(विहस्य) महाप्रभावा श्रूयते भवती । तदावेदय किमपि । १. आत्मनो योगस्य प्रसादेन । * पसाएण। २. भगवति ! किमतिदुर्बलाऽसि ? ३. मागंपरिश्रमेण । ४. भो कलहंस ! कियद्भिर्गुणैर्मूटकरे [4] षाऽत्र सम्प्राप्ता ? ५. नाहमीदृशानां गर्दभमुखानामुत्तरं ददामि । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्कः [ ३६ लम्बस्तनी-(सगर्वम् ) 'भो महाराय ! अपुत्ताणं पुत्वं देमि, अणायारसंजादे गब्भे पाडेमि, दुल्लहं पि पिअजणं संपाडे मि । किं बहुणा ? जं तिहुयणे वि असज्झं तं साहेमि । - राजा--(अपवार्य कलहंसं प्रति) अहो धृष्टता ! अहो निर्लज्जता ! विमृश, संवदति किमप्येतदुक्तम् ? कलहंसः--न किमपि, गर्भपातं पुनर्जानाति । राजा--(सविचिकित्सम् ) अदृश्यमुखेयं तर्हि । विदूषकः- भोदी ! एगं दाव मे संसयं भंजेहि । मह चंभणीए माया थूलकुट्टिणी जा पाटलिपुत्ते वसदि, सा किं तुमं आदु अन्ना का वि ? राजा--[ सरोषम् ] अयि मुखरब्राह्मण ! नाद्यापि परिहासाद् विरमसि । (पुनर्लम्बस्तनों प्रति) भविष्यति नः किमपि भवदर्शनफलम् ? लम्बस्तनी- 'अवस्सं भविस्सदि । राजा--(अपवार्य) तर्हि विदर्भजां सम्पादय । १. भो महाराज ! अपुत्रेभ्यः पुत्रं ददामि । अनाचारसजातान् गर्भान् पातयामि । दुर्लभमपि प्रियजनं सम्पादयामि । कि बहुना ? यत् त्रिभुवनेऽप्यसाध्यं तत् साधयामि । २. भगवति ! एकं तावन्मे संशयं भक्ष्व । मम ब्राह्मण्या माता स्थूलकुट्टिनी या पाटलिपुत्रे वसति, सा किं त्वमथवाऽन्या काऽपि ? ३. अवश्यं भविष्यति । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० 1 नलविलासे 1 लम्बस्तनी - 'इत्थ को वि किं संदेहो ? एसा संपाडेमि राजा - ( सहर्षम् ) कोऽत्र भो भाण्डागारिषु । ( प्रविश्य ) पुरुषः-- एषोऽस्मि । राजा -- अये कोरक ! एतस्याः सर्वाङ्गीणं कनकाभरणं प्रयच्छ । कोरकः -- आदेशः प्रमाणम् ( इत्यभिधाय निष्क्रान्तः) राजा --लम्बस्तनी ! त्वमपि स्वदेशे विजयस्व | लम्बस्तनी - सत्थि महारायस्स (इत्यभिधाय कटितटों नर्तयन्ती निष्क्रान्ता) | राजा - (स्मृतिमभिनीय) अमात्य ! लम्बोदरः कापालिकः कथं वर्तते ? किम्पुरुषः-- देव ! लम्बोदरो युवराजकूबरेण क्रीडापात्रं तु नीतोऽस्ति । राजा -- एवम् (विमृश्य ) दुष्टसङ्गः कुमारस्य सोऽय तेजःक्षयावहः । मार्तण्डमण्डलस्येव सैंहिकेयसमागमः || २० || कलहंसः -- दुरात्मनः कापालिकस्य संसर्गाद् दुष्प्रकृति रपि काऽपि कुमारस्य सम्भाव्यते । १. अत्र कोऽपि किं सन्देहः ? एषा सम्पादयामि | २. स्वस्ति महाराजाय । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽङ्कः किम्पुरुषः-प्रतिहतोऽयं वितर्कः । यतः-- शुभा वा लोकस्य प्रकृतिरशुभा वा सहभवा __ परेषां संसर्गान खलु गुण-दोषौ प्रभवतः । अपां पत्युमध्ये सततमधिवासेऽपि मृदुतां न यान्ति ग्रावाणः स्पृशति न च पाथः परुषताम् ॥२१॥ अपि च देवस्य निषधस्यापि सन्ततिदुप्रकुतिर्भवतीति श्रद्धालवोऽपि न प्रतिपद्यन्ते, किमङ्ग ! हृदयालव ? कलहंसा-(सरोषम् ) प्रतिहततमोऽयं वितर्कः । भजन्ते कार्याणि प्रकृतिविभवं कारणगतं प्रवादो लोकानां ध्रुवमयमनेकान्तकलुषः । मृदुत्वं तत् किश्चिजलदपयसा विश्वविदितं स कश्चिन्मुक्तानामथ च किल काठिन्यनिकषः ॥२२॥ राजा-किमपरमुच्यते ? असौ पाखण्डिचाण्डालो युवराजस्य निश्चितम् । मातापितापकारीव विन्ध्यस्योन्नतिघातकः ॥२३॥ (नेपथ्ये) अखिलानां बिसिनीनां कमलमुखान्येकहेलया द्रष्टुम् । गगनाचलगर्भमसावधिरोहति कमलिनीनाथः ॥ २४ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] नलविलासे राजा-(स्वगतम् ) कथमयं मागधो मध्यन्दिनवर्णनापदेशेन प्रियामुखदर्शनं पिशुनयति ! भवतु (प्रकाशम्) कलहंस ! दर्शय मार्ग, येन मध्याह्नस्नानाय व्रजामः । ( इति निष्क्रान्ताः सर्वे ) ॥ द्वितीयोऽङ्कः ।। तृतीयोऽङ्कः। (ततः प्रविश्य ) कुरङ्गकः-(उच्चैःस्वरमाकाशे) अये मुकुल ! मुकुल ! बकुलप्रभृतीनि प्रगुणय सुरभिकुसुमानि । उपनय पाकाताम्राम्रप्रमुखानि फलानि । ननु पञ्चवाणायतनमिदानी देवी दमयन्ती सगन्धर्वलोका समलङ्करिष्यति । (प्रविश्य ) मुकुल:-आर्थ कुरङ्गक ! सर्व प्रगुणमेव पूजोपकरणम् , किन्तु कथय किनिमित्तोऽयमद्य सकलेऽपि राजकुले संरम्भः १ कुरङ्गाका-(सरोषमिव) अये सरल मुकुल ! वैदेशिक इव लक्ष्यसे । एतदपि न जानासि, ननु देव्या दमयन्त्याः श्वः स्वयंवरविधिः । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतोयोऽङ्कः मुकुल: - श्वः स्वयंवर विधि: ? कुरङ्गकः -- अथ किम् । मुकुल: - ( विचिन्त्य ) ननु दमयन्तीं चेदिपतये चित्रसेनाय दातुमभिलाषुको विदर्भपतिरासीत् । कुरङ्गकः -- आसीत् प्रतिकृतिदर्शनात् पूर्वम् । मुकुल: - ( ससम्भ्रमम् ) विततमावेदय । कुरङ्गकः -- तां निषधादागतां दमयन्तीप्रतिकृतिमालोक्य कथमियं निषधाय गतेति गवेषयता देवेन ज्ञातं यथाघोरघोणः कापालिको दमयन्तीपरिणयनोत्कण्ठितस्य चित्रसेनस्य मेषमुखनामा प्रणिधिः । सोऽपि लम्बोदरोऽस्यानुचरः कोष्टकनामा चार एव । [ ४३ मुकुल: -- ( सत्वरम् ) ततस्ततः । कुरङ्गकः- ततो धर्मकर्मविप्लवमवधार्य छिन्नकणौष्ठनासिकया लम्बस्तनिकया सह गर्दभमारोप्य देवेन घोरघोणो निर्विषयः कृतः । मुकुल: -- ( साश्चर्यम् ) पश्य मलिनकर्माऽपि कियतीं प्रतिष्ठामधिरोपितो देवेनायं घोरघोणः । कुरङ्गकः – विस्मयनीयं नैवैतत् । आस्तां क्षयं किमिह पातकिनो न यान्ति यान्ति श्रियं समधिकां किमु धार्मिकेभ्यः । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] नलविलासे तेनासमञ्जसमसौ रचयन् विशङ्को लोकश्चिरं मनसि वाचि तनौ च हृष्येत् ॥ १ ॥ मुकुल:--साम्प्रतं कासौ ? कुरङ्गकः-~साम्प्रतमसो निषधामधिवसतीति श्रयते । (नेपथ्ये) भोः ! कः साम्प्रतं निषधामधिवसति ? कुरङ्गकः(प्रणम्य) देव ! कापालिकघोरघोणः । राजा--(स्वगतम् ) लम्बोदरोपजनितवासनेन युवराजकूबरेण समाहूतः । भवतु (प्रकाशम् ) भो भोः सैन्याः ! बहिः स्थातव्यं बहिः स्थातव्यम् । न खलु सहकारनिकराभिरामः सोढुमलमयमारामश्चक्रावमदम् । कुराकः-(मुकुलं प्रति) एहि स्वस्थानं व्रजामः । (इति प्रणम्य निष्क्रान्तौ) राजा--अहो ! वसन्तावतारव्यतिषगरङ्गत्परिभोगमखिलं जगत् । परिमलभृतो वाताः शाखा नवाङ्कुरकोटयो __मधुकररुतोत्कण्ठाभाजः प्रियाः पिकपक्षिणाम् । विरलविरलस्वेदोद्दारा वधूवदनेन्दवः । प्रसरति मधौ धान्यां जातो न कस्य गुणोदयः १ ॥२॥ (दिशोऽवलोक्य) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्क अभिनभः प्रसृतैनवमल्लिकाकुसुमपुज्जरजोभिरयं मधुः । यवनिकां विदधाति वियोगिनां शशिकरव्यतिषङ्गनिवृत्तये॥ ३॥ कलहंस ! विदितवृत्तान्तः स भवान् विदर्भाणाम् । तद् विलोकय किमप्यतिरमणीयमत्र कुसुमाकरोद्यानेऽस्माकमावासस्थानम् । कलहंसः-यदादिशति देवः । विदूषकः-'ही ही ! पडिपुन्ना मे बंभणीए मणोरधा। सत्थिवायणगं पि किं पि दाणं मे रायदुहिया पडिवादयस्सदि। अधवा न सत्थिवायणं करिस्सं, सा मं गद्दहमुहं भणदि । भोदी मयरिए ! णं पुच्छामि, सबकज्जे वि विदब्भपुत्ती मं गद्दहमुहं वाहरदि ? मकरिका-(स्मित्वा) 'न परं गद्दहमुहं, मक्कडकन्नं वंकपायं च । विदूषकः- 'हला मुहरे ! सुमरेसि एदं भणिदं ? राजा-(स्वगतम्) १. अहो अहो ! प्रतिपूर्णा मे ब्राह्मण्या मनोरथाः । स्वस्तिवाचन कमपि किमपि दानं मे राजदुहिता प्रतिपादयिष्यति । अथवा न स्वस्तिवाचनं करिष्ये, सा मां गर्दभमुखं भणति । भवति मकरिके ! त्वां पृच्छामि-सर्वकार्येऽपि विदर्भपुत्री मां गर्दभमुखं व्याहरति ? २. न परं गर्दभ मुखम् , मर्कटकणं वक्रपादं च । ३. अरे मुखरे ! स्मरसि एतद् भणितम् ? Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे आमन्त्रिता वयमतः प्रमदः परेऽपि सन्त्यागताः क्षितिभुजोऽथ विषादतापः । अङ्ग विधानमिव सन्धिषु रूपकाणां तुल्यं स्वयंवरविधिः सुख-दुःखहेतुः ॥४॥ कलहंसः-अयं तरुणतरणि-किरणकरणिधारि-चारुप्रवाल-पटलपुलकितानेकशाखाप्रतान-विनिवारितातपप्रचारः सहकारस्तदास्यतामस्यालवालवारिशीकरासारोपगूढारूढ-हरितोपजातपरभागे मूलभागे देवेन । राजा-(तथा कृत्वा) कलहंस ! पश्य सहकारशाखासनीडे नीडे। प्रियतमावदनेन्दुविलोकितै रसुहितः कलकण्ठयुवा नवः । प्रतिमुहुः प्रतिगत्य नभस्तलाद् वलति याति वलत्यथ यात्यथ ॥ ५ ॥ अपि च-- उत्तंसकौतुकनवक्षतदक्षिणाशा शाखाग्रपल्लवलवा सहकारवीथी । सेयं समादिशति नः स्फुटमङ्गनानां सद्यः सलीलगतमश्चितयौवनानाम् ॥ ६॥ कलहंसः Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्कः [ ४७ स्विद्यनितम्बभरपूरनिमग्नपाणि भागातिनिम्नपदपद्धतिबन्धुरागी । स्त्रीणां न केवलमसौ सहकारवीथी यातं दिशत्यवनिरप्यवनीशचन्द्र ! ॥ ७॥ राजा—(कर्ण दत्त्वा स्वगतम्) कथमनक्षरगीतध्वनि ? (प्रकाशम् ) कलहंस ! शृणोषि किमपि ? विदूषकः- 'चीरीयाणं महुरं रसिदं सुणेमि । राजा-धिग् मूर्ख ! नन्वेषउत्कर्णयन् वनविहारिकुरङ्गयूथा न्याश्लेषयन् विरहकान कलिकाकलापैः। सम्पूर्णपञ्चमकलासुभगम्भविष्णुः कौँ विनिद्रयति मुद्रितगीतनादः ॥ ८॥ कलहंसः--यथाऽऽदिशति देवः । राजा--अहह ! सहदयहृदयापहारिहारितम(मा)शेषविषयशेखरो गोतनादः । कलहंस ! अजल्प्यं जल्पामः किमपि किल पाषाणसुहृदां सदा तेषां भूयाञ्जगति पुरुषाणामजननिः । असारं संसारं विदधति न सारं प्रतिमुहुः पिवन्तो ये सूक्तीरथ च कलगीतीमधुमुचः ॥ ६ ॥ १. चीरीकाणा मधुरं रसितं शृणोमि । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] नलविलासे अपि च-- न गीतशास्त्रमर्मज्ञा न तत्त्वज्ञाश्च ये किल । अपौरपशुदेश्येभ्यस्तेभ्य पुम्भ्यो नमो नमः॥१०॥ कलहंसा--देव ! आस्तां मर्मपरिज्ञानं येषां गीतस्पृहाऽपि न । कुरङ्गेभ्योऽपि हीनेषु मर्त्यत्वं तेषु वैशसम् ॥ ११॥ राजा-अलमलमतिविस्तरेण । जानीहि कुतस्त्योऽयं पश्चमोद्गारसारः समुच्छलति गीतामृतासारः ? कलहंसः-(किश्चित् परिक्रम्य पश्यति ) देव ! दवीयसि काननोद्देशे बहलपल्लवाविलानेकतिलकचम्पकप्रभृतितरुतिरोहितं देवताऽऽयतनम् । राजा-न केवलं देवतायतनं पण्याङ्गनाचक्र च सङ्गीतकमादधानमवलोकयामि । ( सर्वे निपुणमवलोकयन्ति) कलहंस ! पश्य पश्य । प्रेहाविघट्टनरुषा कलहायमान दो 'ल्लिकङ्कणरणत्कृतिपीतगीतम् । नृत्यं कुरङ्गकदृशां विलसद्विलास मुल्लासयेत् स्मरमते दृषदोऽपि रन्तुम् ॥ १२॥ (विमृश्य) कलहंस ! Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्कः सर्वेषामपि सन्ति वेश्मसु कुतः कान्ताः कुरङ्गीदृशो न्यायार्थी परदारविप्लवकरं राजा जनं बाधते । आज्ञां कारितवान् प्रजापतिमपि स्वां पञ्चवाणस्ततः कामार्त्तः क्र जनो व्रजेत् परहिताः पण्याङ्गनाः स्युर्न चेत् ॥ १३ ॥ पुनः काम सर्वस्वगर्भम् । यदि वाशृङ्गारसौरभरहस्यजुषां विधातु पण्याङ्गनाः समुचितं किमु नेत्रपात्रम् ? कुर्वन्ति याः कुसुमकार्मुकजीवितस्य शर्म श्रियो रतिभुवः किल मूल्यमात्रम् ॥ १४ ॥ कलहंसः--एवमेतत् । विचेष्टया यथा किल कुलसुदृशो दृष्टयापि लजन्ते । सैव च यासां देश्या वेश्यास्ताः किं कृती स्पृहयेत् १ || १५ || राजा - कलहंस ! निरूपय, किमस्ति काऽप्यस्मिन् पण्याङ्गनारङ्गे विदर्भदुहितुः सखी वा चेटी वा ? कलहंसः - यदादिशति देवः । ( इति परिक्रामति) विदूषकः - 'भो ! न गंतव्वं, अच्छरापेडयं खु एदं, न माणुसीपेडयं । [ ४९ राजा - ( सरोषम ( खरमुखवचनमपि भवान् कर्णे करोति ! अनर्गलवदनोऽयं ब्राह्मणः, तद् गम्यताम् । १. भोः ! न गन्तव्यम्, अप्सरः पेटकं खल्वेतत्, न मानुषीपेटकम् । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] नलविलासे विदूषकः- 'जइ वि अहं अणग्गलवयणो बंभणो, तहावि एदस्स कलहंसस्स एगागिणो परमहिलाणं मज्झे गमणं न समुचिदं । ता एसा मयरिया गच्छदु । राजा-(विहस्य) वयस्य ! चिरादुपपन्नमभिहितवानसि । मकरिके ! त्वं ब्रज। मकरिका-(कतिचित पदानि गत्वा प्रतिनिवृत्य सरभसम् ) 'भट्टा ! दिट्ठिया दिट्ठिया* | राजा-किं किं सुमुखि ? मकरिका- 'एसा कविजलादत्तावलंबा देवी दम. यन्ती संगीदयं कारयंती कामायदणमंडवे चिट्ठदि । राजा-(सरभसमवलोक्य ) मकरिके ! एषा देवी दमयन्ती। कलहंसः-सत्यमेतदनुभृतं तहिं रूपदर्शनमात्रकेणापि निषधाधिपतिना निजस्य जन्मनः फलम् । विदूषकः- 'भो ! जधा एसा पुणो पुणो इदो दिट्टि १. यद्यप्यहमनगर्लवदनो ब्राह्मणः, तथाप्येतस्य कलहंसस्यकाकिन: परमहिलानां मध्मे गमनं न समुचितम् ; तदेषा मकरिका गच्छतु । २. भर्त: ! दिष्ट या दिष्टया । ३. एषा कपिञ्जलादत्तावलम्बा देवी दमयन्ती संगीतकं कारयन्ती कामायतनमण्डपे तिष्ठति । ४. भ : ! यथैषा पुनः पुनरितो दृष्टि प्रस्थापयति, तथा जाने मां नवयौवनं ब्राह्मणं निरूपयति । भट्ठा दिट्ठिया । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्कः [५१ पट्टवेदि, तधा जाणे मं नवजुत्रणं बंभणं निरूवेदि । ___ मकरिका-(अपवार्य) 'पडिहदो सि । राजा-सहकारतिरोहितास्तिष्ठानो येनेयं स्वैरं विहरति, वदति, विलोकयति च। (सर्वे तथा कुर्वन्ति । ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टा दमयन्ती) दमयन्ती-- सहि कविजले ! कुसुमायरे निसिढावइणो आवासं जाणिय कामपूयाववएसेण अहं दाव इह समागदा । गवेसिदो य मए तरुनिरूवणामिसेण सयलो वि आरामो। परं न वि को वि कहिं पि दिट्ठो। ता किं नेदं, किं न कि पि पयरियामंतसरिसं भविस्सदि ? कपिञ्जला- भट्टिणी ! मा उत्तम, आराम परिमलणसंकाए न को वि मज्मे पइट्ठो। किं न पिक्खदि देवी आरामपरिसरेसु समावासिदं सिन्नं १ अवि य सहयारवीहियाए माणुसाइं पि दीसंति । १. प्रतिहतोऽसि। २. सखि कपिलले ! कुसुमाकरे निषधपतेरावासं ज्ञात्वा काम पूजाव्यपदेशेनाहं तावदिह समागता । गवेषितश्च मया तरुनिरूपणामिषेण सकलोऽप्यारामः, परंन कोऽपि क्वापि दृष्टः । तत् किं न्वेतत्. किं न किमपि मकरिकामन्त्रसदृशं भविष्यति ? ३. भत्रि ! मा उत्ताम्य, आरामपरिमर्दनशङ्कया न कोऽपि मध्ये प्रविष्ट: । किं न प्रेक्षते देवी आरामपरिसरेषु समावासितं सैन्यम् ? अपि च सहकारवीथिकायां मनुष्या अपि दृश्यन्ते । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] नलविलासे राजा - कथमस्मान् कपिञ्जला दर्शयति । अहह पश्च ! बाणवाणः कटाक्षविक्षेषः ! भय तरलकुरङ्गीनेत्र सब्रह्मचारी विकचकुवलयश्रीरेष दृष्टेर्विलासः । परिणतपरिवोधोद्बोधधाम्नां मुनीना मपि मनसि विकारोद्वारमाविष्करोति ॥ १६ ॥ कपिञ्जला- 'भट्टिणि ! जाव को वि कुदो विसमागच्छदि, दात्र मयणस्स पूयं निवनेहि । कोसलिए ! उवरोहि भट्टिणीपूओवगरणं । दमयन्ती- 'अहं सयं उवन्विणिय कुसुम' इं मयणं पूयइस्सं । ता चिट्ठदु कोसलिया, पयट्टावेह दाव संगीयं । राजा-यथेयं पञ्चमस्य सुलिष्टमूर्छना तानेषु प्रतिमुहुः सुखायते, तथा जाने गीतमर्मज्ञा । अविदितम कर्मसु न शर्म तज्जन्म चुम्बति प्रायः । अकलितहृदयस्त्रीणां स्मरोपनिषदो बहिः प्लवते ||१७|| ( सत्वरम् ) मकरिके ! प्रभवसि राजपुत्रीमिह समानेतुम् ? १. भ ! यावत् कोऽपि कुतोऽपि समागच्छति तावत् मदनस्य पूजा निवर्तय । कौशलके ! उपनय भर्तीपूजोपकरणम् । २. अहं स्वयमुपचीय कुसुमानि मदनं पूजयिष्यामि । ततस्तिष्ठतु कौशलिका, प्रवर्तयत तावत् संगीतम् । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्कः [५३ मकरिका- 'अहं दाव पयदिस्सं, आगमणं पुण दिव्वस्स आयत्तं । राजा-तर्हि यतस्त्र । (मकरिका परिकामति) दमयन्ती-- कविजले ! न को वि दाव समागदो, ता अंतेउरं वच्चामो। कपिञ्जला- भट्टिणि ! दिट्ठिया दिट्ठिया समागदा मयरिया। (मकरिका उपसृत्य प्रणमति) दमयन्ती-(सहर्षमालिङ्गाय) "मयरिए ! अन्नो वि को वि समागदो, आदु तुमं ज्जैव ? मकरिका- "अन्नो वि । दमयन्ती--(अपवार्य) कधं राया नलो ? मकरिका- अधई। दमयन्ती -( सत्वरम् ) कहिं सो ? मकरिका- 'एसो सहयारवीहियाए । १. अहं तावत् प्रयतिष्ये, आगमनं पुनर्दैवस्य आयत्तम् । २. कपिञ्जले ! न कोऽपि तावत् समागतः, ततोऽन्तःपुरं व्रजामः । ३. भत्रि ! दिष्टया दिष्टया समागता मकरिका। ४. मकरिके ! अन्योऽपि कोऽपि समागतः, अथवा त्वमेव ? ५.अन्योऽपि । ६. कथं राजा नल: ? ७. अथ किम् । ८. क्व सः ? ९. एष सहकारवीथिकायाम् । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] नलविलासे दमयन्ती - (भुजमुत्क्षिप्य ) 'मयरिए ! एसो नलो (पुनः सभयमात्मगतम्) मा नाम विलासिणीलोएण दिट्ठम्हि । भोद एवं दाव ( प्रकाशम् ) मयरिए ! एदस्स वि नामं तुम न जाणासि ? णं तिणविसेसो एसो नलो । कपिञ्जला - (विहस्य) सच्चं एसो नलो, न उण तिणविसेसो, किंतु तिणविसेसीकद अवरराजलोओ | दमयन्ती-- कविञ्जले ! तुमं वंकभणियाइं जाणासि । राजा - ( उपसर्प्य) कलहंस ! सखीशङ्काशङ्कुप्रणयपरितापव्यसनिनी त्रिभागाभोगाग्रप्लवन बहलीभूतशितिमा । द्रुमालोकव्याजाद् विषमपरिपाता मम वपुः समं सेयं दृष्टिर्जडयति च संरम्भयति च ॥ १८ ॥ ( विमृस्य ) कुचकलशयोवृ त्तं नृत्तं भ्रवमृदुता गिरी शि तरलता वक्त्रे कान्तिस्तनौ तनिमा तथा । १. मकरिके ! एष नलः ? मा नाम विलासिनीलोकेन दृष्टास्मि । भवतु एवं तावत् । मकरिके ! एतस्यापि नाम त्वं न जानासि ? ननु तृणविशेष एष नलः । २. सत्यमेषो नलः, न पुनस्तृणविशेषः, किन्तु तृणविशेषीकृतापर राजलोकः । ३. कपिञ्जले ! त्वं वक्रभणितानि जानासि । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्कः [५५ तदिदमखिलं वेषश्चेतस्यहं यदि वल्लभो ध्रुवमपरथा दोषः स्वार्थं जनो बहु मन्यते ॥१६॥ कलहंसः-परमार्थोऽयम् । मांसदृशो गुण-दोषौ ब्रुवते स्वास्तिभङ्गसापेक्षाः । ज्ञानदृशस्तु यथास्थितपदार्थवृत्तान्तमनुरुध्य ॥२०॥ मकरिका- 'भट्टिणि ! पसना होहि । दमयन्ती- 'मयरिए ! अहं कया वि किं अप्पसन्ना, जं एवं मंतेसि ? मकरिका- कहं नाम न अप्पसन्ना, जं हिदयवल्लहं जणं पिच्छिय दूरं चिट्ठसि ? दमयन्ती- मयरिए ! नाहमिदिसं कनाजणस्स अणुचिदं अणुट्ठिदु साहसिणी । किं च आलाव--हास--परिरंभणाई पेमस्स परियरो एसो। पेमं उण नयणतिभागभूरिपरिघोलिरा दिट्ठी ॥२१॥ १. भत्रि ! प्रसन्ना भव । २. मकरिके ! अहं कदापि किमप्रसन्ना, यदेवं मन्त्रयसे ? ३. कथं नाम नाप्रसन्ना यद् हृदयवल्लभं जनं दृष्ट्वा दूरं तिष्ठसि ? ४. मकरिके ! नाहमीदृशं कन्याजनस्यानुचितमनुष्ठातु साहसिनी । किञ्च आलाप-हास-परिरम्भणानि प्रेम्णः परिकर एषः । प्रेम पुननयनत्रिभागभूरिपरिघूर्णमाना दृष्टिः ।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] नलविलासे अन्नं च असरिससिणेहं जणं सयमणुसरंती कविजलाए वि लज्जेमि । मकरिका-(सरोषम् ) 'सहयारवीहियं पि अणुसरंती सरिससिणेहा, महाराओ उण विदन्भेसु वि समागदो असरिससिणेहो ? __दमयन्ती- 'मयरिए ! न पारेमि तए सह जंपिदुः, ता मयणपूयानिमित्तं कुसुमाइं उवचिणिस्सं । (इति सर्वा: परिक्रामन्ति) राजा-कथमितोऽभिवर्तते देवी ? दृष्टे ! द्रष्टुमितः स्पृहां कुरु पुरः पुत्री विदर्भे शितु नत्वागच्छति विभ्रती स्मरकरिक्रीडावनं यौवनम् । यद्वक्वेन्दुविलाससम्पदमतिश्रद्धालुरालोकितु पौलोमिपतिरुद्वहत्यनिमिषं चक्षुःसहस्रं किल ॥२२॥ कलहंस ! उपनय पत्रमेकम् । कलहंसः इदम् । अन्यच्च, असहशस्नेहं जन स्वयमनुसरन्ती कपिञ्जलाया अपि लज्जे । १. सहकारवीथिकामप्यनुसरन्ती सदृशस्नेहा, महाराजः पुनविद भैष्वपि समागतोऽसदृशस्नेहः ! २. मकरिके ! न पारयामि त्वया सह जल्पितुम् । ततो मदन पूजानिमित्तं कुसुमान्युपचेप्ये । - - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्कः [ ५७ ( राजा किमपि पत्रके लिखित्वा समर्पयति ) दमयन्ती- 'कपिञ्जले ! कहिं वणोद्द से वियइल्लवल्लियाओ चिट्ठति ? मकरिका- 'एदस्सि सहयारनिगुञ्चे। (दमयन्ती पुष्पावचयं नाटयति) राजा-(उपसृत्य ) अलमलमनुचिताचरणेन । ननु ललाटन्तपे भगवति कमलिनीनाथे परमानुरागवेतनक्रीते च सविधभाजि सर्वकर्मीणे जने कोऽयं स्वयं विचकिलकलिकावचयक्लेशोपद्रवः १ दमयन्ती-(तिर्यग् विलोक्य स्वगतम् ) कहमेस सयं भयवं पंचबाणो ? अहवा वरायस्स अणंगस्स कुदो ईदिसो अंगसोहग्गपब्भारो ? ता कदत्थो दमयंतीए अंगचंगिमा । (प्रकाशम् ) कविजले ! को एस मं वारेइ ? कपिञ्जला- जस्स कदे तुमं इध समागदा ? दमयन्ती- 'कस्स कदे अहं इध समागदा । १. कपिञ्जले ! कस्मिन् वनोद्देशे विचकिलवल्ल्यस्तिष्ठन्ति ? २. एतस्मिन् सहकारनिकुञ्ज । ३. कथमेष स्वयं भगवान् पंचबाण: ? अथवा वराकस्यानङ्गस्य कुत ईदृशोऽङ्गसौभाग्यप्राग्भारः ? तत् कृतार्थं दमयन्त्या अङ्गचङ्गत्वम् । कपिलले ! क एष मां वारयति ? ४. यस्य कृते त्वमत्र समागता । ५. कस्य कृतेऽहमत्र समागता? Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] नलविलासे कपिञ्जला- 'हिययदइयस्स । दमयन्ती- 'ता किं भयवं मणसिजो ? कपिञ्जला-(विहस्य) भट्टिणी जाणादि । दमयन्ती- (सरोषमिव) हंजे ! उवहसेसि मं, ता उवचिणिस्सं, न चिट्ठिस्सं । (राजा मुजलतामालम्ब्य 'अलमलम्' इत्यादि पठति) कलहंसः-देवि ! दुरादागतस्य प्रणयिनो जनस्याभ्यर्थनां नावज्ञातुमर्हसि । दमयन्ती- "कधं कलहंसो ! कलहंस! मोयावेहि मे पाणि । कलहंसः--देवि ! कलहंसः पाणेाहयिता, न पुनर्मोचयिता। दमयन्ती-- 'हीमाणहे ! न को वि मह पक्खपायं करेदि। राजा-शान्तं शान्तम् । हे मृगाक्षि ! नन्वयमस्मि तव पक्षपाती। समादिश कृत्यम् । १. हृदयदयितस्य। २. तत् किं भगवान् मनसिजः ? ३. भी जानाति ।। ४. हले ! उपहससि माम्, तद् उपचेष्यामि, न स्थास्यामि । ५. कथं कलहंस ! कलहंस ! मोचय मे पाणिम् । ६. अहो ! न कोऽपि मम पक्षपातं करोति । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्कः [ ५६ दमयन्ती -- 'जइ एवं ता मुंच मे पाणिम् । नल:--कथमपराधकारी मुच्यते ? दमयन्ती-- 'किं एदिणा अवरद्धं ? राजा--अनेन त्वत्प्रतिकृतिमालिख्यायमियति विरहानले पातितः। दमयन्ती-(स्मित्वा) जइ एवं ता अहं पि ते पाणि गहिस्सं । तव पाणिलिहिदेण पडेण अहं पि एदावत्थसरीरा जादा। राजा-नन्वयं पाणिग्रहणार्थ एव सर्वः प्रयासस्तदनुकूलवादिन्यसि नलस्य । विदूषकः- "भोदी ! तए अप्पण ज्जेव अप्पा समप्पिदो, ता दाणिं न छुट्टीयदि । (दमयन्ती सात्विकभावान् नाट्यन्त्यधोमुखी भवति) राजा--(विलोक्य) इमौ प्रेखे कौँ वदनमिदमिन्दुः स्फुटकलः। कलः सोऽयं नादस्तरुणकलकण्ठीकलकलः । १. यद्येवं तदा मुञ्च मे पाणिम्। २. किमेतेनापराद्धम् ? ३. यद्येवं तदाऽहमपि ते पाणि ग्रहीष्यामि, तव पाणिलिखितेन पटेनाहमप्येतदवस्थशरीरा जात ।। ४. भवति ! त्वयाऽऽत्मनैवात्मा समर्पितस्तदिदानीं न छुट्यते । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] नलविलासे इयं मल्लीबल्लीपुलमुकुलाङ्का भुजलता वसन्तश्रीः साक्षात् त्वमसि मदिराक्षि ! ध्रुवमतः ॥२३॥ ( सहर्षं च - ) चन्द्रोद्यानसरांसि सुन्दरि ! मनः कर्षन्ति तावद् गुणैविनेत्रदले तवास्यकमले दृष्टिने विश्राम्यति । तावत् कोऽपि कलालको विजयते खद्योतपोतत्विषां यावनात्मकरै धिनोति धरणिं देवः सुधादीधितिः ॥ २४॥ दमयन्ती- 'अज्जउत्त ! (पुनः सलज्जम्) महाराय ! अथवा इदि आगे पतंगतावो, ता विरम पाणिग्गहणादो । राजा - अयि कातरकुरङ्गनेत्रे ! कोऽयं वाङ् - मनसयोर्विवादः । ननु यथामनस मेवाभिवीयतामार्यपुत्रेति । अपि च शत पत्रपत्रतलादि ! यदि पतङ्गतापाबाधासाध्वसेन पाणिग्रहणाद् विरमामि, तदानीमनङ्गतापो मां बाधते । किञ्च -- चित्रं त्रस्तैणशावाक्षि ! त्वत्पाणिग्रहणोत्सवः । सन्तापस्य निहन्ता नः प्रतापस्य तु कारणम् ॥२५॥ कपिञ्जला -- भट्टिणि ! लज्जमुज्झिय पयडागुरायं किंपि अणुचि । १. आर्यपुत्र ! महाराज ! अथवा एति देवाङ्ग पतङ्गताप:, तद् विरम पाणिग्रहणात् । २. भत्रि ! लज्जामुज्झित्वा प्रकटानुरागं किमपि अनुतिष्ठ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्कः [ ६१ दमयन्ती-(सरोषमिव) 'हजे! तुमं पि कन्नगाजण विरुद्ध कम्मे मं निजोजयसि ? राजा-अयि चन्द्रमुखि ! न त्वां कपिञ्जला योजयति । किन्तु कृतमानिनीमानभङ्गः स भगवाननङ्गः। अनङ्गाधीनो हि कुसुमाकरोद्याने सर्वस्य सर्वो व्यापारः। (सर्वाङ्गीणमवलोक्य ) कुन्ददति ! किञ्चिदुपालभ्यसे । दमयन्ती-(स्वगतम् ) हीमाणहे ! अपाणंमि वि आदिधेईकदे उवालंभो न मुंचदि । कपिञ्जला--(समयमात्मगतम् ) 'किं मए किंमवि अवरद्धं? . राजा-ननु ब्रवीमि, उपालभ्यसेऽभ्यन्तरपरिजनापराधेन । दमयन्ती- कहं विय । राजावक्रन्दुः स्मितमातनोदधिगते दृष्टी विकासश्रियं बाहू कण्टककोरकाण्यविभृतं प्राप्ता गिरो गौरवम् । किं नाङ्गानि तवातिथेयमसृजन स्वस्वापतेयोचितं ? सम्प्राप्ते मयि नैतदुज्झति कुचद्वन्द्वं पुनः स्तब्धताम् ॥२६॥ १, हले ! त्वमपि कन्यकाजनविरुद्ध कर्मणि मां नियोजयसि ? २. अहो ! आत्मन्यपि आतिथेयीकृते उपालम्भो न मुच्यते । ३, कि मया किमप्यपराद्धम् ? ४. कथमिव ? Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे ( दमयन्ती सलज्जमधोमुखी भवति ) यदि वा देवि ! शान्तम् । सत्यमहमेवोपालभ्यो यो गुणमपि दोषमभिदधामि । कपिञ्जला- 'भट्टिणि ! कदं कालविलंवेण, रहस्सं किं पि मंतेहि । ६२ ] दमयन्ती - नाहं रहस्सं मंतिदु सिक्खिदा । राजा - अपि स्मरनागरिके ! किमात्मानं वैदग्ध्यबन्ध्यमावेदयसि १ अपि चाहमस्मि शिक्षितः । कलहंस ! दर्शय रहस्यमस्मदीयम् । ( कलहंसः पत्रमर्पयति । दमयन्ती वाचयति ) अमीभिः संसिक्तैस्तव किमु फलं वारिदघटे ! यदेतेऽपेक्षन्ते सलिलमव टेभ्योऽपि तरवः । अयं युक्तो व्यक्तं ननु सुखयितु' चातकशिशुय एष ग्रीष्मेऽपि स्पृहयति न पाथस्त्वदपरात् ॥ २७ ॥ दमयन्ती - ( विमृश्य स्वगतम्) त्वदेकशरणोऽहमित्युक्तं भवति । (प्रकाशम् ) कलहंस ! मुद्धा खु अहं, न गूढभणिदीणमत्थं जाणामि । राजा -- किमेवमभिदधासि १ यतः -- १. भत्रि ! कृतं कालविलम्बेन, रहस्यं किमपि मन्त्रयस्व | २. नाहं रहस्यं मन्त्रयितुं शिक्षिता । ३. कलहंस ! मुग्धा खल्वहम्, न गूढभणितीनामर्थं जानामि । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्क मुग्धाङ्गनानयनपातविलक्षणानि दक्षैरपि क्षणमलक्षितविभ्रमाणि । आलोकितान्यपि नताङ्गि ! निवेदयन्ति वैदग्ध्यसम्पदमनन्यतमां भवत्याः ॥२८॥ यदि वा व्यक्तमपि विज्ञप्यते । कान्तस्तवाहमधरीकृतविश्वरूपः सौन्दर्यविभ्रमवती भवती प्रिया मे। प्रेमावयोरनधिगम्यदशाधिरूढं जानीहि नैष सुकरो विधिनापि योगः ॥ २६ ॥ (प्रविश्य) चेटी- 'भट्टीणि ! देवी तुमं हकारेदि ? (राजा सभयं भुजमपनीय तिरोधत्ते) दमयन्ती-अंबा मं आणवेदि १ एसा समागच्छामि । (इति सर्वाः परिकामन्ति) राजा-(सविषादम् ) कलहंस ! न कोऽपि कार्यनिव्यू हः समभूत् । हा ! हताः स्मः । कुतो नाम पुनरपि रह:सङ्गमः विदूषकः- भो ! अहं से संगमं पुणरवि करेमि । १. भत्रि ! देवी त्वामाह्वयति । - २. अम्बा मामाज्ञापयति ? एषा समागच्छामि । ३. भोः ! अहमस्याः सङ्गमं पुनरपि करोमि (कारयामि)। For PL Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] नलविलासे राजा-(सादरम् ) अस्मदनुरोधेन प्रवर्तस्व । (विदूषकः खरनादितं करोति ) दमयन्ती-( आकर्ण्य ) 'कधं एस रुक्खंतरिदो खरो वामं वाहरदि ? हला मयणिए ! असउणं मे, ताव गच्छ तुमं, अहं पुण सहयारवीहीए गहुय आगमिस्सं । (मदनिका निष्क्रान्ता । दमयन्तो प्रतिनिवर्तते) विदूषकः- भोदी! न तए मे बंभणस्स सत्थिवायणं दिन्नं, तदो असउणं । ____ दमयन्ती--(पत्रके किमपि लिखित्वा) एदं दे सत्थिवायणं (विदृषकस्य प्रयच्छति । राजानं प्रति) महाराय ! सुदे (सुवे १) पुणो वि संगमो । राजाकणेजपं क्षतमुदो विपदो वचस्त्वं श्वःसङ्गमः पुनरतिप्रलयस्य शङ्का । त्वद्विप्रयोगशरणं क्षणमप्यहं तु ___ वर्षाणि देवि ! किल यामि परःशतानि ॥ ३० ॥ १. कथमेष वृक्षान्तरितः खरो वामं व्याहरति ! हले मदनिके ! अशकुनं मे, तावद् गच्छ त्वम्, अहं पुनः सहकारवीथ्यां गत्वा ऽऽगमिप्यामि। २. भवति ! न त्वया मे ब्राह्मणस्य स्वस्तिवाचनं दत्तम्, ततो ऽशकुनम् । ३. एतत् ते स्वस्तिवाचनम् । महाराज ! श्व: पुनरपि सङ्गमः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽङ्कः [ ६५ दमयन्ती- 'अओ परं न पारेमि चिद्विदुः, ता गमिस्सं । (निष्क्रान्ता) (राजा पत्रकं वाचयति) सौदामिनीपरिष्वङ्ग मुश्चन्त्यपि पयोमुचः। न तु सौदामिनी तेषामभिष्वङ्ग विमुञ्चति ॥ ३१ ॥ कलहंसा-देव ! अनयाऽप्यात्मनोऽनन्यशरणत्वमावेदितम् । राजा-नन्धयमुत्तरार्धस्यार्थः । कलहंसः-पूर्वाधस्यार्थोऽनिष्ट सूचयति । राजा-(सभयम् ) किं तत् ? कलहंसः-परिणयनानन्तरं दमयन्तीपरित्यागम् । राजा-शान्तम् । ननु नलो यदि दमयन्ती परित्यजति, तदा निषधामभिजनं च । तदेहि शिविरं व्रजामः। (इति निष्क्रान्ताः सर्वे) ॥ तृतीयोऽङ्कः ॥ . १. अतः परं न पारयामि स्थातुम्, ततो गमिष्यामि । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे चतुर्थोऽङ्कः। ( नेपथ्ये ) 'ऊसलेध भो अगदहो ऊसलेध । (ततः प्रविशति राजा भीमरथोऽमात्यवसुदत्तादिकश्च परिवारः) राजा-अमात्य ! दर्शय मार्ग येन स्वयंवरशोभामालोकयामः। वसुदत्तः-इत इतो देवः परिक्रामतु । राजा-अमात्य ! वत्साप्रतिकृतिदर्शनेनापि वयं स्वयंवरं विधातुमीषन्मनसः समभवाम । घोरघोणवचनविरोधिलम्बस्तनीवचनेन पुनः सविशेषमुत्साहिताः। वसुदत्तः-देव ! लम्बस्तनी किमुक्तवती ? राजा--निषधाधिपतिपत्नी दमयन्ती भविष्यतीत्युक्तवती । वसुदत्त:--चित्रसेनपत्नीप्रतिपादकेन घोरघोणवचनेन सह सर्वथा विरुध्यते लम्बस्तनीवचः । राजा-ततोऽस्माभिस्तदेतं वाविप्लवमाशङ्कमानैः स्वयंवरविधिरनुष्ठितः। वसुदत्तः–देव ! खराधिरोहणक्रुद्धन दुरात्मना घोरघोणेन किमप्यश्रद्धयमश्रोतव्यं च प्रतिज्ञातम् । १. अपसरत भोः ! अग्रतोऽपसरत । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽङ्कः [६७ राजा-(सभयम् ) किं तत् ? वसुदत्तः---यो दमयन्ती परिणेष्यति, तस्य राज्यभ्रशम् (इत्योक्ते तूष्णीमास्ते) राजा-शान्तं शान्तं प्रतिहतममङ्गलम्, ननु दमयंतीपतिस्त्रिखण्डभरतपतिरिति मुनयः समादिशन्ति । ततः कथं स तापसापसदो राज्यभ्रशं करिष्यति ? वसुदत्तः--यदेव ज्ञानचक्षुषः समादिशन्ति तदेवास्तु । (विलोक्य) अयं स्वयंवरमण्डपः, इदं सिहासनमास्यतां देवेन । राजा-(तथा कृत्वा विलोक्य च) अमात्य ! समायाताः काशीपतिप्रभृतयः क्षोणिपतयः, परमद्यापि निषधाधिपति याति । कोऽत्र भोः ? (प्रविश्य ) पुरुषः-आदिशतु देवः। राजा-अये मङ्गलक ! कुसुमाकरोद्यानानिषधाधिपतिमाकार्य शचीपतिदिशि विनिवेशिते कार्तस्वरसिंहासने समुपवेशय। ('आदेशः प्रमाणम्' इति ब्र वाणो मङ्गलको निष्क्रान्तः । ततः प्रविशति मङ्गलकेनादिश्यमानसरणिर्नल: कलहंस-खरमुखमकरिकाऽऽदिकश्च परिवारः) मङ्गलका-इत इतो निषधाधिपतिः । इदं सिंहासनमास्यताम् । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] नलविलासे नल:-(समुपविश्य स्वगतम् ) आकुञ्चितैविकसितैश्चकितैः प्रहृष्ट रुत्कण्ठितैः कुटिलितैललितविनीतैः ! आलोकित गदृशो वदनप्रवृत्ति वृत्तेजितोऽस्मि मुषितोऽस्मि हृतोऽस्मि तुल्यम् ॥१॥ (प्रकाशम् ) कलहंस ! कृतमिषशतं यद् गच्छन्त्या मुहुर्मुहुरीक्षितं यदपि च सखीशङ्कामीत्या गता न विरागतः । तदिदमनिशं स्मारं स्मारं कुशीलववन्मनो हसति रमते रोदित्युच्चैर्विषीदति सीदति ॥ २॥ (विमृश्य ) कीदृशमस्य स्वयंवरस्य निर्वहणं सम्भावयसि ? कलहंसः-पत्रकश्लोकविमर्शनेन नाटकस्येव प्रमदाद्भुतरसशरणं सम्भावयामि निर्वहणम् । नल:-वयस्य खरमुख ! खरनादितेन राजपुत्रों प्रतिनिवर्तयता त्वया वयमधमर्णीकृताः । जाने भगवता विरञ्चेन भवानेतदर्थमेव गर्दभवदनः कृतः। विदूषकः-(सरोषम् ) 'अदो जजेव तए कदन्नुचूडामणिना खरमुहस्स पडिक, कदं। १. अत एव त्वया कृतज्ञचूडामणिना खरमुखस्य प्रतिकृतं कृतम् । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽङ्कः - नलः – वयस्य ! राजपुत्रीललितमीमांसादुर्ललितचेतोभिरस्माभिर्न किमपि रंजनावनुस्मृतम्, तदिदानीं गृहाणेदं ग्रैवेयकम् | विदूषकः -- 'कुविदो म्हि, न गिन्हिस्सं । नलः -- मकरिके ! वयस्यमनुकूलयास्मासु । मकरिका - अरे गद्दहमुह ! किं भट्टिणमवजाणासि ? विदूषकः - 'आ दासीए धीए ! मं बंभण महिक्खिवसि ? नलः -- वयस्य ! साम्प्रतमनवसरः क्रोधस्य । विदूषकः- जइ अणवसरो कोहस्स, ता गिन्हिस्सं पसादं । नलः -- रसभङ्गः कृतस्त्वया, ततो न वयं ग्रैवेयकं प्रतिपादयिष्यामः । मकरिका - (विहस्य ) ईदिसस्स ज्जेव संमाणस्स जुग्यो सि । विदूषकः - 'भो ! पडिवादेहि आभरणं, न पुणो रुसिस्सं । १. कुपितोऽस्मि, न ग्रहीष्यामि । २. अरे ! गर्दभमुख ! कि भर्तारमवजानासि ? ३. आः ! दास्याः पुत्रि ! मां ब्राह्मणमधिक्षिपसि ? ४. यद्यनवसरः क्रोधस्य तद् ग्रहीष्ये प्रसादम् । ५. ईशस्यैव सम्मानस्य योग्योऽसि । ६. भोः ! प्रतिपादय आभरणम्, न पुना रुषिष्यामि । [ ६९ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] नलविलासे (नलो ग्रैवेयकं समर्पयति) मङ्गलक:--(अग्रतः परिक्रम्य ) देव विदर्भाधिपते ! समायातो निषधाधिपतिः । राजा--अवशिष्यते कोऽपि नरपतिः ? मङ्गालकः--न कोऽपि । राजा-कोऽत्र भोः १ (प्रविश्य ) कञ्चुकी-एषोऽस्मि । राजा-माधवसेन ! वत्सां दमयन्तीं स्वयंवरमण्डपे समानय । ('आदेशः प्रमाणम्' इत्यभिधाय माधवसेनो निष्क्रान्तः । ततः प्रविशति कञ्चुकिना निर्दिश्यमानमार्गा दमयन्ती, गृहीतवरमाला कपिञ्जला च ) कपिञ्जला- 'तदो पुच्छिदा अहं रयणिवुत्तंतं मयरियाए, कहिंदो य मए। दमयन्ती-(सरोषमिव) कीस तए अहं लहुईकदा ? माधव सेनः-इत इतो देवी । देवि ! अयमेष देवो विदर्भाधिपतिः । एते च वरयितारः क्ष्मामारः। १. ततः पृष्टाऽहं रजनीवृत्तान्तं मकरिकया, कथितश्च मया । २. कथं त्वयाऽहं लघुकीकृता? Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽङ्कः [७१ कपिञ्जला--(अपवार्य नलं दर्शयन्ती ) 'एसो उण कुसुमावचयपच्चूहकारी दुब्बिसहआधि-वाधिनाडयपत्थावणासु तहारो सजणो दमयन्ती-(समन्ततोऽवलोक्य, नलं च सविशेषं निवण्ये स्वगतम् ) कधं अवल्लेव गोदमस्स सावेण एदस्स दसणेण जडीकदा मे ऊरुजुयली! हीमाणहे ! कधं सयंवरमंडवे परिकमिस्सं ? कपिञ्जला-(स्वगतम्) अम्मो! कधं भट्टिणीए नलं पिच्छिउण ऊरुत्थंभो जादो ? भोदु एवं दाव (प्रकाशम्) भट्टिणि ! रयणिसंभूददाहजरेण नीसहाई दे अंगाई, ता में अवलंबिय परिक्कमसु । नल:- (विलोक्य) मकरिके ! केयं कपिञ्जलादत्तहस्तावलम्बा परिक्रामति ? मकरिका- 'णं एसा दमयंती। १. एष पुनः कुसुमावचयप्रत्यूहकारी दुर्विषहाधि-व्याधिनाटक प्रस्तावनासूत्रधारः स्वजनः । २. कथमहल्येव गौतमस्य शापेनैतस्य दर्शनेन जडीकृता मे ऊरुयु गली ! हा ! कथं स्वयंवरमण्डपे परिक्रमिष्यामि ? ३. अहो ! कथं भा नलं दृष्ट्वा ऊरुस्तम्भो जाप्तः ? भवतु, एवं तावत् । भत्रि! रजनीसम्भूतदाहज्वरेण निःसहानि ते अङ्गानि, ततो मामवलम्ब्य परिक्रमस्व । ४. नन्वेषा दमयन्ती। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] नलविलासे नल:---अहो! कौतूहलं राजपथेऽपि भ्रमः। नन्वियं विष्टपदृष्टिचकोरीचन्द्रिका देवी दमयन्ती । मकरिके ! अधिकमधिवहन्ती गण्डयोः पाण्डिमानं तलिननलिननालान्यङ्गकै स्तर्जयन्ती । अलसचरणपातैर्वीक्षितैश्वातिकान्तः कथय कथमियं नः साम्प्रतं भात्यपूर्वा ? ॥ ३ ॥ मकरिका-(विहस्य ) 'भट्टा ज्जेव संतावमुप्पाययंतो अपुरवत्तणे कारणं । नल:-(सहर्षम् ) अयि ! रजनिवृत्तान्तमवधार्य वदसि ? मकरिका- अध इं। नल:-किमजनि रजनौ देव्याः ? मकरिका- 'जं रहंगघरिणीए । नल:-कचिनिषधाधिपतिभगवता विरञ्चेन सुभगश्रेणि लम्भितः । (दमयन्तीं विलोक्य ) मकरिके ! सान्निध्यात् पितुरानतं नृपजनव्यालोकलीलोन्नतं मद्वक्त्रेक्षणलालसात् प्रतिमुहुः कोणाङ्ककेलीचलम् । आरामस्मरणोद्गताद्भुतरसं वेषौचितीदर्शनव्यग्रं नव्यसभाप्रवेशचकितं चक्षुः कुरङ्गीदृशः ॥४॥ १. भतॆव सन्तापमुत्पादयन् अपूर्वत्वे कारणम् । २. अथ किम् । ३. यद् रथाङ्गगृहिण्याः । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽङ्कः [ ७३ राजा -- अये माधवसेन ! प्रत्येकमवनीभुजां नयविनय-क्रम विक्रमानुकीर्तय पुरो वत्सायाः । माधवसेन: - ( पुरो भूत्वा दमयन्तीं प्रति ). स्मेराक्षि ! क्षितिचक्र विश्रुतबलः काशीक्षितीशो चलः सोऽयं स्कन्धतटेऽस्य मुञ्च विकचन्मल्लीप्रसूनस्रजम् । उच्छा स्पृहयालुशीकरभरव्यासङ्गरङ्गन्नगे गागे रोघास सस्पृहा ग्लप (प्लव) यितुं चेद् ग्रीष्ममध्यन्दिनम् ||५|| दमयन्ती- 'अज्ज ! परवचणवसणिणो कासिवासिणो सुच्चति । माधवसेनः - न मेऽस्मिन् मनोरतिरिति व्यक्तमुच्यताम् । ( परिक्रम्य ) अयमवनिपतीन्दुभूपतिः कुङ्कणानां कलय वलयधाम्ना पाणिना पाणिमस्य । अधिजलधिगतानां गोत्रशत्रुम गाति ! क्षपयति नहि पक्षान् क्ष्माभृतां शङ्कितोऽस्मात् || ६ || दमयन्ती-- अणि मित्तरोसिरो एस, ता न पारेमि पर पए अणुकूलिदु । माधवसेनः--- कुन्ददति । वयसैव लघीयसी, संसारोपनिषद्वैदुष्येण गरीयसी खल्वसि । १. आर्य ! परवञ्चनव्यसनिनः काशीवासिनः श्रूयन्ते । २. अनिमित्तरोषण एष, तन्न पारयामि पदे पदेऽनुकूलयितुम् । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४। नलविलासे अकाण्डकोपिनो भतु रन्यासक्तेश्च योषितः । प्रसत्तिश्चेतसः कतु ब्रह्मणापि न शक्यते ॥ ७ ॥ (सर्वेऽग्रतः परिकामन्ति) काश्मीरेश्वर एष शेषवनितासङ्गीतकीर्तिद्विषत् कान्तावक्त्रविचित्रपत्रमकरीहव्यैकधृमध्वजः । एतं कुन्ददति ! त्वमावह वरं यद्यस्ति कौतूहलं केदारेषु विकासिकुङ्कुमरजापिङ्गेषु संक्रीडितुम् ॥८॥ दमयन्ती-- 'अज्जमाधवसेण ! तुसारसंभारपणयभीरुयं मे सरीरयं न किं तुमं जाणासि ? माधवसेनः--तहि पुरो व्रजामि । (परिक्रम्य ) कलहंसगमने! कौशाम्बीपतिरयमुन्नतांसपीठः शौण्डोर्यावसथममु वरं वृणीष्व । यत्तेजोऽनलमसहिष्णुरुत्पतिष्णुः क्ष्मापालो वनमभिभूतवान् न कस्कः ॥ ६ ॥ दमयन्ती- कपिञ्जले ! अदिरमणीया तुमए वरमाला विणिम्मिदा। माधवसेनः-अप्रतिवचनमेवास्य भूपतेः प्रत्यासः। Dosapna - - - १. आर्य माधवसेन ! तुषारसम्भारप्रणय भीरुकं मे शरीरं न कि स्वं जानासि ? २. कपिलले ! अतिरमणीया स्वया वरमाला विनिर्मिता। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽङ्कः नलः -- ( कुसुमचापसन्तापमभिनीय स्वगतम् ) यस्यां मृगीदृशिशोरमृतच्छटायां देव: स्मरोऽपि नियतं वितताभिलाषः । एतत्समागममहोत्सवबद्धतृष्ण माहन्ति मामपरथा विशिखैः कथं सः १ ॥ १० ॥ माधव सेन: - - ( परिक्रम्य ) स एष सुभगाग्रणीः पतिरवन्तिभूमेः कलाकलापकुल केतनं यदरिवाम नेत्राजनैः । वसद्भिरधिपर्वतं किमपि पर्वतीयाधिप स्त्रियो नृपतिनायिकाललितनाटकं शिक्षिताः ॥ ११ ॥ 1 ७५ तदकोशसहस्रपत्रपत्रलाक्षि ! पवित्रय निजेन पाणिना पाणिमस्य यदि सिप्रास्रोतसि स्नानाय स्पृहयसि । दमयन्ती - 'माधव सेण ! विवाहमंगलसंगलिदभूरितूररवपडिरवजणिदजागरणभिंभलाई मे अंगाई, न तरामि पुणो पुणो मंतिदु । माधवसेनः - ( सभयमात्मगतम् ) कथमवन्तीपतिविद्वेषेण सरोषमाभाषते । भवतु नृपान्तरमुत्कीर्तयामि । १. माधवसेन ! विवाहमङ्गलसङ्कलितभूरितूर्य रवप्रतिरवज तजागरणविह्वलानि मेऽङ्गानि न शक्नोमि पुनः पुनर्मन्त्रयितुम् । , Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] नलविलासे ( प्रकाशम ) कलकण्ठीकण्ठि ! न्यायैकधनमेतमनुमन्यस्व पतिं कलिङ्गाधिपतिम् । पश्य पश्य यथा यथा प्रतापाग्निर्ज्वलत्यस्य महौजसः । चित्र वर्णाश्रमारामाः स्निग्धच्छायास्तथा तथा ||१२|| दमयन्ती - ( विलोक्य) 'तादसमाणवयपरिणामस्स नमो एतस्स । माधवसेनः - (स्वगतम् ) वार्द्धककलङ्कङ्किलः सत्यमनुपासनीय एवायमभिनवयौवनानाम् । भवतु ( पुनः परिक्रामति । प्रकाशम् ) मृगाङ्कमुखि ! दर्पामातविरोधीरकुरलीदोःकाण्डकण्डूक्लम च्छेदच्छेकपराक्रमं पतिममु मन्यस्व गौडेश्वरम् । भ्रश्यद्विन्दुतरङ्गभङ्गिपटलैर्यद्वाहिनीवारण श्रेणीदान जलैर्बिभर्ति जगती कस्तूरिकामण्डनम् ॥१३॥ दमयन्ती - अम्मो ! ईदिसं पि कसिणभीसणं माणुसरूवं भोदि ! अज्ज ! तुरिदमग्गदो वच, वेवदि मे ह्रिदयं । ( माधवसेनः स्मित्वा परिक्रामति ) १. तातसमानवयः परिणामाय नम एतस्मै । २. अहो ! ईदृशमपि कृष्णभोषण मनुष्यरूपं भवति । आर्य ! त्वरितमग्रतो व्रज, वेपते मे हृदयम् । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽङ्कः [ ७७ नलः - ( दमयन्तीमवलोक्य कलहंसं प्रति ) पश्य पश्य कौतूहलम् । चापल्यं दृशि शाश्वतं कुटिलतां चूर्णालकेषु स्थिरा - मौद्धत्यं कुचयोरनन्यशरणं मध्ये परां तुच्छताम् । विभ्राणाऽपि विदर्भराजतनया प्रीत्यै सता चेतसः कलहंसः - देव ! किमदः कौतूहलम् १ यतः - दोषा अप्यतिशेरते क्वचिदपि स्थाने प्ररूढा गुणान् ॥१४॥ माधवसेनः - आः ! दुर्विदग्धहृदये ! रेवासीकरवारिवेपथुवर्माहिष्मतीभूपतिः सोऽयं श्रीवनिताविलासवसतेरस्याङ्कशय्यां गता । शम्र्माल्लाघन घर्मघस्मर मरुन्मैत्रीनिपीतक्लम-स्वेदम्भःकणिकासपे! क्षिप शरच्चन्द्रातपास्ताः क्षपाः ॥ १५॥ दमयन्ती - (स्मृतिमभिनीय ) 'अंबहे ! एस अंबाए भादुणो तणुओ वक्कणो । माधवसेनः - (मलज्जं परिक्रम्य) चन्द्रमुखि ! कालिन्दीसी करा सारसम्पर्क सततझञ्झानिलीभूतवातपरिरम्भासम्भाविग्रीष्ममाणं विजयवर्माणं मथुराधिपतिं पतिमेतमनुमन्यस्व, स्वैरं विहतुमुत्कण्ठसे यदि वृन्दावन पावनासु गोवर्द्धनाधि - त्यकासु । १. अहो एषोऽम्बाया भ्रातुस्तनुजो वक्रसेनः । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] यात्रायां किल यस्य सिन्धुरघटाप्रायः*प्रसर्पच्चमूमूर्च्छालाब निलोलमूलतरले चामीकरक्ष्माभृति । घूर्णन्तीषु विशृङ्खलं प्रतिकलं दोलासु दैत्यद्विषां कन्याः कुञ्चितपाणयो विदधते प्रेङ्खाविनोदोत्सवम् ॥ १६ ॥ दमयन्ती - 'अज्ज माधवसेण ! णाहमा रामभूरुहविहारकोहलिणी | नल विलासे माधवसेनः-- (स्वगतम् ) अयमपि न मे मनः प्रीणयतीति निवेदितम् । भवतु । अग्रतः परिक्रमामि ( परिक्रम्य प्रकाशम् ) पक्ष्मलाक्षि ! त्रैलोक्योदरवर्त्तिकीर्तिकदलीकाण्डप्रकाण्डप्रथा पाथोदं दयितं विधेहि तममुळे काचीपतिं भूपतिम् । वाहिन्या प्रथितप्रतापघनया यस्मिन् समाक्रामति क्लान्तः क्षोणिभृतः कुतो न निरगात् सङ्ग्रामगर्वोरगः १ ॥ १७॥ दमयन्ती- 'हीमाणहे ! परिस्संतम्हि एदिणा सयंवरमंडवभूमिविहरणेण, किचिरं अज्ज वि अज्जो माधवसेणो जंपिस्सदि १ वसुदत्त: - ( राजानं प्रति ) देव ! पश्य १. आर्य माधवसेन ! नाहमारामभूरुहविहारकौतूहलिनी । २. हा ! परिश्रान्तास्मि एतेन स्वयंवरमण्डपभूमिविहरणेन । कियच्चिरमद्याप्यार्यो माधवसेनो जलिष्यति ? * प्राप्तः प्र० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽङ्कः ताराविलासरुचिरं नयनाभिनन्दि नव्यं नरेन्द्रदुहितुमुखमिन्दुबिम्बम् । यस्याभिषङ्गरहिताः कटकैः सहैव विच्छायतां क्षितिभृतः सहसा व्रजन्ति ॥ १८ ॥ ( प्रविश्य सम्भ्रान्तः ) पुरुषः- देव विदर्भाधिपते ! लग्नघटिका वर्तत इति मौहूर्तिका विज्ञापयन्ति । राजा - ( ससम्भ्रमम् ) अये माधवसेन ! संवृणु वाचा - लतां विलम्बमसहिष्णुर्लग्नसमयः । कपिञ्जले ! केयमरोचकिता वत्सायाः १ माधवसेनः - ( सभयमग्रतः परिक्रम्य ) कुड्मलाग्रदति देवि ! प्रकर्षपदमन्तिमं द्रुहिणरूप शिल्पश्रियः स एष निषधापतिः सुभगकुञ्जरग्रामणीः । विलोक्य किल यं जगन्नयन कैरवेन्दु चिरा दमस्त परिकल्पितां मदनदाहवार्तां जनः ॥ १६ ॥ दमयन्ती - ( साश्चर्यमात्मगतम् ) 'अहो ! मणोहरदा आगिदीए ! अहह चंगिमा अंगसंनिवेसाणं ! कटरि सूहवत्तणं ! कटरि विलासवियडूिमा ! [ ७९ १. अहो ! मनोहरताऽऽकृत्याः ! अहह ! चङ्गताऽङ्गसंनिवेशानाम् ! करि सुभगत्वम् ! कटरि विलासवैदग्ध्यम् ! Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] नलविलासे राजा-(विलोक्य ) कथमद्यापि वत्सा विलम्बते ? (पुनरुच्चैःस्वरम् ) वत्से ! . स्थिरं कृत्वा चेतः सुदति ! वृणु रामैकशरणं तमेतं भूपालं य इह ननु नव्यः किल नलः । यदेतस्याक्रान्ताः क्षणमपि करेणाचलघने वने मज्जन्त्याशु स्फुटकटकवन्तः क्षितिभृतः ॥२०॥ नल:-(सर्वाङ्गीणमालोक्यात्मगतम्) नयननलिनपेयं श्वेतिमानं वहन्ती श्रियमिह वदनेन्दौ दन्तपत्रे विदन्ती । यदयमथ दधानः कालिमानं विधत्ते कुटिलचिकुरभारस्तत् तु कोतूहलं नः ॥ २१ ॥ दमयन्ती-( सप्रमोदमात्मगतम् ) 'हियय ! मुच कापेयं । भोदु दमयन्तीयाए सहलं मणुयलोयावयरणं । __नल:-( समयमात्मगतम् ) कमियं चिरयति ? कि विस्मृतवती स्वयमारामदत्तं सङ्कतम् ? उताहो स भगवान विधिरकाण्डे निषधाधिपती कोपमुपगतवान् । वसुदत्तः-(उच्चःस्वरम् ) उन्मीलद्दलशतपत्रपत्रलाक्षि ! क्ष्मापालं नलमधिगम्य कामरूपम् ।। १. हृदय ! मुञ्च का पेयम् । भवतु दमयन्त्याः सफलं मनुजलोका. वतरणम् । - - - - - - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽङ्कः सप्रीतिस्मरतनुगोचराणि तूर्णं लोकानां सफलय नेत्रकौतुकानि ॥ २२ ॥ कपिञ्जला- 'देवि ! किं अज्ज वि विलंबीयादि । दमयंती - (स्मित्वा) कपिञ्जले ! जं तुमं भणसि तं करेमि । ( वरमालामादाय नलस्य कण्ठे विन्यस्यति ) सर्वे - ( सहर्षमुच्चैःस्वरम् ) अहो ! सुवृत्तं सुवृत्तम् । नलः - (सहर्षरोमाञ्चमात्मगतम् ) अद्याभूद् भगवान् विरश्चिरुचितव्यासङ्गनिष्णातधीदेवस्याद्य मनोभवस्य फलवान् कोदण्डयोग्यक्लमः । चन्द्रोद्यानवसन्तदक्षिणमरुन्माल्यादिकस्याभवत् कामोत्सेधविधायिनोऽद्य सफलो भूगोलचारश्विरात् ॥ २३ ॥ ( प्रकाशं जनान्तिकम् ) कलहंस ! मकरिके ! फलितः स एष वां प्रयासः । [ ८१ कलहंसः - देव ! नावयोः प्रयासः फलितः, किन्तु देवस्य स्वप्नः । नल: - - समभूदिदानीं स्वप्नार्थप्रत्याशा । ( नेपथ्ये ) हो राजलोकाः ! प्रवर्त्यतां कौतुकविधिः, प्रतिरुध्यतां कोलाहलः, अवधीयतां झल्लरीझात्कारः । १. देवि ! किमद्यापि विलम्ब्यते ? २. कपिञ्जले ! यत् त्वं भणसि, तत् करोमि । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे राजा - ( ससम्भ्रमम् ) माधवसेन ! नीयतां सवरा वत्सा देवी | ८२ ] ( नलदमयन्त्यो सपरिकरे माधवसेनेन समं निष्क्रान्ते) ( नेपथ्ये ) बन्दीविन्यस्याभिनवोदये श्रियमयं राज्ञि प्रतापोज्झितो द्यूतस्य व्यसनीव धूमरकरः सन्त्रुट्यदाशास्थितिः । निद्रायद्दललोचनां कमलिनीं सन्त्यज्य मध्येवनं क्रामत्यम्बरखण्डमात्रविभवो देशान्तरं गोपतिः ॥ २४ ॥ वसुदत्त :- ( विमृश्य सविषादम् ) देव ! भ्रष्टराज्यस्य स्ववधू परित्यज्य वरस्य देशान्तरगमनमावेदयति सन्ध्यासमयवर्णव्याजेन मागधः । राजा -- शान्तं शान्तं स्वस्ति स्तात् । प्रतिहतजगत्वयदुरिततान्तिः सकलदेवताधिचक्रवर्ती देवः श्रीशान्तिः शिवतातिरस्तु वधूवरस्य । अमात्यः -- कृतमनिष्टशङ्कया । एहि विवाहकृत्यानि चिन्तयितु ं व्रजामः । ( इति निष्क्रान्ताः सर्वे ) ॥ चतुर्थोऽङ्कः ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽङ्कः पञ्चमोऽङ्कः। (ततः प्रविशति कलहंसः) कलहंसः-(सविषादम् ) अहो ! विकटस्य संसारनाटकस्य परस्परविरुद्धरससमावेशधैरस्यम् ! शृङ्गाराद्भुतरसनिस्यन्दसुन्दरः क नाम स स्वयंवरविवाहमहोत्सवाडम्बरः, क्व चैष परमकरुणरसप्रावीण्यप्रणयपिच्छिलो दुरोदरप्रवर्तितो दमयन्तीमात्रपरिकरस्य देवस्य निषधाविपतेः प्रवासवैशसोपप्लवः ! अहह ! किमिदमनार्योंचितं कम समाचरितमिन्दुकुलकृतावतारेणापि देवेन ! अपि खलु पामरप्रकृतयोऽपि दुरोदरकमणो दुर्विपाकमाकलयन्ति, किं पुनः सर्वकर्माणबुद्धिदेवो निषधाधिपतिः । यदि वा-- कृत्याकृत्यविदोऽपि धर्ममनसोऽप्यन्यायतो विभ्यतोऽप्यश्लाघ्यं पुरुषस्य देववशतस्तत् किश्चिदुज्जम्भते । माहात्म्यं विभवः कला गुणगणः कीर्तिः कुलं विक्रमः सर्वाण्येकपदेऽपि येन परितो भ्रश्यन्ति मूलादपि ॥१॥ न चैतदनात्मनीनमेव कर्म समाचरितं देवेन, किमुतासर्वजनीनम् । न नाम सैंहिकेयोपरागे सवितैव केवलं क्लाम्यति, किन्तु तदधीनाशेषव्यवहारविशेषमखिलमपि काश्यपीवलयम् । किं नु पुरोहितप्रभृतिपौरलोकः शोकाकुलो द्यूत Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] नलविलासे कर्म निवारणाय प्रवृत्तः सकलराज्यदमयन्तीपणेन दीव्यता देवेन समावधीरितस्तदपि न सतां चेतश्चमत्कारकारि । यतः तावन्मतिः स्फुरति नीतिपथाध्वनीना तावत् परोक्तमपि पश्यतया विभाति । यावत् पुराकृतमकर्म न सर्वपर्व - प्रत्यूहकारि परिपाकमुपैति जन्तोः ॥ २ ॥ अपि च स्फुरन्त्युपायाः शान्त्यर्थमनुकूले विधातरि । प्रतिकूले पुनर्यान्ति तेऽप्युपाया अपायताम् ॥ ३ ॥ सर्वथा विधिरेवात्र कर्मण्यलङ्कर्मणतामगतम् । अथवा दुरोदरचातुरीविनिषधाधिपतिं विजेतुं कथमलम्भूष्णुरेष कूचरः ? खलु कृत्वाऽतीतशोचनम् । क एकः किल विधिविलसितविपाको मीमांस्यते । श्रुतं च मया यथा खरमुख - मकरिके अपि पुरिपरिसरारामवर्तिनो दमयन्तीसचिवस्य देवस्यान्तिकमधितिष्ठतः । तदहमपि गच्छामि । ( इति परिक्रामति । विलोक्य) किमयं देवः क्षोणीपत्यपथ्यपथिक नेपथ्यपङ्किलस्तिलकतरुतले निविष्टस्तिष्ठति ? ( सास्रम् ) कथमहमेतस्य दुरवस्था पातिनः स्वामिनः स्वमास्यं दर्शयामि ? तदित एव स्थानात् प्रतिनिवर्ते । यदि वा प्रवसन्तं स्वामिनमालप्य पावकप्रवेशेन निरन्तरभक्तिसमुचितमाचरामि । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽङ्कः (ततः प्रविशति राजा, दमयन्त्यादिकश्च परिवार : ) राजा - ( सावष्टम्भम् ) देवि ! मा रोदी: प्रशस्तलक्षणा भवती । न खलु ते पतिरभूत्वा भूपतिर्विश्राम्यति । व्यसनोपपातश्चायमनागतायाः सम्पदः पदम् । उभयाभिमुख्यभाजां सम्पत्त्यर्थं विपत्तयः पुंसाम् । ज्वलितानले प्रपातः कनकस्य हि तेजसो वृद्धयै ॥ ४ ॥ ( दमयन्ती मन्दं मन्दं रोदिति ) विदूषकः - ( विलोक्य) 'भट्टा ! कलहंसो पणमदि । राजा - ( सखेदम् ) खरमुख ! भर्तेति पदमन्यत्र सङ्क्रान्तम्, तदिदानीं नलेत्येवमामन्त्रणपदमहमि । प्रणमतीत्यप्यवस्थाविरुद्धमनुच्चारणीयम् । कलहंसः समायातोऽस्ती त्येवमेव रमणीयम् । ( कलहंसः प्रणम्य सास्र मधोमुखस्तिष्ठति ) राजा - ( कलहंसं प्रति ) मा विषीद कृतं वाष्पैः फलं मर्पय कर्मणाम् । सत्यं विषाद- शोकाभ्यां न दैवं परिवर्तते ॥ ५ ॥ कलहंसः - ( वाष्पमवधूय ) देव ! सुमहान् मानभङ्गः कृतः कूबरेण । राजा - ( साक्षेपम् ) न कूबरेण कृतः किन्तु वेधसा । १. भर्त: ! कलहंसः प्रणमति । [ ८५ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] नलविलासे अहंयूनामहङ्कारं वारिदानां समुन्नतिम् । विना विधिमृते वातं हन्तु को नाम कर्मठः ॥ ६॥ कलहंसः-(प्रणम्य) अनुयानाय मामनुजानातु देवो विदृषकमपि । राजा-देवीमपि मुमुक्षरहं परमियमबलाऽऽग्रहण मामनुगच्छति । अपि च सर्वस्वपणेन मां कूबरो जितवान् । ततः पथि पथिकवृत्त्यैव गन्तुमुचितम् । तदनुजानीतास्मान् देशान्तरगमनाय । श्लथयत स्नेहबन्धनम् । कुरुत निदयं हृदयम् । न क्षमामहे राज्यभ्रंशधूसरं परिचितपौराणामास्यं दर्शयितुम् । बजामः कामयेको दिशम् । (अग्रतः कृत्वा) देवि ! दुर्विषहवातशीतातपक्लेशकारीणि प्रान्तराणि । राज्यभ्र शेन विगतपरिच्छदवाहना वयम् । न शक्ष्यति भवती क्रमितुमशिक्षितपादचारा करालव्यालशैलसङ्कटासु वनभूमिषु । तद् विधेहि मे वचनमवलम्बस्व दीघदर्शितामिहैव कूबरान्तिके तिष्ठ पितृगृहं वा ब्रज। (सर्वे तारस्वरं रुदन्ति) किमेतेन प्राकृतप्रकृतिसब्रह्मचारिणा चेष्टितेन ? ननु धैर्यमवलम्ब्य समयोचितमाचरत । दमयन्ती- 'अज्जउत्त ! अहं इध ज्जेव चिट्ठिस्सं । पाणा उण अज्जउत्तेण समं आगमिस्संति । १. आर्यपुत्र ! अहमि हैव स्थास्यामि । प्राणा: पुनरार्यपुत्रेण सम मागमिष्यन्ति । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽङ्क [८७ कलहंसः--(प्रणम्य) अनुव्रजतु देवी देवम् । राजा-अनुव्रजतु नाम परं परमक्लेशमनुभविष्यति । दमयन्ती- 'जं भोदि तं भोद, अहं दात्र आगमिस्सं । राजा-कलहंस! मर्षयितव्यं यदस्माभिः प्राभवान्धैः किमप्यपराद्धम् । वयस्य खरमुख ! सर्वदा क्रीडासचिवोऽसि नः । ततस्त्वयाऽस्माकमुपहासादिकं सोढव्यम् । मकरिके ! त्वदीयस्य दमयन्तीघटनाप्रयासस्य तदीदृशमवसानमभूत् । दमयन्ती-- पियसहि मयरिए ! कंडिणं गडूय अंबाए तादस्स य एस पवासवुत्तो विनवेयव्यो। मकरिका-(सास्रम् ) भट्टिणि ! न सक्केमि अत्तणो मुहं दंसिदु, ता कुंडिणं न गमिस्सं । दमयन्ती-- "अज्ज खरमुह ! सहि मयरिए ! अहं तुज्झेहिं सुमरिदव्या (कलहंसं प्रति) महाभाय ! अणुजाणाहि मं वणयरि भविदु। १. यद् भवति तद् भवतु, अहं तावदागमिष्यामि । २. प्रियसखि मकरिके ! कुण्डिनं गत्वाऽम्बायाः तातस्य चैष प्रवासवृत्तान्तो विज्ञपयितव्यः । ३. भत्रि ! न शक्नोम्यात्मनो मुख दर्शयितुम्, तत् कुण्डिनं न गमिष्यामि। ४. आर्य खरमुख ! सखि मकरिके ! अहं युष्मामिः स्मर्तव्या। महाभाग ! अनुजानीहि मां वनचरी भवितुम् । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे (सर्वे मन्दं रुदन्ति) राजा-देवि ! अतिकालो भवति । प्रयतस्व देशान्तरगमनाय। दमयन्ती-(सरभसमुत्थाय) 'एसम्हि पगुणीभूदा। राजा-(कलहंसादीन् प्रति) अनुजानीत मां सुकृतं दुष्कृतं वाऽनुभवितुम् । (सर्वे सास्र प्रणम्य निष्क्रान्ताः) देवि ! कमध्वानमनुतिष्ठामि ? दमयन्ती- 'विदब्माणुजाइणं । राजा--इत इतो देवी। (उभौ परिक्रामतः) दमयन्ती-(सान विचिन्त्य) अज्जउत्त ! पुन्वचिंतिदं पिच्छ कहं सव्यं पि अनहा जायं ! . राजा-देवि ! अग्दृिष्टितया लोको यथेच्छ वाञ्छति प्रियम् । भाग्यापेक्षी विधिदत्ते तेन चिन्तितमन्यथा ॥ ७॥ maa -- - १. एषाऽस्मि प्रगुणीभूता । २. विदर्भानुयायिनम् । ३. आर्यपुत्र ! पूर्वचिन्तितं पश्य कथं सर्वमप्यन्यथा जातम् ! Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८९ पंचमोऽङ्कः अपि च देवि ! मा स्म विषीद सर्वमपि शुभोदक भविष्यति । अस्तमयति पुनरुदयति पुनरस्तमुपैति पुनरुदेत्यर्कः। विपदोऽपि सम्पदोऽपि च सततं न स्थास्नवः प्रायः ॥८॥ दमयन्ती-(परिक्रम्य सखेदम् ) 'अज्जउत्त ! परिस्संतम्हि ता खणं वीसमिस्सं । (राजा सबाष्पं स्वेदाम्भः प्रमृज्य सिचयाञ्चलेन वीजयति) (निःश्वस्य) अज्जउत्त ! कित्तियं अज्ज गंतव्वं ? राजा-यावद् देवि ! समाक्रमितुमलम् । (दमयन्ती सखेदमुत्थाय परिक्रामति) (स्वगतम् ) विनोदयाम्यस्याश्चेतः कान्ताररामणीयकोपवर्णनेन येनेयं चरणचक्रमणखेदं न वेदयति । (प्रकाशम्) देवि! पश्य पश्यएते निर्झरझात्कृतैस्तुमुलितप्रस्थोदराः क्ष्माधराः किञ्चैते फलपुष्पपल्लवभरै यस्तातपाः पादपाः । चक्रोऽप्येष वधूमुखार्द्धदलितैवृत्ति विधत्ते विसैः * कान्तां मन्द्ररुतस्तथैष परितः पारापतो नृत्यति ॥६॥ १. आर्यपुत्र ! परिश्रान्तास्मि ततः क्षणं विश्रमिष्यामि । २. आर्यपुत्र ! कियदद्य गन्तव्यम् ? * कान्तामन्तरुत० Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] नलविलासे दमयन्ती-- 'अज्जउत्त ! सुहावत्थाणमेदे कोहलकारिणो, दुहावत्थाणं उण विसेसदो संतावकारिणो। राजा-सत्यमाह देवी। सुस्थे हृदि सुधासिक्तं दुःस्थे विषमयं जगत् । वस्तु रम्यमरम्यं वा मनःसङ्कल्पतस्ततः ॥ १० ॥ दमयन्ती- अज्जउत्त! परिस्समेण तिसिदम्हि । राजा-देवि ! उदन्या त्वां बाधते । कोऽत्र भोः ? अये ! सुरभिशीतलजलकरकमुपनयत (अवलोक्य ) कथं न कोऽप्यग्रतः पावतोऽपि न कश्चित् ! दमयन्ती-(सास्रम् ) अज्जउत्त ! किं नेदं। राजा-(सलज्जम् ) देवि ! पूर्वसंस्कारो मां विप्लवयति । (दमयन्ती मन्दं मन्दं रोदिति) देवि ! अहमिदानी ते पतिश्च पदातिश्च । तद् यावत् कुतोऽपि शीतमम्भः समानयामि तावत् तिलकतरुतले तिष्ठ । ( दमयन्ती तथा करोति) १. आर्यपुत्र ! सुखावस्थानामेते कौतूहल कारिणः दुःखावस्थानां पुनविशेषतः सन्तापकारिणः । २. आर्यपुत्र ! परिश्रमेण तृषिताऽस्मि । ३. आर्यपुत्र ! किं न्वेतत् ! Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽङ्कः [६१ ( परिक्रम्य सखेदाश्चर्यम् ) क तद् भ्र विक्षेपक्षिपितनृपतिक्ष्मापतिपदं व चावस्था सेयं मृगमिथुनलीलायितवती ! न यो वाचः पात्रं भवति न दृशोर्नापि मनस स्तमप्यर्थ पंसा हतविधिरकाण्डे घटयति ॥११॥ भवतु, विलोकयामि क्वचिदपि पयः । (विलोक्य ससम्भ्रमम् ) कथं तापसाश्रम इव ! (सम्यगवलोक्य) कथं तापसः सदृशस्तस्य लम्बोदरनाम्नः कापालिनः। यदि वा नासौ सः । अयं खलु कुब्जः खञ्जश्च । (ततः प्रविशति तापसः) तापसा-निविण्णोऽस्मि मार्गविलोकनेन । परमद्यापि न स दुरात्मा समायाति । अवश्यानुष्ठेयश्च गुरोरादेशः । तदितः सरःसेतो स्थित्वा प्रतिपालयामि । (साशङ्कम् ) ध्रुवमसौ मामुपलक्षयेत् । भवतु, वेषान्तरेण सञ्चरे । (विलोक्य) कथं प्राप्तः पापीयानथ सा दुर्विनीता क १ । भवतु पुरो ज्ञास्यामि । (अभिमुखमुपसृत्य) स्वागतमतिथये । राजा-नमो मुनये। तापसः-भद्राणि पश्य । (अपवार्य विपरीतलक्षणया) महाभाग ! वपुलक्षणविसंवादिनी ते दशा । तत् कथय कोऽसि १ कथं दुःस्थावस्थः ? Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे राजा - ( सव्रीडम् ) मुने ! भूपतिचरोऽस्मि | तापसः - ( सादरमिव ) तर्हि सुतरामतिथयः स्थ । तदावेदय किमातिथेयमनुतिष्ठामि ? २] राजा—बहुद्दश्वानस्तपस्विनस्तत् कथयत विदर्भपथाभिज्ञानानि । एतदेव नः साम्प्रतमातिथेयम् । तापसः - किं तत्र वः । राजा -वशुरकुलं तत्र नः । तापसः -- तत्र वः सधर्मचारिणी ? राजा - अत्र नः सधर्मचारिणी । < तापसः - ( सविचिकित्समिव ) स्त्रीसङ्गनिगडितो भवान् नाहः कामचारस्य । अपि च राज्यभ्रंशः स्त्रीसङ्गश्चेति महती व्यसनपरम्परा । राजा - (स्वगतम् ) सत्यमाह तापसः । भुजमात्रपरिच्छदेर्यत्रैव तत्रैव यथैव तथैव स्वैरमास्यते । स्त्रीबद्धानां कुतः कामचारः १ तापसः - अनुचितं गृहस्थकृत्य चिन्तनं तपस्विनः । तथापि साप्तपदीनसौहार्दोपहृतहृदयो महाभागं किमप्यनुशास्मि । राजा - अनुगृह्णातु महात्मा । तापसः - भ्रष्टराज्यस्य भवतः श्वशुरकुलगमनमपत्रपाकारि प्रतिभाति । त्वमप्यधिमनसमालोचय पावहं मे यद्ययमर्थः समर्थः प्रदर्शयितुमौचितीम् । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽङ्कः [९३ राजा-(स्वगतम् ) इदमप्यस्य वचनं तथ्यं पथ्यं च । तदानीं स्वयंवरे तथा चमूचक्रेण गत्वा पुनरिदानों दमयन्तीमात्रपरिच्छदः कुण्डिनं प्रविशंस्तत्रत्यपौरजनानामपि हास्यपात्रं भविष्यामि । तदियमेव का देवी ज्ञातविदर्भपथाभिज्ञाना कुण्डिनमुपसर्पतु । (प्रकाशम् ) भगवन् । सौहृदसदृशमनुशिष्टवानसि । तापस:-( सहर्षमात्मगतम् ) अनुष्ठितस्तावदेको गुरोगदेशः । परमितो द्वितीयमनुतिष्ठामि । ( ऊधमवलोक्य प्रकाशं सभयम् ) कथं ललाटन्तपस्तपनः १ अतो वर्तते सन्ध्याविधिः । महाभाग ! अनुजानीहि मां मध्याह्नसन्ध्यासेवनाय । अयं चोत्तरेण पर्वतमकुटिलः कुण्डिनस्य पन्थाः (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः) राजा---(अस्मात् सरसः कमलदलपुटकैः सलिलमाहरामि, स्वयं च पियामि ( सखेदम् ) धिग् मां व्यसनोपपातविस्मृतौचित्याचरणम् । अनुपशान्तपिपासायां देव्यां कथमहं पयस्यामि ! भवतु, जलमादाय तत्र गच्छामि । (नथा कृत्वा परिक्रम्य) कथमियं मयाऽपहातव्या। आः ! ज्ञातम्, निद्रायितां सन्त्यज्य व्रजामि । (विलोक्य) इयं देवी, देवि ! इदं चारि उपस्पृशतु देवी । (दमयन्ती उपस्पृशति) देवि ! अयं ते विदर्भषु वजन्त्याः (पुनः सशङ्कम् ) अयं विदर्भेषु गच्छतामध्वनीनामकुटिलः पन्थाः । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे 1 दमयन्ती - ( सभयमात्मगतम्) 'हा ! हदम्हि मंदभाइणी । किं मं परिच्चइदुकामो अज्जउत्तो, जं एवं जंपेदि ? अहवा पडिहदममंगलं । एयं खु पिवासाखिन्नकंठस्स अज्ज - उत्तस्स वयणखलिदं । राजा - देवि ! यद्यपेतपरिश्रमा, तदा पुरः प्रचलितु e४ ] यतस्व । '' दमयन्ती - अज्जउत्त! निद्दायंति मे लोयणाई, ता खणं इह ज्जेव सहस्सं । राजा - ( सहर्षमात्मगतम् ) प्रियं नः ( प्रकाशम् ) देवि ! प्रश्रान्ताऽसि तद् विनोदय निद्रया क्षणं चङ्क्रमणश्रमम्, अहमपि निद्रास्यामि । दमयन्ती - (स्वगतम्) मा णाम मं पसुतं परिचई कयाइ गच्छे, ता अत्तणो चीवरेण अज्जउक्तं परिवेढिय निद्दाएमि । ( तथा कृत्वा शयनं नाटयति ) १. हा ! हताऽस्मि मन्दभागिनी । किं मां परित्यक्तुकाम आयें पुत्रो यदेवं जल्पति ? अथवा प्रतिहतममङ्गलम् । एतत् खलु पिपासाखिन्नकण्ठस्य आर्यपुत्रस्य वचनस्खलितम् । २. आर्यपुत्र ! निद्रायेते मे लोचने, ततः क्षणमिहैव शेष्ये । ३. मा नाम मां प्रसुप्तां परित्यज्य कदाचिद् गच्छेत्, तदात्मनश्वीवरेण आर्यपुत्रं परिवेष्ट्य निद्रामि । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमोऽङ्कः राजा-(विलोक्य ) कथं चरणचङ्क्रमणगाढप्ररूढगात्रपरिश्रमेण क्षणादेव निद्राप्रकर्षमधिरूढा देवी । तदारभ्यते चण्डालकुलालङ्करणं कम। ( उत्थातुमिच्छति । साशङ्कम् ) कथमिति निबिडमापीड्य मामियं विरहकातरा शेते । तपम्विनी मामवधारयति मुखमधुरमवसानदारुणं कालकूटफलम् । सरले ! मुश्च मुश्च त्रिजगत्परितापावापहेतुः सर्वभक्षी नलरूपेणानलोऽस्मि । अपि च भत वत्सले ! विश्वासघातिनमकृत्यकरं श्वपाकं मा मा स्पृश श्लथय दो परिरम्भमुद्राम् । अस्मादृशामकरुणैकशिरोमणीनां सर्वसहाऽपि विरमत्यनुषङ्गपापात् ॥१२॥ (शनैर्दोःपरिरम्भमुन्मुच्य साशङ्कम् ) कथमम्बरेण परिवेष्टितोऽस्मि । ( विहस्य ) अयि यत्नपरे। किमीदृशैः प्रयत्नैरुपरुध्यति क्रूरकर्मपटीयान् नलः १ यस्त्रिजगदन्धनेन प्रेम्णा न बध्यते तस्य मृणालतन्तुपेशलमम्बरं किमादधीत ? एष तरवारिणा च्छित्त्वा गच्छामि । (कृपाणं प्रति ) सखे! दर्शय फलमात्मसन्निधानस्य । ( सरोषम् ) कथं कृपालुरिव विलम्बसे ? किञ्च नलस्यासिरसि दयालुश्चेति व्याहतं चरितम् । अपि चधनं प्रेमग्रन्थि सदयमपि चिच्छेद हृदयं । कृपा केयं ब्रूहि स्फुरति हृदि निस्त्रिंश ! भवतः ? Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे यदद्यापि च्छेत्त न सहसि विदर्भेन्द्रतनयानितम्बस्तम्बाङ्कप्रणयिपरिधानांशुकमिदम् ॥ १३॥ आः! ज्ञातम् , हस्तं सखायमपेक्षते । ( दक्षिणहस्तं प्रसार्य सरोषम् ) त्वया तावत् पाणिः प्रसभमुपगूढः परिणये त्वमेवास्याः पीनस्तनजघनसौरभ्यसचिवः। ततश्छेत्तुं वासः कृशकृप ! कृपाणं कर ! धरं-- स्त्रुटन्मर्मोत्सङ्गः कथमहह ! नोपैषि विलयम् ? ॥१४॥ अपि च-- देवीनीविच्छिदालोल ! निर्दाक्षिण्यशिरोमणे । सवाच्यः स विरिश्चोऽपि हस्त ! त्वां दक्षिणं सृजन ॥१५॥ (विमृश्य ) यदि वा द्यूतकारस्य न नामाकृत्यमस्ति ते । आः ! गृहाण कृपाणं हुं हुं विधेहि द्विधांशुकम् ॥ १६॥ ( अंशुकं द्विधाकृत्य शनैरुत्थाय ) भ्रातश्चूत ! वयस्य केसर ! सखे पुन्नाग ! यामो वयं मा स्मास्माकमनायकार्यपरता जानीत यूयं हृदि । इतेच्छा क च कूबरस्य निषधाभतु : क चायो वैदर्भीत्यजनं क चैष निखिलः कल्पः प्रसादो विधेः ॥१७॥ भवतु, चरमं देवीवदनेन्दुविलोकनं कृत्वा बजामि । (विलोक्य सास्रम् ) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमोऽङ्कः [९७ स्पृशति न मणिज्योत्स्नाच्छन्नं निशान्तजुषः पुरा सुचिरमनिलोऽप्यङ्ग यस्या नलादिव शङ्कितः । विगतशरणा झुत्क्षामाङ्गी पटचरधारिणी वनभुवि हहा ! सेयं शेते विदर्भपतिप्रसूः ॥१८॥ हे देवि ! एष कर्मचण्डालो नलः प्रयाति । (कतिचित् पदानि दत्त्वा सरोषमात्मानं प्रति ) आः क्षत्रियापसद ! पुरुषसारमेय ! भन जाल्म ! श्वपाकनायक ! कृपाश्किल ! हतनल ! कथमिमामेकाकिनीमात्मैकशरणां सधमचारिणीमस्मिन् गहने वने सन्त्यज्य प्रचलितोऽसि ? भवतु, वनदेवताः शरणं कृत्वा वजामि । (प्रतिनिवृत्य दिशोऽवलोक्य ) कञ्चित् काननदेवताः ! शृणुत मे यस्या वपुः कल्पयन् जातः शिल्पिगणाग्रणोः कमलभूः सेयं विदर्भात्मजा । अस्याः कर्कशकर्मणा प्रियतमाभासेन निष्कारणं त्यतायाः शरणं स्थ मा स्म नलवन्निस्त्रिंशतां गच्छत ॥१६॥ (पुनरञ्जलिं बद्धवा ) निद्राच्छेदे व दयित ! गतोऽसीति तारं वदन्ती विन्यस्यन्ती दिशि दिशि दृशं बाष्पकल्लोललोलाम् । देव्यः ! सर्वा वनवसतयो मातरः ! प्रार्थये व स्तत कर्तव्यं कलयति तथा कुण्डिनाध्वानमेषा ॥२०॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] नलविलासे (नेपथ्ये) 'अज्ज ! एवं शिशिलशलिलपूलिदं शलं, ता एहि सत्थवाहस्स गडय कहेमि । राजा-कथं पक्कणवासी कोऽप्यागच्छति (साशङ्कम् ) यदि कथमप्येषा शबरम्यास्य कोलाहलेन निद्रामपजह्यात् तदा मामववध्नीयात् । तद् व्रजाम्यहम् । देवि ! तदानी चरममाभाष्यसे । वनदेवतास्ते शरणम् । एष पापिष्ठश्रेष्ठो निस्त्रिंशशिरोमणिः परवञ्चनाचतुरः क्षत्रियापदेशेन ब्रह्मराक्षसः क्रूरकर्मा चाण्डालचक्रवर्ती नलः प्रयाति । ( इत्यभिधाय पूत्कुर्वन् निष्क्रान्तः) (ततः प्रविशति पुरुषः ) पुरुषः- अज्ज ! एवं शिशिलशलिलपूलिदं शलं ! ता एहि सत्थवाहस्स कहेमि (परिक्रम्य विलोक्य च) कथं इथिका ! अम्मो ! अदिलूविणी ! हीमाणहे कधं अल्लणे एगा१. आर्य ! एतत् शिशिरसलिलपूरितं सरः, तदेहि सार्थवाहाय गत्वा कथयामि । २. आर्य ! एतत् शिशिरसलिलपूरितं सरः, तदेहि सार्थवाहाय कथयामि । कयं त्री: ! अहो ! अतिरूपवती, हा ! कथमरण्ये एकाकिनी ? मैनां कोऽपि बुभुक्षाकरालो राक्षसो भक्षको वा खादयेत् (?) । तदुत्थापयाम्यहम् । आर्ये ! आर्ये ! उत्तिष्ठ उत्तिष्ठ । कथमतिनिद्रया मृतेव न शृणोति शब्दम् ? भवतु, उत्पादयतामन्यत्र नयामि । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्कः [ ९९ गिणी (सदयम् ) मा एदं केवि मुक्खाकलाले लक्खसे भिक्ख से * रा खाए । ता उत्थावए हगे । अज्जे अज्जे ! उत्थेहि उत्थेहि ( सरोषम् ) कहं अनिदाए मुदा विव न सुणेदि श १ भोदु, उप्पाडिय एवं अन्नत्थ नएमि । ( तथा कृत्वा निष्क्रान्तः ) ॥ पञ्चमोऽङ्कः ॥ षष्ठोऽङ्कः । ( ततः प्रविशति नलः > नल: - ( दमयन्तीमनुस्मृत्य सानुतापम् ) राज्यं हारितवानहं नहि नहि व्याधत्त सर्व विधिदेवीं हाऽत्यजमस्मि तत्र विपिने यद्वा स्त्रियो बन्धनम् । तां पश्येयमहं वनेऽथ गहने तस्याः कुतः प्राणितं ही में नो न दया दुरोदरकृतः का वा त्रपा का कृपा ? ॥ १ ॥ ( पुनः सखदेम् ) नास्मार्ष नयमस्मि नाधिमनसं प्रेमाणमाशिश्रियं नाका कुलमुज्ज्वलं हृदि कृपां पापो न नाऽजीगणम् । तां तस्मिन् गहने वने विरहयन् कर्माचरं दुजैर विग् मां नाहमवेक्षणीयवदनो नार्हामि पङ्क्तिं सताम् | २|| रक्खोए । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] नलविलासै __अहह ! कथमनिमित्तशत्रुदुरात्माऽहमात्मैकशरणां ता तपस्विनीमपाकृतवान् । (ऊर्ध्वमवलोक्य ) न प्रेम नाप्यभिजनं न गुणं न सेवा चित्तं दधत्युपकृति किल ये श्रयन्तः । किं दैव : नैव निहता भवता हतास्ते गर्भस्थिताः प्रसवमात्रभृतोऽथ माः ॥३॥ (स्मृत्वा चिन्तम् ) स्फुरति तिमिरे घूकवाते धनत्यतिभैरवं ककुभि ककुभि व्यालानीके विसर्पति सध्वनौ । चरममचलं याते पत्यो रुचां चकितेक्षणा शरणमधिकं भीरुदेवी करिष्यति किं वने ॥४॥ (विमृश्य ) तातनिषधेन भुजगरूपमास्थाय समयोचितमनुशिष्टोऽस्मि । इदमप्य तिरमणीयमाचरितं तातेन यन्मम रूपं विप सितम् । अनुपलक्षितरूपो हि सुखमेवाहमिदानीमयोध्याधिपतेरभ्यण स्पकारादिकर्माण्यादधानः स्थास्यामि । (साश्वयम् ) अहह ! पश्य कीदृशी सुरसमसमृद्धिरासादिता तातेन । सर्वथा भूभुवःस्वस्त्रयेऽपि नासाध्यमस्ति तपसाम् । ( सविषादम् ) अहो ! मे महान् प्रमादः । नन्वहं जीवलकेन महीपतेदेधिपर्णस्याज्ञया विदर्भागतभरतैः प्रयुज्यमानं नाटकमवलो Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्कः [ १०१ कितुमाकारितोऽस्मि । तद् बजामि त्वरितम् । अपि नाम नटेभ्यः कापि दमयन्तीप्रवृत्तिरपि लभ्येत । (परिक्रामति । नेपध्यमवलोक्य ) कथम यमिक्ष्वाकुकुलतिलको देवो दधिपर्णः सपणेनाम्नाऽमात्येन सह जल्पन्नास्ते । जीवलकोऽप्यत्रैव तिष्ठति । भवतु प्रणमामि । ( तत: प्रविशति यथानिर्दिष्टो राजा ) राजा-अमात्य ! पश्याकृतिविरुद्धमस्य वाहुकनानो वैदेशिकस्य कलासु कौशलम् । किमेतस्य सर्वाङ्गवक्रस्य तदिदमश्वलक्षणवलक्षण्यम्, सोऽयं सूर्यपाकविधिः, सेयमपरास्वपि क्रियासु चातुरी सम्भवति । सपर्ण:-अस्मिन् नयनोद्वेगाञ्जने कलाकलापमावपत्रसंशयं विरश्चिन्तिः । जीवलक:-देव ! बाहुकः प्रणमति । राजा-बाहुक ! इत आस्यताम् । ( नलः प्रणम्योपविशति) (स्मृत्वा) किमयापि चिरयन्ति रङ्गोपजीविनः ? जीवलक:-भो भरतपुत्राः ! प्रस्तूयतां नाट्यम् । (प्रविश्य ) सूत्रधारः-नलान्वेषणनामप्रवन्धाभिनयावधानाय महाराजं दधिपर्णमभ्यर्थये ।। नल:-~-(स्वगतम् ) कोऽयं नलः ? किमहमेव ? यदि चाऽपारे जगत्पारावारे न दुर्लभो नामसंवादः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] नलविलासे राजा-एष सावधानोऽस्मि । ततः प्रस्तूयताम् । ( नेपथ्ये ) 'हा अज्जउत्त ! परित्तायाहि मं, भायामि एगागिणी करालवालविहुरे रनकुहरे। नल:-(स्वगतम् ) मयेव दुरात्मना केनाप्येकाकिनी गहने वने किं प्रिया परित्यक्ता ? राजा-अमात्य ! प्रथमेऽपि नाट्यारम्भे कष्टमतिकरुणो रसः। (नेपथ्ये ) अये पिङ्गलक ! तामनुकूलय तपस्विनी येन सार्थवाहान्तिकं नयामः। सूत्रधारः-यदमी दमयन्ती-गन्धार-पिङ्गलकनेपथ्यधारिणो रङ्गोपजीविनः संरभन्ते, तज्जाने प्रवृत्तं नाटयम् । तदहमपि कार्यान्तरमनुतिष्ठामि । ( अञ्जलिं बद्ध्वा ) जयति स पुरुषविशेषो नमोऽस्तु तस्मै त्रिधा त्रिसन्ध्यमपि । स्वप्नेऽपि येन दृष्टं नेष्टवियोगोद्भवं दुःखम् ॥ ५॥ (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः) (ततः प्रविशति दमयन्ती गन्धारः पिङ्गलकश्च ) १. हा आर्यपुत्र ! परित्रायस्व मां, बिभेमि एकाकिनी करालव्या लविधुरेऽरण्यकुहरे। - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्कः [१०३ गन्धारः-आयें ! अलमतिप्रलपितेन । आगच्छाचलपुरयायिनो धनदेवनाम्नः सार्थवाहस्याभ्यणम् । दमयन्ती- 'अज्ज ! अत्तणो भत्तारं गवेसइस्सं । गन्धारः-आर्य ! कस्ते पतिः ? नल:-(ससम्भ्रममात्मगतम्) किमेषाऽभिधास्यति ? दमयन्ती-'निसढाहिवदी नलो । नल:--(स्वगतम् ) आ: पाप ! नलहतक ! विलीयस्व । किमतः परं प्राणिषि १ ध्रवमुपरता देवी । कथमपरथा नाट्येषु तत्प्रतिविम्बेन व्यवहारः। पिङ्गालक:-(सरोषम् ) 'शिशिले ! कि तेण कूलकम्मणा चंडालेण कलिस्ससि १ ता सत्यवाहपासं पहि। राजा--(सहर्षम् ) साधु भो भरत ! साधु ! स्वप्नेऽप्यदृश्यवदनोऽसौ येनेयमेकाकिनी परित्यक्ता । नल:-(सरोषमिव ) अस्पृश्योऽश्रोतव्योऽग्राह्यनामा चेत्यप्यभिधीयताम् । गन्धारः-तर्हि गवेषय क्वापि । . १ आर्य ! आत्मनो भर्तारं गवेषयिष्यामि । २. निषधाधिपतिनलः । ३. शिशिरे ! किं तेन क्रूरकर्मणा चण्डालेन करिष्यसि ? तत्सार्थ वाहपार्वमेहि। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] नलविलासे दमयन्ती - 'एदसि सरे मह निमित्तं ससिलमा • दु गदो भविस्सदि । ता इत्थ गवेसिस्सं । I गन्धारः - वाले! मूढाऽसि । यस्त्वां सुप्तामपजहाति, स किं त्वन्निमित्तमम्भः समानयति ? दमयन्ती - अध मा एवं भण । अहं पाणेहिंतो वि अज्जउत्तस्स पियदरा । राजा - परित्यागेनाप्यमुना निवेदितं त्वयि भर्तु : प्रेम | दमयन्ती - ( परिक्रम्य ) कथं एदं सरो, न उण अज्जउत्तो दीसदि । भोदु एदं चक्कवायघरणिं पुच्छामि । सहि ! चक्कवायदइए ! दइयं किं मह न साहसे सहसा ? पियविरहियाण दुक्खं पच्चक्खं तुज्झमणुनिच्चं ॥ ६ ॥ राजा - उचितमुक्तवती । अनुभूतं न यद् येन रूपं नावैति तस्य सः । न स्वतन्त्रो व्यथां वेत्ति परतन्त्रस्य देहिनः ॥ ७ ॥ १. एतस्मिन् सरसि मम निमित्त सलिलमानेतुं गतो भविष्यति । तदत्र गवेषयिष्यामि । २. अथ मंवं भण | अहं प्राणेभ्योऽपि आर्यपुत्रस्य प्रियतरा । ३. कथमेतत् सरो न पुनरार्यपुत्रो दृश्यते ? भवतु एतां चक्रवाकगृहिणीं पृच्छामि । ? सखि चक्रवाकदयिते ! दयितं किं मम न कथयसि सहसा प्रिय विरहितानां दुःखं प्रत्यक्षं तवानुनित्यम् ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्कः [ १०५ दमयन्ती-(विमृश्य) 'पियपणयगविदा ण पडिवयणं पडिच्छदि । (सरोषम् ) हंजे रहंगिए ! केरिसो दे एस पियपणयदप्पो ? अहं पि पुरवं ईदिस यासं । संपदं ज्जेव अणाहा जादा । गन्धार:-(सास्रम् ) आर्य ! किमेषा तिरश्वी वराकी जानाति ? दमयन्ती- ता अन्नत्थ पुच्छिस्सं। (विलोक्य संस्कृतमाश्रित्य च) भातः कुञ्जरपत्नि ! तात हरिण ! भ्रातः शिखण्डिन् ! कृपा कृत्वा ब्रूत मनाक् प्रसीदत कृतो युष्माकमेषोऽञ्जलिः। दृष्टः कापि गवेषयनिह वने भीमात्मजा नैषधो भूपालः सरणिं सृजनविरलै;ष्पोर्मिभिः पङ्किलाम् ॥ ८॥ पिङ्गालकः- 'अज्जे, कीस उणं तेण पदिणा तुम पडिचत्ता सि ? दमयन्ती-(सबाष्पम् ) अज्ज ! दोसं न याणामि । १. प्रियप्रणयविता न प्रतिवचनं प्रतीच्छति । सखि रथाङ्गि ! कीदृशस्त एष प्रियप्रणयदर्पः ? अहमपि पूर्वमीदृश्यासम् । साम्प्रतमेवानाथा जाता। २. तदन्यत्र प्रक्ष्यामि। ३. आर्ये ! किं पुनस्तेन पत्या त्वं परित्यक्ताऽसि ? ४. आर्य! दोषं न जाने । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे अप्पा समप्पिओ पढमदंसणे वणमिणं च सह चलिया। सुवणेमि पई अन्नं न महेमि तहा वि परिचत्ता हा अहवा पडिहदममङ्गलं । नाहं अज्जउत्तेण परिचत्ता, किं तु मह दुक्खविणोयणत्थं परिहासो कदो। (पुनराकाशे ) 'एगागिणी अहं भीलुगा य निम्माणुसं च वणमिणमो। ता एहि एहि पिययम ! अलाहि परिहासकीलाए ॥१०॥ (प्रतिरवमाकर्ण्य आकाशे) किं मं वाहरसि ? एस आगच्छामि । (सरभसं घावति) गन्धारः-( सवाष्पम् ) आयें ! प्रतिश्रुतिरियम् । दमयन्ती--(सपदि स्थित्वा) अज्ज ! एसा पड़सुया ? गन्धार:--एषा प्रतिश्रुत् । आत्मा समर्पित: प्रथमदर्शने वनमिदं च सह चलिता। स्वप्नेऽपि पतिमन्यं न काङक्षामि तथापि परित्यक्ता ॥९॥ अथवा प्रतिहतममङ्गलम् । नाहमार्यपुत्रेण परित्यक्ता, किन्तु मम दुःखविनोदनार्थं परिहासः कृतः । १. एकाकिन्यहं भीरुका च निर्मानुषं च वनमिदम् । तदेहि एहि प्रियतम ! अलं परिहासक्रीडया ।। १० ।। २. किं मां व्याहरसि ? एष आगच्छामि । ३. आर्य ! एषा प्रतिश्रुतिः ? Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्कः [ १०७ दमयन्ती:--(स्वप्रतिच्छायामालोक्य, सहासमुचैःस्वरम् ) 'दिट्टिया दिट्ठिया अज्ज उत्त ! दिह्रो सि दिट्ठो सि कहिं दाणिं गच्छसि १ (पुनः सरमसं धावित्वा ससीत्कारं च स्थित्वा गन्धारं प्रति सबाष्पम् ) अज्ज ! दम्भंकुरेहिं विद्धो मे चलणो। ता अवणेहि एदो अहवा चिट्ठ सयं जजेव अवणिस्सं । नाहं परपुरिसं फुसेमि । राजा-(सरभसमुत्थाय) भगवति ! पतिव्रते! नमस्ते । जीवलक:-देव ! किमिदम् ? सिंहासनमलङ्क्रियताम् । ननु कूटनटघटनेयम् । ( राजा सव्रीडमुपविशति ) नल:--( सदुःखमात्मगतम् ) श्रुते ! बाधिय स्वं कलय विभृतां किञ्च नयने! युवामन्धीभाव द्रुतमनगदङ्कारविषयम् । शृणोम्यस्यास्तारं न रुदितमहं येन तदिदं न वा पश्याम्येतां विरहहरिणों हारिललिताम् ॥११॥ गन्धारः--( सवाष्पम् ) अस्याः क्षोणि ! विधेर्वशाद भनवां संशिक्षयन्त्यास्त्वयि भ्रान्ति किं चरणौ चिरादतिखरैदर्भाङ्कुरैविध्यसि ? १. दिष्टया ! दिष्टया ! आर्यपुत्र ! दृष्टोऽसि दृष्टोऽसि, कुत्रेदानीं गच्छसि ? आर्य ! दर्भाङ कुरैविद्धो मे चरणः । तदपनयेतोऽथवा तिष्ठ, स्वयमेवापनेष्यामि । नाहं परपुरुषं स्पृशामि । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] नलविलासे व्यापत्तौ वनितासु कतु मुचितस्ते पक्षपातः स्त्रियाः पारुष्यं पुरुषः स नाम बिभृतां क्षोणीपतिनैषधः ॥ १२ ॥ सपर्णः -- ( सरोषमुत्थाय ) आः ! शैलूषापसद ! येनेयं पतिव्रता गहने वने निर्निमित्तमन्त्राद्यनाम्ना चण्डालेन परित्यक्ता, तमपि पापीयांसं क्षोणीपतिमभिदधासि ? राजा - अमात्य | स्वस्थो भव, नाटकमिदम् । ( सपर्ण: सलज्जमुपविशति ) नलः -- ( राजानं प्रति ) एनामरण्यभुवि मुक्तवतोऽपि दोषोन्मेषो नलस्य न मनागपि किन्तु तेषाम् । राजा -- ( सभयम् ) येऽस्या एतामवस्थामवलोकयन्ति ? नहि नहि नल: ―― यैरेष कल्मषमयो न कृतस्तदानी - मेवाग्निसादपन यैर्हत लोकपालैः ||१३|| राजा - ( सरोषम् ) बाहुक ! वृथा भगवतो लोकपालानुपालम्भसे । ननु नलं पश्यन्तोऽपि पापेनोपलिप्यन्ते लोकपालाः, किं पुनर्व्यापादयन्तः १ पिङ्गलकः - ( सास्रम् ) 'अज्जे ! न य से पाविट्ठ तुह पदी, किं पुण एसा परिच्छाया । १. आयें ! न च स पापिष्ठस्तव पतिः, किं पुनरेषा प्रतिच्छाया । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्कः दमयन्ती-- 'अज्ज ! एसा मम जनेव पडिच्छाया, न उण अज्जउत्तो १ ता किं सच्चकं ज्जेव परिचत्तम्हि ? ( आत्मानमवलोक्य सखेदम् ) मुक्ताहार ! विहारमातनु ननु स्वैरं क्वचित् साम्प्रतं पुष्पापीड ! किमद्य पीडयसी मे सीमन्तसीमाङ्गणम् ? मञ्जीराणि ! रणन्ति किं श्रवणयोः पुष्णीथ दुःस्थां व्यथां ? त्यक्ता तेन यदर्थमर्थितवती युष्मासु मैत्रीमहम् ॥१४॥ राजा-(सरभसमुत्थाय) पतिव्रते ! पतिव्रते ! विशरारूणि प्रायेण शरीरिप्रमाणि । विशेषतस्तव तस्य भतु रकुलीनस्य । तदलममुना गवेषितेन । अस्माकमभ्यणमुप॑हि । इतः प्रभृति नस्तत्रभवती देवता वा माता वा सुता वा । सपर्णः-देव ! कोऽयं व्यामोहः ? ननु विज्ञप्तं मया देवाय नटविभीषिकेयम् । सिंहासनालङ्करणेन प्रसादः क्रियताम् । (राजा सविलक्षमुपविशति) नल:---(सखेदमात्मगतम्) मातः ! प्रसीद वसुधे ! विहितोऽञ्जलिस्ते पातालमूलपथिकं विवरं प्रयच्छ । १. आर्य ! एषा ममेव प्रतिच्छाया न पुनरार्यपुत्रः ? तत् कि सत्यमेव परित्यक्तास्मि ? Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] नलविलासे आशीलताशतघनेषु फणीन्द्रवक्त्रकोणाश्रमेषु ननु येन भवामि शान्तः ॥ १५ ॥ दमयन्ती-(किञ्चित् परिक्रम्य) 'कथं मज्भण्हो वदि ? न सक्कमि दिणेसरतावसंतावेण परिक्कमिदु । (ऊर्ध्वमवलोक्य सबाष्पम् ) हा देव दिणेसर ! किं दहेसि किरणेहि देहदहणेहि ? जइ सो निसढाहिवई अदयमणो किं तुहं पि तहा ॥१६॥ राजा-( सरभसं दमयन्ती प्रति) आः स्त्रीरत्न ! पतिव्रते ! शठमतेः क रस्य दुष्टात्मनः पत्युस्तस्य पुनः पुनः सकलुषां मा मा गृहाणाभिधाम् । तन्नामश्रवणाद् वयं च निखिला पर्षच्च सेयं नटा श्चैतेऽसौ ननु बाहुकश्च महता पापेन संलिप्यते ॥१७॥ नल:--(सरोषम् ) किमिदमपरिज्ञातमुच्यते देवेन । क्र रचक्रवर्ती नलोऽस्मि, योऽहमकाण्डे देवीमेकाकिनी गहने वने निलज्जः सन्त्यजामि । तस्य महत्यपि पाप्मनि का किलाशङ्काः? १. कथं मध्याह्नो वतते ? न शक्नोमि दिनेश्वरतापसन्तापेन परि क्रमितुम् । हा देव दिनेश्वर ! कि दहसि किरणैर्देहदहनैः ? यदि स निषधाधिपति रदयमनाः किं त्वमपि तथा ? ॥१६॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्क राजा - ( ससम्भ्रमम् ) कस्त्वमसि ? नलः -- (स्वगतम् ) कथं विषादमुच्छलेन मयाssत्मा प्रकाशितः ! भवतु, ( प्रकाशम् ) बाहुकसूपकारोऽस्मि । राजा - तत् किं नलोऽस्मीत्युक्तवानसि ? नल: - किमहं नलोऽस्मीत्युक्तवानुतानुक्तमपि नाट्यरसाकुलितचेता देव एवमशृणोत् इति सन्देहः । [ १११ राजा - धुत्र महमस्मि भ्रान्तः । अपरथा क्व स महाराजनिषधस्यापत्यं दर्शनीयरूपो नलः क्व भवान् सर्वाङ्गविकृताकृतिः । नलः -- ( ऊर्ध्वमवलोक्य स्वगतम् ) कल्पान्तकल्पमुपकल्प्य महो दिनेश ! मां भस्मसात कुरुतरामचिराय पापम् । विश्वासघातजनितेन न चेदनेन पापेन हन्त ! नियतं परिगृह्यसे त्वम् ॥ १८ ॥ पिङ्गलक :- 'अज्जे ! जदि दिणेशल किलणेहिं अदि चिलं संताविदा सि, ता एदम्मि सहयालनिकुञ्ज पविश । गन्धारः -- ( पुरो भूत्वा ) इत इत आर्या । १. आयें ! यदि दिनेश्वर किरणं रतिचिरं सन्तापिताऽसि, तदेतस्मिन् सहकारनिकुञ्जे प्रविश । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] नलविलासे (सर्वे परिकामन्ति) ( विलोक्य सभयं निवृत्य च ) आयें ! निवर्तस्व निवर्तस्व । चिरप्ररूढगाढबुभुक्षाक्षामकुक्षिः प्रतिनादमेदुरेण वेडानिनादेन समन्ततः शोषयन् वन्यस्तम्बेरमाणां मदजलानि करालजिह्वाजटालवक्त्रकुहरस्तरुणगुञ्जापुञ्जारुणेक्षणः प्रतिक्षणं लोललागूलदण्डेन साटोपमाच्छोटयनवनिपीठमेकः केशरिकिशोरः सहकारनिकुञ्जाभ्यन्तरमधिवसति । दमयन्ती- 'अज्ज ! मज्झे केसरी चिट्ठदि ? दिडिया करिस्सदि मे दुक्खमोक्खं । (पिङ्गलको विलोक्य सभयं नश्यति) दमयन्ती- भोदु, उवसप्पामि णं । नल:-(विलोक्य ससम्भ्रममात्मगतम् ) कथं देवों पश्चाननो व्यापादयितुमपक्रान्तः! हाः! हतोऽस्मि । (विमृश्य) वीराग्रणीः खल्बसौ तदमु सामप्रयोगेण वारयामि । (स रभसमुत्थाय) : एकाकिन्यवला वियोगविधुरा घोरान्तरप्रान्तरक्षोणीपादविहारनिष्ठितव पुस्त्वग्मांसरक्तस्थितिः । अस्यां कालकरालवत्रकुहरे प्रस्थापितायां हरे ! किं शौयं भवतोऽतिशायि भविता को वा बुभुक्षाक्षयः ? ॥१६॥ १. आर्य ! मध्ये केसरी तिष्ठति ?दिष्टया करिष्यति मे दुःखमोक्षम् । २. भवतु, उपसर्पाभ्येनम् । - Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्कः [ ११३ ( विलोक्य ) कथं साम्ना न विरमति १ भवतु दान प्रयोगं दर्शयामि । अथ तीव्रक्षुधा सत्यमौचित्यमतिवर्तते । मुञ्चैनां तहिं मां भुङ्क्ष्व पतितोऽस्मि तथा (वा) ऽग्रतः ॥ २० ॥ ( इति रङ्गभूमौ पतितुमिच्छति ) राजा - अलमलमतिसम्भ्रमेण । बाहुक ! ननु नाट्य मिदम् । नल: - ( सलजमात्मगतम् ) किमिदं मया शोकव्याकुलेन व्यवसितम् ! भवतु । ( प्रकाशम् ) देव ! करुणारसातिरेकेण विस्मारितोऽस्मि । दमयन्ती - ( उपसृत्य कण्ठीरवं प्रति ) मा वा प्रीणय नैषधस्य नृपतेः काञ्चित् प्रवृत्तिं दिशनात्मानं यदि वा दिवाकरकरे भृ ष्टेन देहेन मे । aratee पथाविमौ मम मनःप्रीत्यै ततस्ते प्रियं द्वावप्यद्य यत् पुष्णात्य चिरात् तदाचर हरे ! मा स्माभिशङ्कां कृथाः ॥ २१ ॥ ( विलोक्य ) 'कथं एस परम्मुहो जादो ! न किंपि पडिवयणं पयच्छदि । राजा - बाहुक ! ध्रुवमयं मृगारिरेतस्याः पतिव्रतात्रतप्रभावेण प्रतिहतः । १. कथमेष पराङ्मुखो जातो ? न किमपि प्रतिवचनं प्रयच्छति । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] नलविलासे नल:-( स्वगतम् ) दिष्टया स्वयमेव प्रतिनिवृत्तमरिष्टम् । तदहमतः परमुत्थाय नाट्यं निवारयामि । येन मे पुनर्देवीविनिपातदर्शनं न भवति । ( ससंरम्भमुत्थाय साक्षेपम् ) अपारे कान्तारे व्यसनशतकीणे प्रतिदिशं । कियत्कृत्वः सत्वं स्फुरति भृशमस्याः फलति च । नटा ! नाट्य हहो ! तदिह खलु कृत्वोपरमत यतो द्रष्टुं स्त्रीणां वधविधिमयोग्याः क्षितिभुजः ॥२२॥ - सपर्ण:--(विहस्य ) बाहुक ! किमिदं पुनः पुनरात्मनो विस्मरणम्। कथं नाट्यमपि साक्षात् प्रतिपद्यसे १ तद् यथास्थानमुपविश। दमयन्ती- 'कचं एदिणा विन मे दुक्खमोक्खो कदो ! ता एयम्मि सहयारे अत्ताणं उब्बंधिय वावाएमि । (दिशोऽवलोक्य ) हा अजउत्त ! एसा तए निकारणनिकरुजण परिच्चत्ता असरणा दमयन्ती विवजदि। अंबाओ वणदेव १. कथमेतेनापि न मे दुःखमोक्षः कृतः ! तदेतस्मिन् सहकार आत्मानमुद्बध्य व्यापादयामि । हा! आर्यपुत्र ! एषा त्वया निष्कारणनिष्करुणेन परित्यक्ताऽशरणा दमयन्ती विपद्यते । अम्बा वनदेवताः ! कथयतार्यपुत्रायैतन्मम व्यवसितम् । हा ! अम्ब पुष्पवति ! हा! तात भीमरथ ! कुत्रासि ? देहि में प्रतिवचनम् । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्कः [ ११५ याओ ! कधिह अज्जउत्तस्स एदं मह विवसिदं । हा ! अंब पुप्फवदीए ! हा ! ताय भीमरह ! कहिं सि ? देहि मे पडिवयणं । ( लतापाशं कण्ठे बध्नाति ) राजा - ( सरभसमुत्थाय ) भगवति पतिव्रते ! अलमात्मनो विघातेन । सपर्णः -- बाले ! किमिदमकृत्याचरणम् १ जीवलक:- आयें ! नाहँसि नवे वयसि दुरात्मनः स्वपतेर्निमित्तमकाण्डे प्राणान् वरित्यक्तुम् । नल:-( ससम्भ्रममुच्चैः स्वरम् ) देवि देवि ! अलमलमतिसाहसेन । नार्हसि मामात्मनो वधेन दुरात्मानं कलङ्कयितुम् । अपि च निस्त्रिंशस्य निर्मर्यादस्य पापीयसः पत्या - भासस्य मम कृते वृथा सतीचक्रावतंसमात्मानं व्यापादयसि । गन्धारः - ( विलोक्य समयसम्भ्रमम् ) अये पिङ्गल ! पिङ्गल ! छिन्द्धि छिन्द्वि पाशमस्या यावदियमद्यापि श्वसिति । ( पिङ्गलकः सरभसं धावित्वा लतापाशं छिनत्ति । दमयन्ती मूर्च्छिता पतति ) पिङ्गल ! ध्रुवमियमपश्यन्ती प्रियं कापि विपत्स्यते । तदिदानीमुत्पाट्य सार्थवाहाय समर्पयावः ( तथा कृत्वा निष्क्रान्तौ ) गर्भाङ्कः ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] नलविलासे . राजा-परा काष्ठामधिरूढवान् करुणो रसः । सपर्णः-देव ! रसप्राणो नाट्यविधिः । वर्णार्थवन्धवैदग्धीवासितान्तःकरणा ये पुनरभिनयेष्वपि प्रबन्धेषु रसमपजहति विद्वांस एव ते न कवयः। न तथा वृत्तवैचित्री श्लाघ्या नाट्ये यथा रसः । विपाककम्रमप्यानमुद्वेजयति नीरसम् ॥ २३ ॥ राजा-(स्मृत्वा ) बाहुक ! 'देवि ! नाहमात्मनो विधातेन कलङ्कयितव्यः' इत्यभिदधानो नल इव लक्ष्यसे । तत् कथय परमार्थ समर्थेय नः प्रार्थनाम् । कस्त्वमसि ? किमर्थं च दुस्थावस्थः.१ (प्रविश्य ) प्रतीहारः-देव ! विदर्भाधिपतिप्रेषितो भद्राभिधानः पुरुषो द्वारि वर्तते । राजा-(ससम्भ्रमम् ) शीघ्र प्रवेशय । प्रतीहारः-यदादिशति देवः । (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः । प्रविश्य भद्रःप्रणमति) राजा-भद्र ! किमर्थं भवत्प्रेषणेनास्मान् विदर्भाधिपतिः पवित्रितवान् ? ___भद्रः-महाराज ! भीमरथस्य प्राणेभ्योऽपि प्रिया पुत्री समस्ति । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽङ्कः [११७ नल:-(ससम्भ्रमम् ) सा खलु दमयन्ती।। भद्र:-ततस्तस्याः प्रातः स्वयंवरविधि विदर्भाधिपतिविधास्यति । नल:- (स्वगतम् ) अहो ! धर्मविप्लवः। (पुनः सरोषम् ) आः! कृतान्तकटाक्षितो मयि प्राणति दमयन्तों कः परिणेष्यति ? राजा-ततः किम् ? भद्रः--तथा कथश्चन प्रयतितव्यं यथा श्वः स्वयंवरमण्डपमयोध्याधिपतिरलङ्करोति । : राजा-भद्र ! शतयोजनप्रमाणमध्वानं किमेकयैव त्रियामया वयं लवयितुमलम्भूष्णवः ? नल:--(स्वगतम् ) अहं तत्र गत्वा धर्मविप्लवं निवारयामि । (प्रकाशम) देव ! मा भैषीः, अहं ते सर्व समञ्जसमाधास्यामि। __राजा-भद्र ! 'एते वयमागता एव' इति निवेदय विदर्भाधिपतेः । भद्रः-यथादिशति देवः (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः) राजा-(ऊर्ध्वमवलोक्य) कथमस्तं गतो गभस्तीनामधिपतिः १ कथारसास्वादोपहतचेतोभिरस्याभिः सन्ध्याविधिरप्यतिलविन्तः। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] नलविलासे ( नेपथ्ये ) प्रविशन्ती कैरविणीं सन्ध्यारागानले विरहदुःखात् । कुवलयपतिरयमेष प्रतिषेधुमिवोलकर एति ॥२४॥ राजा-कथमेष बन्दी चन्द्रोदयं पठति ? अमात्य ! त्वं स्वं नियोगमशून्यं कुरु । वयमपि सकलदेवताधिचक्रवर्तिनो भगवतो नाभिनन्दनस्य सन्ध्यासपर्याविधिमनुष्ठातुं प्रतिष्ठामहे। ( इति निष्क्रान्ताः सर्वे ) ॥ षष्ठोऽङ्कः ॥ सप्तमोऽङ्कः। ( ततः प्रविशति रथेन राजा बाहुकश्च ) राजा-बाहुक ! प्रभातप्राया त्रियामिनी । सहस्रांशोर्धाम्नां दिशि दिशि तमोगर्भितमिदं कुलायेभ्यो व्योनि व्रजति कृतनादं खगकुलम् । दवीयस्तामेतान्यपि जहति युग्मानि शनके रथाङ्गानामस्यां सपदि वरदायास्तटभुवि ॥ १ ॥ अपि च यथा पुरः प्राकारनगरागारसन्निवेशाः समुन्मीलन्ति तथा जाने प्राप्तः पताकी कुण्डिनस्य परिसरम् । - नल:-(स्वगतम् ) अहो! दिव्यस्य तेजसः सोऽप्यपूर्वः प्रभावः। स्मरणमन्त्राभिमन्त्रितमात्रोऽपि तातस्तथा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽङ्कः [ ११६ कथश्चन वाजिनोऽधिष्ठितवान् यथा जवेन पवनमपि पराजयन्ते । (सहर्षम् ) चिरादद्य देवी द्रक्ष्यामीति हर्षप्रकर्षण पुलककोरकितगात्रोऽस्मि । (पुनः सविषादम् ) यदि वास्यक्ता यद् विपिने वनेचरघने निद्रालुरेकाकिनी तत् त्यक्त्वापि न जीवितं रहितवानस्मि प्रियप्राणितः । एतेनाद्भुतकीर्तिमुन्नमयता विस्फूर्जितेनोर्जितं वक्त्रं दर्शयितु श्वपाकचरितस्तस्याः कथं स्यां सहः ॥२॥ अपि च अपकृत्योपकार्येषु ये भवन्त्यर्थिनः पुनः । तेषु मन्ये मनुष्यत्वं विधेर्वार्धकविक्रिया ॥ ३ ॥ राजा-बाहुक ! कचिदपि प्रदेशे पताकिनं विकृत्य मार्गश्रममपनयामः । नल:-( विलोक्य साशङ्कम् ) देव ! किमिदं स्वयंवरविधिविरुद्धमतिकरुणमालोक्यते ? तथाहि आक्रन्दः श्रुतिदुर्भगः प्रतिदिशं बाप्पागण्डस्थलो ___ लोकः सर्वत एष वेषघटना पौरेषु शोकोन्मुखी । विश्रान्ताखिलगीतवाद्यविधयः सङ्गीतशालाभुवो वार्ताक्षिप्तजनस्य पुञ्जिभिरितः पर्याकुला वीथयः ॥४॥ राजा-(विलोक्य) वाहुक ! यथाऽयं मन्दमन्दरुदितः ससंरम्भमितस्ततः परिधावति पौरलोकस्तथा जाने सम्प्रत्येव कोऽपि विपत्स्यते । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] नलविलासे ॥ इतः प्रारभ्यन्ते निचितचितयः पश्य भृतकैः प्रयाति प्रत्याशं विषमतमतूर्यध्वनिरितः । द्विजन्मानोऽप्येते निधनधनविच्छेदचकिताः ससंरम्भं धावन्त्यपरिचितशूकास्तत इतः ॥ नलः - देव ! एतं बृद्धब्राह्मणं पृच्छामि । (ततः प्रविशति गृहीतयष्टिर्गमनाकुलचेता वृद्धो ब्राह्मणः ) ( उपसृत्योच्चैः स्वरम् ) आर्यार्य ! ब्राह्मण: - नियोजयतु यजमानः । नलः – वैदेशिकत्वादनभिज्ञोऽस्मि वृत्तान्तस्य तत् कथय किमिदमतितरां करुणम् ? ब्राह्मण: --- महाभाग ! किं कथयामि मन्दभाग्यः १ अकाण्डक्रोधसंरुद्धचेतसा वेधसा सर्व संहारः प्रारब्धोऽद्य विदर्भपतिकुटुम्बस्य | राजा - कथमिव ब्राह्मणः प्राणेभ्योऽपि प्रिया विदर्भभतु रेकैव पुत्री । नलः - (स्वगतम् ) तत् किं देवी विपन्ना ? अतः परमपि विधिर्विकार किं किमपि दर्शयिष्यति ? ( प्रकाशम् ) तत् कि तस्याः ? ब्राह्मणः -- अद्य प्रातरेकेन केनापि वैदेशिकेन राजकुले तत् किमपि प्रकाशितं येन सा चितामधिरोदुमध्यवसिता । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽङ्कः [ १२१ पश्य पुरः पुरस्यादवीयसि देशे निकषा सहकारतरुखण्ड तस्याश्चितिर्वर्तते । अपरास्वप्येतासु तिसृषु तस्या एव परिकरलोकः प्रवेक्ष्यति । तदनुजानीहि मां प्राणात्ययसमयप्रवर्त्यमानदानप्रतिग्रहणाथेमुपगन्तुम् । राजा-(सविचिकित्समात्मगतम्) अहो! सर्वातिशायी द्विजन्मनां निसर्गसिद्धो लोभातिरेको यदयमन्त्येऽपि वयसि वृथा वृद्धो निधनधनप्रतिमहान विरमति । नल:-व्रजस्व सिद्धये । ब्राह्मण:-स्वस्ति महाभागाय (इत्यभिधाय मन्दं मन्दं निष्क्रान्तः) राजा बाहुक ! विप्रलब्धाः केनापि वयं स्वयंवरसमाहानेन । तद् यावत् कोऽप्यस्मानुपलक्षयति तावदित एव स्थानानिवर्तय पताकिनम् । नल:--देव ! क्षणमस्मिन्नेव स्थाने श्रमोऽतिवाह्यताम् , यावदहमग्रतो गत्वा सम्यग् निर्णयामि । (राजा तथा करोति) (परिक्रम्य विलोक्य) कथमियं देवी प्राणपरित्यागसमयोचितनेपथ्या चिताभ्यणे कपिञ्जलया सह वर्तते ! अयमपि कलहंसोऽसावपि खरमुख इयमपि मकरिका । (ततः प्रविशन्ति यथानिर्दिष्टाः सर्वे) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] नलविलासे ___दमयन्ती-(सास्रम् ) 'कपिञ्जले ! पज्जालेहि जलर्ण जेण मे दुक्खमोक्खं करेदि । कपिञ्जला-- मदिणि ! विलंबेहिं विलंबेहि कित्तियाई पि दियहाई, जाव भट्टा सवं सुद्धि लहेदि । न हु पहियजणसंकहाओ अवितहाओ हवंति । दमयन्ती-- कपिञ्जले ! अलाहि विलंबेण । नहु एदं असुदपुव्वं वत्तं सुणीय पाणे धणेदु सक्केमि । अवि य न हवंति अलियाओ असुहससिणीओ वत्ताओ। नल:--(स्वगतम् ) का पुनरशुभशंसिनी वार्ता भवतु ? पृच्छामि (उपसृत्य दमयन्ती प्रति ) आयें ! किमर्थं त्रैलोक्या द्भुतभूतरूपसम्पत्तिपावनं वपुरात्मनो बहावाहुतीक्रियते ? विरम विरमास्मादध्यवसायात् ।। दमयन्ती- वेदेसिग! न संपदं अवसरो नियचरिदकहणस्स। ताजदि दे दाणेण इच्छा तागिण्ह, आदु अन्नदो वच। १. कपिजले ! प्रज्वालय ज्वलन येन मे दुःखमोशं करोति । २. भत्रि ! विलम्बस्व विलम्बस्व कियतोऽपि दिवसाद यावद् भर्ती सर्वां शुद्धि लभेत । न खलु पथिकजनसङ्कथा अवितथा भवन्ति । ३. कपिञ्जले ! अलं क्लिम्बेन । न खल्वेतदश्रुतपूर्व वृत्तं श्रुत्वा प्राणान् धारयितुं शक्नोमि । अपि च न भवन्त्यलीका अशुभ शंसिन्यो वार्ताः। ४. वैदेशिक ! न साम्प्रतमवसरो निजचरितकथनस्य । तद् यदि ते दानेनेच्छा तद् गृहाणाथवाऽन्यतो व्रज । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽङ्कः [ १२३ कलहंस:--( उपसृत्य ) वैदेशिक ! मणु वहिप्रवेशनिमित्तम् । नलं रन्तुचेतस्तरलमनलं वाऽस्य विरहे सतीभावो यस्यामथ च जगतां विश्रुततमः । इयं सा क्षीराक्षी तदपि निषधक्षोणिपतिना विना दोषोन्मेषादधिवनमपास्ता कथमपि ॥६॥ नल:--आः ! कथमद्य प्रातरेव चण्डालचरितस्य तस्य पापीयसो निषधाभतु रभिधानं खया स्मारितोऽस्मि ! दमयन्ती-(सरोषमात्मगतम्) 'को एस दुम्मुहो अज्जउत्तं निंददि ? (प्रकाशम् ) वइदेसिग ! नाहमरण्णे पइणा परिचत्ता, किन्तु सयं मग्गदो परिभट्ठा। कपिञ्जला--- पहिय ! जं कलहंसो कहेदि तं सच्चं । कलहंसः---निषधाधिपतिरिदानी विपन्न इति श्रूयते । तत इयं देवो चितामधिरोहति । नल:---बाले यस्त्वामेकाकिनीमनिमित्तमरण्ये त्यजति तदर्थमेतत् त्रिलोकीलोचनोत्सवो वपुरग्निसात् क्रियत इति न मे मनसि समीचीनमाभाति । अपि च मुग्धे! किं पावकदग्धः १. क एष दुर्मुख बार्यपुत्रं निन्दति ? वैदेशिक ! नाहमरण्ये पत्या परित्यक्ता, किन्तु स्वयं मार्गतः परिभ्रष्टा । २. पथिक ! यत् कलहंसः कथयति तत् सत्यम् । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] नलविलासे स एव प्रियः प्राप्यते ? तैस्तैः शुभैरशुभैर्वा कर्मभिभिन्नवतिनीसश्चरिष्णवः सर्वे जन्तवः । कलहंसः--पान्थ ! नायं तस्यैव प्रियस्य प्राप्त्यर्थं न च धर्मार्थ प्रयत्नः, किन्तु क्षत्रियाचारानुचारार्थ प्रियाप्रियनिवृत्त्यर्थं च। नल:---(स्वगतम् ) अहो ! कौतुकम् ! एतामहमरण्ये व्यालानां बलिं कृतवान् । इयं पुनर्ममाप्रियनिवृत्त्यथं प्राणान् परित्यजति । स्वमेकः पररक्षार्थ विनिहन्ति विपत्तिषु । स्वरक्षार्थ परं वन्यश्चित्रं चित्रा मनोगतिः ॥७॥ दमयन्ती--- 'कपिञ्जले ! उवणेहि हुयासणं जेण चिदं पज्जालेमि। कपिञ्जला- 'मट्टिणि ! अहं वि हुयासणमणुसरिस्सं । दमयन्ती- कपिञ्जले ! मा एवं भण| तए अंबा संधारियव्वा । कपिञ्जला- भट्टिणी पुप्फवदी वि तुह मग्गं अणुसरिदुमिच्छदि, परं भट्टा वारेदि । १. कपिञ्जले ! उपनय हुताशनं येन चितां प्रज्वालयामि । २. भत्रि ! अहमपि हुताशनमनुसरिष्यामि । ३. कपिजले ! मैवं भण । त्वयाऽम्बा सन्धारयितव्या। ४. भी पुष्पवत्यपि तव मार्गमनुसरितुमिच्छति, परं भर्ता वारयति । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽङ्कः [ १२५ दमयन्ती - 'संतं संतं पडिहदममंगलं । गं अंबा तायवुडतणे चलणसुस्मृसिणी भविस्सदि । कपिञ्जला-- 'भट्टा वि तुह दुक्खेण थोवजीविदो संभावीयदि। नल:- (स्वगतम् ) उपस्थितः सर्वसंहारस्तदतः परं नार्हामि गोपयितुमात्मानम् । (प्रकाशम् ) बाले ! यदि ते पतिः कुतोऽपि सनिधीयते, तदा निवर्तसे साहसादस्मात् ? दमयन्ती.. 'पहिय ! किं मं उवहसेसि ? नत्थि मे इत्तियाई भागधेयाई, जेहिं पुणो वि अज्जउत्तं पिच्छामि । कपिञ्जले ! उवणेहि जलणं । (कपिञ्जला ज्वलनमुपनयति । दमयन्ती चितां प्रज्वालयति) कलहंसः-देवि! प्रथममहमात्मानं भस्मसात् करोमि। खरमुख:-- नहि नहि अहं पढमं । MARAcck. a m L EJanama... १. शान्त शान्त प्रतिहतममङ्गलम् । नन्वम्बा तातवार्धक्ये चरणशु. शूषिणी भविष्यति । २. भर्तापि तव दुःखेन स्तोकोवितः सम्भाध्यते । ३. पथिक ! कि मामुपहससि ? न सन्ति ममैतावन्ति भागधेयानि, यैः पुनरप्यार्यपुत्रं पश्यामि । कषिञ्जले ! उपनय ज्वलनम् । ४. नहि नहि अहं प्रथमम् । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे मकरिका- 'चिट्ठदु सव्वे वि, पढमं अहं चिदाए पविसिस्सं । न सक्केमि तुम्हाण मरणं पिच्छिदु । नलः -- (स्वगतम् ) उक्तं भुजगरूपधारिणा तातेन 'यदि ते स्वरूपेण प्रयोजनं भवति तदा मामनुस्मरेः' । ( पटं प्रावृत्य स्मरणं नाटयति । पुनरात्मानं विलोक्य ) कथं नल एवास्मि जातः । 1 दमयन्तो - 'भयवं हुयासण | नमो दे । भयवंतो लोकपाला ! कधेहिं एदं मह चरिदं परलोगगयस्स अञ्जउत्तस्स । ( नेपथ्ये ) हा वत्से ! क मामेकाकिनं चरमे वयसि परित्यज्य प्रयासि ? हा हरिणनयणे ! मयंकवयणे ! सिरीससोमाले ! वत्से ! किं अत्तणो मरणेण भीमरहं मारेसि ? दमयन्ती -- ( आकर्ण्य ) नूणं में वारिदु तादो अंबा य समागच्छदि, ता लहुं पविसेमि । ( चितां प्रदक्षिणीकृत्याधिरोदुमिच्छति ) १२६ ] · १. तिष्ठन्तु सर्वेऽपि प्रथममहं चितां प्रवेक्ष्यामि । न शक्नोमि युष्माकं मरणं द्रष्टुम् । २. भगवन् हुताशन ! नमस्ते । भगवन्तो लोकपालाः ! कथयतेतम्मम चरितं परलोकगतायायं पुत्राय । ३. हा ! हरिणनयने ! मृगाङ्कवदने ! शिरीषसुकुमारे ! वत्से ! किमात्मनो मरणेन भीमरथं मारयसि ? ४. नूनं मां वारयितुं तातोऽम्बा च समागच्छति, तल्लघु प्रविशामि । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽङ्कः नल:--( ससम्भ्रमं बाहौ गृहीत्वा ) येनाकस्मात् कठिनमनसा भीषणायां कराल-व्यालानां त्वं वनभुवि हतेनातिथेयीकृतासि । निर्लज्जानमा विकलकरुणो विश्वविश्वस्तघाती पस्याभासः सरलहृदये ! देवि ! सोऽयं नलोऽस्मि ॥८॥ [ १२७ ( दमयन्ती प्रत्यभिज्ञाय परिरभ्य चोच्चैः स्वरं रोदिति | लहंसादयः सर्वे प्रणम्य रुदन्ति ) न प्रेम रचितं चित्ते न चाचारः सतां स्मृतः । स्वजता त्वां बने देवि ! मया दारुणमाहितम् ॥६॥ यस्तवापि प्रेम्णा न प्रसाद्यते, सोऽहं सर्वथा खलु खलप्रकृतिरस्मि । न प्रेम नौषधं नाज्ञा न सेवा न गुणो न धीः । नकुलं न बलं न श्रीदुर्जनस्य प्रशान्तये ॥ १० ॥ किश्व- छिन्नेषु रावणे तुष्टः शम्भुर्दशसु मृर्द्धसु । शतेऽपि शिरसां छिन्ने दुर्जनस्तु न तुष्यति ॥ ११ ॥ कलहंसः -- किमिदं विषादमुच्छलेनानौचित्यपिच्छलं विपठ्यते देवेन । न खलु सत्तामग्रणीनिषधाधिपतिः प्रलयेऽपि खलो भवितुमर्हति । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] नल: - देव्या अपि दाक्षिण्यमधिमनसमनादधानः कथं नास्मि खलः ? नलविलासे परसम्पत्समुत्कर्षद्वेषो दाक्षिण्यहीनता द्वयमेतत् खलत्वस्य प्रथमं प्राणितं स्मृतम् ॥ १२॥ अलं कृत्वा वा दुष्टचरितस्मरणम् । कथय तावत् केनेदममङ्गलमावेदितम् ? कलहंसः -- देव ! एकेन वैदेशिकेन भस्मकनाम्ना खञ्जकुण्टेन मुनिना । नलः -- ( सरोचम् ) तं दुरात्मानमिहानयत । ( ततः प्रविशति नियन्त्रितभुजस्तापसः ) ( प्रत्यभिज्ञाय साक्षेपम् ) आः पाप ! स एवासि येनाहमरण्ये प्रतार्य देवीं सन्त्याजितः । तापसः -- नाहमरण्ये जगाम, न च त्वां प्रतारयामास । नल:-- ( सरोषम् ) अरे ! अपसर्प कर्णेजप ! आद्यून ! ब्रह्मराक्षस ! अतिजाल्म ! अन्नदावानल! साम्प्रतमपि मां प्रतारयसि ? ताडयत भोः ! दुरात्मानमेनं कशाभिः । ( प्रविश्य कशापाणयस्तापसं ताडयन्ति ) तापसः -- ( साक्रन्दमुच्चैः स्वरम् ) मा मा ताडयत, सत्यमावेदयामि | Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽङ्कः [ १२९ नल:-आवेदय । तापसः-लम्बोदर एवाहम् । मया विदर्भनिर्वासितः कूबरान्तिकं घोरघोणो नीतः। घोरघोणेनैव कपटकैतवं कूबरोऽध्यापितस्ततस्त्वं पराजितः। घोरघोणोपदेशेन च मया त्वमरण्ये दमयन्ती त्याजितः । इहागत्य वन्मरणप्रवादः कृतः। नल:--( सरोषम् ) अये! शूलामेनं दुरात्मानमारोपयन्तु । यदि वा तिष्ठतु, घोरघोणेन सहायं व्यापादयिष्यते । कलहंसः--देव ! दृष्टो दुरोदरविनोदविपाकः ? नल:-तुभ्यं शपे परमतो विरतोऽस्मि [ तस्मात् ] तस्माद् दुरोदरविनोदकलङ्कपङ्कात् । यस्यात् प्रवृत्तमतिशायि विषादसाद दैन्यापमानघटनापटु नाट्यमेतत् ॥१३॥ देवि ! कथय तावन्मया त्यक्ता मती बने किमनुभूतवत्यसि ? दमयन्ती- 'जं मए रन्ने अणुभूदं तं लदापाशच्छेदपेरंतादो नाडयादो अज्जउत्तण दिट्ट। अणंतरं सत्थवाहेण अयलउरे रिउवनस्स पासे अहं नीदा। नल:--ततस्ततः । : १. यन्मयाऽरण्येऽनुभूतं तल्लतापाशच्छेदपर्यन्तान्नाटकाद् आर्यपुत्रेण दृष्टम् । मनन्तरं सार्थवाहेनाचलपुर ऋतुपर्णस्य पार्वेऽहं नीता । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासे दमयन्ती- 'तदो कमेण इध समागदाए मए सुणिदं जधा -- 'दधिवन्नस्स सूवगारो सूरियवागं करेदि । तदो मए चितियं 'अज्जउत्तं विणा न अन्नो सूरियवागविज्जं जाणादि ।' अनंतरं अज्जउत्त परिक्खणत्थं नाडयं काऊण कलहंसखरमुह-मयरियाओ पेसिदाओ । १३० ] नल:- कलहंस ! कथय कथं त्वमत्रायातोऽसि ? कलहंसः - देवीमेकाकिनीं विदर्भेषु समागतामाकर्ण्य खरमुख -- मकरिकाभ्यां सहाहमिहायातोऽस्मि । दमयन्ती- पच्छा अज्जउत्तस्स इहागमणत्थं अलियं सयंवरपवादं कडुय पुरिसो पएसिदो । नल: - देवि ! क्षमस्व मया निर्निमित्तमपाकृतासि । दमयन्ती -- 'मह निमित्तं घोरघोरोन ईदिसमवत्थं णं अज्जउत्तो लंभिदो । ता अहं अज्जउत्तस्स अवराहिणी, न उणो मह अज्जउत्तो । १. ततः क्रमेणात्र समागतया मया श्रुतं यथा - 'दधिपर्णस्य सूपकार: सूर्यपाकं करोति' । ततो मया चिन्तितम् 'आर्यपुत्र विना नान्यः सूर्यपाकविद्यां जानाति' । अनन्तरमार्यपुत्र परीक्षणार्थं नाटकं कृत्वा कलहंस - खरमुख - मकरिकाः प्रेषिताः । २. पश्चादार्यपुत्रस्येहागमनार्थमलीकं स्वयंवरप्रवादं कृत्वा पुरुषः प्रेषितः । ३. मम निमित्तं घोरघोणेन ईदृशीमवस्थां नन्वार्यपुत्रो लम्भितः । तदहुमार्यपुत्रस्यापराधिनी, न पुनर्ममार्यपुत्रः । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽङ्कः कलहंसः-साधु देवि ! साधु पतिव्रतानामेष एव वाग्विभवः । देवोऽपि देवीमपहाय किमनुभूतवान् ? नल:-देवीमपहाय क्रमेणाहम् 'एहि महापुरुष ! त्रायस्व माम्' इति प्रतिमुहुाहरन्तं दवानलज्वालाजटालवपुषमेकमाशीविषमद्राक्षम् । सर्व-(सकौतुकम् ) नतस्ततः । नल:-ततः स दवानलाकृष्टो मां दृष्टा विकृतरूपं कृतवान् । देवतारूपं च विधाय 'सोऽहं तव पिता महाराजनिषधस्त्वत्कृपया समागतवान' इति व्याहरत् । दमयन्ती- 'तदो। नल:--'मा भैषीरतः परं द्वादशसु वर्षेसु पुनः प्रियादर्शनं ते भविष्यति' इत्यभिधाय तावत् तिरोऽभूत् । ततोऽहं क्रमेण सूपकारवृत्त्या दधिपर्णाभ्यर्ण स्थितवान् । (नेपथ्ये) प्रवर्त्यन्तां मङ्गलानि, प्रसाध्यन्तां मौक्तिकस्वस्तिकः प्राङ्गणभुवः, प्रवत्यन्तां सङ्गीतकानि । ननु मनोरथानामप्यभूमिवेत्सायाः प्रिया प्रियप्राप्तिरभूत् । __ कलहंसः-(ससम्भ्रमम् ) कथं विदर्भाधिपतिरितोऽभ्येति ? - - - १. ततः। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] नलविलासे (ततः प्रविशति पुष्पवत्या सह राजा भीमरथः । सर्वे ससम्भ्रममुत्थाय प्रणमन्ति) राजा-(नलं प्रति) 'यो दमयन्ती परिणेष्यति तस्याहं राज्यभ्रशं करिष्यामि' इति स्वप्रतिज्ञा घोरघोणेन समर्थिता । घोरघोणः पुनः किल कलचुरिपतेटमयन्तीपरिणयनमभिलाषुकस्य चित्रसेनस्य मेषमुखनामा प्रणिधिः । अयमपि घोरघोणशिष्यो लम्बोदरश्चित्रसेनस्यैव कोष्ठकाभिधानश्चर एव । कलहंसा-देव ! निषधाधिपते ! तेऽमी चित्रसेनमेषमुख-कोष्ठकाः, यान् मत्तमयूरोद्यानस्थितिदेवो लेखे दृष्टवान् । राजा-निषधापते ? परिणतवयसो वयं धर्मकर्माहः । तद् गृहाणेदमस्मदीयं विदर्भाधिराज्यम् । नल:-देव ! अहमात्मीयमेव राज्यं कपटकैतवहारितमादास्ये । पुष्पवती- 'वच्छ ! एसा दमयन्ती पुणो वि तुह समप्पिदा । ताजं ते पडिहादि तं करिज्जासु । नला-अहं देव्या दमयन्त्या पतिव्रताव्रतेनैव क्रीतस्तदतः परं मामनुकूलयन्ती देवी मल्लिका धवलयति, धनसार सुरभयति, मृगाङ्क शिशिरयति । १. वत्स ! एषा दमयन्तो पुनरपि तुभ्यं समर्पिता। ततो यत् ते प्रतिभाति तत् कुर्याः । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽङ्कः [ १३३ कलहंसः-किमतः परं प्रियतममाधीयते देवस्य ? नल:-कलहंस ! अतः परमपि प्रियमस्ति ? त्वयैव तावद् देवी प्रथममस्मासु परमानुरागमानीता । भवतैव कुसुमाकरोद्याने संघटिता। त्वमेवास्मान् नटकपटधारी ज्ञातवान् किमपरं त्वमेवास्य दमयन्तीसङ्घटनानाढकस्य सूत्रधारः । कलहंसा-तथापीदमाशास्यते-- दुरोदरकलङ्कतः कृतविराम चन्द्रोज्ज्वला मवाप्य निजसम्पदं पदचिन्त्यशमश्रियः । यशोभिरनिशं दिशः कुमुदहासभासः सृजनजातगणनाः समाः परमतः स्वतन्त्रो भव ॥१४॥ (इति निष्क्रान्ताः सर्वे) । सप्तमोऽङ्कः ॥ इति नलविलासनाटकम् । कृतिरियं रामचन्द्रस्य * । * नाटकं समाप्तं । छ । कृतिरियं श्रीहेमचन्द्रसूरिशिष्यश्रीरामचन्द्रसूरिणां ।। छ ।। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलविलासस्थानां पद्यानां सूची । | पद्यम् पद्यम् अकाण्डको पिनो भर्तु : अकृताखण्डधर्माणां अखिलानां बिसिनीनां अजल्प्यं जल्पामः अल्पन्तकमनीयं अथ तीव्रक्षुधा अद्याभूद् भगवान् विरश्चिअधिकमधिवहन्ती अधिका वर्णना वर्ण्यात् अनुभूतं न यद् येन अपकृत्योपकार्येषु अपारे कान्तारे अप्पा समपिओ १३४ अहंयूनामहंकारं कुवितैर्विकसितआक्रन्दः श्रुतिदुर्भगः पृष्टे ७४ | आगन्तुकोऽनुरागं ४ ४१ १०६ अभिनभः प्रसृतैर्नवमल्लिका ४५ ६२ ७३ अमीभिः संसिक्तैस्तव अयमवनिपतीन्दुर्भूपति: अर्वा गदृष्टितया लोको अविदितमर्मा कर्मसु अशेषाणां मध्ये असौ पाखण्डिचाण्डालो अस्तमयति पुनरुदयति अस्याः क्षोणि ! ४७ २९ ११३ ८१ ७२ २६ १०४ ११९ ११४ आत्मन्यपत्ये आपाकपिञ्जरआमन्त्रिता वयमतः आलावहासपरिरंभणाई आस्तां क्षयं किमिह आस्तां मर्मपरिज्ञानं आ: ! किं भविष्यति २८ आ: स्त्रीरत्न ! पतिव्रते ! ११० इतः प्रारभ्यन्ते १२० इमौ प्रेङ्गखे कर्णौ ५९ ३४ ४७ ८८ ५२ १६ ४१ एनामरण्यभुवि ८९ विधेर्वशादभिनवां १०७ ८६ ६८ ११६ इह अत्थि घोरघोगो उत्कर्णयन् वनविहारि उत्तसकौतुकनवक्षतउन्मीलडलशत पत्रपत्रलाक्षि उभयाभिमुख्यभाजां एकाकिन्यबला त्रियोगविधुरा ११२ एगागिणी अहं भी लुगा एते निर्भरझात्कृतैः ८५ १०६ ८६ १०८ ९७ ६४ कश्चित् काननदेवता: कर्णेजपं क्षतमुदो कल्पान्तकल्पमुपकल्प्य कवि काव्ये रामः कान्तस्तवाहमधरीकृत पृष्टे ३५ ११ ६ ४६ ५५ ४३ ४८ कामं कामं कुसुम ४६ ८० १११ १ ६३ २० Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यम् पृष्टे X mpur० ururur ५४ ६८ १२७ १३५ पृष्टे । पद्यम् कामं शाठ्यव्यापाहेन ३१ दुरोदरकलङ्कतः कार्कश्यभूः स्तनतटो २७ / दुष्टसङ्गः कुमारस्य कायं चेत् सरसं दृष्टे ! द्रष्टुमिति स्पृहां काश्मीरेश्वर एष देवानीविच्छिदालोल ! कुचकलशयोवृत्तं देवीं वाचमविक्रयां कृतमिषशतं यद् न गीतशास्त्रमर्मज्ञा ४८ कृत्याकृत्यविदोऽपि ८३ न तथा वृत्तवैचित्री कौशाम्बीपति रयमुन्नतांसपीठः ७४ न प्रेम नाप्यभिजनं क्व तद् भ्रविक्षेपक्षिपित- ९१ / न प्रेम नौषधं नाज्ञा १२७ घनं प्रेम ग्रन्थि सदयमपि ५ | न प्रेम रचितं चित्ते चन्द्रोद्यानमरांसि ६० नयननलिनपेयं ८० चलकमलविलासा- २६ नलं रन्तुचेतस्तरलमानलं १२३ चापल्य दृशि शाश्वतं न स मन्त्रो चित्रं त्रस्तैणशावाक्षि ! नास्माष नयमास्मि छिन्नेषु रावणे तुष्टः १२७ निद्राच्छेदे क्व दयित ! जन: प्रज्ञाप्राप्त निर्मायो यः कृपालुर्यः जन्मिनां पूर्व जन्माप्त परसम्पत्समुत्कर्षद्वेषो जयति स पुरुषविशेषो परिमलभृतो वाताः ४४ ताराविलासरुचिरं प्रकर्षपदमन्तिम तावन्मतिः स्फुरति प्रबन्धा इक्षुवत् तुभ्यं शपे परमतो प्रबन्धानाधातु त्यक्ता यद् विपिने प्रवीशन्ती करविणीं त्रैलोक्योदरवत्तिकीति प्रियतमावदनेन्दुविलोकितैः ४६ त्वया तावत् पाणि: प्रेङ्खाविघट्टनरुषा दध्मातविरोधिवोरकुरली ७६ | भजन्ते कार्याणि दात्यूहकुक्कुभ ७ भयतरलकुरङ्गीनेत्र- ५२ दासस्तस्य १६ | सातश्चूत ! वयस्य केसर ! ९६ १२८ १०२ ७९ ८४ १२९ com ४८ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यम् मञ्जीराणि रणन्ति मुग्धाङ्गना नयनपात यथा मुख्यस्य सौन्दर्य यथा यथा प्रतापाग्निः यदि वा द्यूतकारस्य यस्यां मृगीदृशि शो - पात्रायां किल यस्य येनाकस्मात् कठिनमनसा राज्यं हारितवानियं रेवासीकरवारिवेपथुवपुः लंबत्थणी त्ति नामं मांस शो गुणदोषो मात: कुञ्जरपत्नि ! मातः प्रसीद वसुधे ! मां वा प्रीणय नेषधस्य मा विषीद कृतं बाष्पैः मुक्ताहार ! विहारमातनु- १०६ ८५ लावण्यपुण्य - वक्त्रं चन्द्रो वत्केन्दुः स्मितमातनोद् वदनशशिनो विटचेष्टया यया किल विन्यस्याभिनवोदये विश्वस्य श्रवणेन्द्रियं विश्वासघातिनम कृत्य करं वैदर्भीतनुवर्णनां वैदर्भी रीतिमहं १३६ पृष्टे | पद्यम् २५ | शान्तात्माऽपि खल: ५५ | शुभा वा लोकस्य १०५ | शृङ्गारसौरभरहस्यजुषां १०६ | शौण्डीरेषु भयोज्ज्वलेषु ११३ श्रुतीनां पीयूषं श्रुते ! बाधिर्यं त्वं कलय संयोगे श्रीमंदो स एष सुभगाग्रणीः ६३ ३३ | सखोशङ्काशङ्कु - ७६ संख्यायामिव ७८ १२७ ९९ पृष्टे स्विद्यन्नितम्बभरपूर -- १ हा देव दिणेसर ! १९ ४१ ४९ ३२ ३ १०७ २० १३ ६६ |समेऽपि देह देशत्वे ७५ सर्वथा केतवं निन्द्यं ३१ सर्वेषामपि सन्ति ४९ सहस्रांशोधनां दिशि दिशि ११८ सहि ! चक्कवायदइए ! १०४ ७५ ५४ २ ८० ७७ सान्निध्यात् पितुरानतं ३४ सुस्थे हृदि सुधासिक्तं १६ सौदामिनीपरिष्वङ्ग १६ स्थिरं कृत्वा चेतः ६१ स्पृशति न मणिज्योत्स्नाच्छन्नं ६७ २८ | स्पृहां लोकः काव्ये ४९ स्फुरति तिमिरे घूकवाते १०० ८२ स्फुरन्त्युपायाः शान्त्यर्थं -- २५ | स्मेराक्षि ! क्षितिचक्रविश्रुतबलः ७३ ३ ८४ ९५ स्वमेकः पररक्षार्थ १२४ २४ ४७ ११० ७२ ९० ६५ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA AMOO00098 00000000000 मुद्रक:गौतम आर्ट प्रिन्टर्स, महरू गेट बाहर, ब्यावर (राज.) Awawwaleelba.org