Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
View full book text
________________
रात्रि का आठमा विभाग अर्थात् चार घड़ी जब शेष रात्रि रहे, तब निद्रा छोड़े और मन में सात आठ वार पंचपरमेष्ठी नमस्कार को स्मरण करे । पीछे मैं कौन हूं, मेरी क्या अवस्था है मेरा क्या कुल है, मेरे में मूलगुण कौन कौन से कितने और कैसे हैं, उत्तरगुण कौन कौन से हैं, किस वस्तु का मेरे नियम अभिग्रह विशेष है, तथा मेरे पास धन के होने से जिन भवन १, जिनबिंब २, तिसकी प्रतिष्ठा ३, पुस्तक लेखन ४, चतुर्विधसंघभक्ति ८, शत्रुजयादि तीर्थयात्रा ९, इन नव क्षेत्रों में से मैंने किस क्षेत्र को स्पर्शा है, किसको नहीं स्पर्शा, जो क्षेत्र नहीं स्पर्शन किया अर्थात् आराधन नहीं किया, तिसको आराधन करूं, और दशवैकालिकादि जो शास्त्र गुरु मुख से नहीं श्रवण किया, तिसके श्रवण करने में प्रयत्न करूं; तथा श्रावक सर्वदा संसारादि विरक्त हुआ दीक्षा लेने का ध्यान कदापि नही छोड़ता है, तो भी तिस अवसर में दीक्षा लेने का मनोर्थ करे ऐसे निशा शेष में जाग के चितवन, करे ॥
__ श्रावक जघन्य से जघन्य सूर्योदय से दो घड़ी पर्यंत नमस्कार सहित प्रत्याख्यान करे । तिस पीछे जब सूर्य का अर्द्ध बिंब दीखे, तब निर्मल मनोहर वस्त्र पहिर के घर देहरा में जिनराज की पूजा करे, पीछे महोत्सवपूर्वक बड़े मंदिर में जाकर पूजा करे। पूजा की विधि जैनशास्त्रों से जानना, देवपूजा करके पीछे नगर में गुरु होवें, तो तिन को विनयपूर्वक वंदना करे । पीछे गुरु से व्याख्यान सुने । पीछे बाल, वृद्ध, रोगी आदि साधुओं के खान, पान, औषध, पथ्यादि देने में यत्न करे । पीछे न्याय और नीति पूर्वक व्यापार करके धन उपार्जन करे । तिस धन से जो शुद्ध भोजन बना होवे, तिसके नैवेद्य से जिनराज की मध्यान्ह संबंधी पूजा करे । पीछे मुनि आवें, तो तिनको दान देवे। पीछे वृद्ध, रोगी, अतिथि, चौपायादिकी सार संभार अन्न, औषध, पथ्य, चारा पाणी आदि की चिंता करके लौल्यता रहित योग्य भोजन करे, अर्थात् सूतक पातकादि लोकविरुद्ध, और संसक्त अनंतकायिकादि आगमविरुद्ध, मांस मदिरादि उभयलोक विरुद्ध भोजन न करे । तथा लौल्यतासे अपनी पाचनशक्ति से अधिक भोजन न करे । पीछे धर्मशास्त्र का परमार्थ चिंतन करे। अथवा योग्य वाणिज्य करके अपरान्ह दिन व्यतीत करके सूर्यास्त से पहिले फिर जिनपूजा करे । तथा दिन में दो बार भोजन करना होवे, तो चारघड़ी दिन शेष रहे भोजन कर लेवे।।
त्रिकाल पूजा की विधि ऐसे है। सवेरे वास सुगंधी चंदनादि द्रव्यों से पूजा करे, मध्यान्ह में फूल नैवेद्यादिसे करे, और संध्या को धूप दीप, आरात्रिकादिसे पूजा करे इति दिन कृत्य कथन ॥
अब रात्रिकृत्य किंचिन्मात्र लिखते हैं।
जैन धर्म का स्वरूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org