Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
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धर्म प्रादिक पांच द्रव्य रूपरहित हैं, इस बातको सूत्रकारने सामान्यरूप से कहा है, अपवाद यानी विशेषरूप से नहीं। क्योंकि अगले सूत्र में पुद्गलों का विशेष स्वरूप से रूपसहिरापन का वचन कहा जाने वाला है। पुद्गल के अतिरिक्त किसी भी द्रव्य में किंचित् भी रूप नहीं है।
न हि विद्यते रूपं मूर्तिर्येषां तान्यरूपाणीत्युत्सर्गतः षडपि द्रव्याणि विशेष्यंते, न पुनर्विशेषतस्तथोत्तरत्र पुद्गलानां रूपित्वविधानात् ।
जिन द्रव्यों के (में) रूप यानी मूर्ति विद्यमान नहीं है वे द्रव्य अरूप हैं, यों उत्सर्ग रूप से यानी सामान्यरूप.से छऊ भी द्रव्य "अरूपाणि" इस विशेषण से विशिष्ट होरही हैं किन्तु फिर विशेषरूप से कोई कोई ही द्रव्य या द्रव्यों के अन्तर्भेद स्वरूप कोई नियत द्रव्य ही अरूप नहीं है क्योंकि उत्तर ग्रन्थ में पुद्गलों के रूपसहितपन का विधान कर दिया जावेगा। यों धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और काल ये सभी पांचों द्रव्य रूपरहित कह दी गयी हैं, कर्म और नो--कर्म से वंधे हुये संसारी जीवको अशुद्धपर्यायाथिक नय से भले ही मूर्त कह दिया जाय इससे हमारी कोई क्षति नहीं है, द्रव्यदृष्टि से सभी जीव अमूर्त हैं।
कश्चिदाह-धर्माधर्मकालाणवो जीवाश्च नामूर्तयो असर्वगतद्रव्यत्वात् पुद्गलवत स्यावादिभिस्तेषामसर्वगतद्रव्यत्वाभ्युपगमान्न त्रासिद्धो हेतुः, नाप्यनैकांतिक: साध्यविपक्षे गगने सुखादौ वा पर्याये तदसम्भवादिति । सोऽत्र पृष्टव्यः का पुनरियं मूर्तिरिति ? असर्वगतद्रव्य-परिणामो मूर्तिगिणी चेत् तहि न सर्वगत द्रव्यपरिणामवन्तो धर्मादय इति साध्यमायातं तथा च सिद्धसाधनं ।
कोई यहां वैशेषिक को एक-देशी कह रहा है कि धर्म, अधर्म, काल-प्ररण ये, और जीव (पक्ष) अमूर्त नहीं हैं ( साध्य ) अव्यापक द्रव्य होने से ( हेतु ' पुद्गल के समान (अन्वय दृष्टान्त । इस अनुमाम में हेतु पक्ष में वर्त रहा होने के कारण प्रसिद्ध हेत्वाभास नहीं है क्योंकि स्याद्वादियों ने उन धर्म आदिकों का असर्वगत द्रव्य होना स्वीकार किया है, भले ही लोक में व्याप रहे धर्म, अधर्म होंय किन्तु आकाश के समान सर्वव्यापक नहीं हैं, परिच्छिन्न परिमाण वाले द्रव्य अमूत नहीं होते हैं “परिच्छिन्नपरिमाणवत्त्वं मूर्त्तत्वं" तथा हम वैशेषिकों का हेतु व्यभिचारी भी नहीं है क्योंकि साध्यके विपक्ष हो रहे अमूर्त आकाश द्रव्य अथवा सुख, बुद्धि आदि पर्यायों में उस असर्वगतद्रव्यपन हेतु का असम्भव है। प्राचार्य कहते है कि यो कह रहा वशेषिक यहां पूछने योग्य है कि बताओ भाई! तुम्हारे यहां यह मति फिर क्या पदार्थ माना गया है। यदि अव्यापक द्रव्य का परिणाम (अपकृष्ट परिमाण गण) मूर्ति हैं, तो यों कहने पर हम जैन कहेंगे कि तब तो सर्वगत द्रव्यों के परिणामों को नहीं धार रहे ये धर्म आदिक हैं यह साध्य दल कहना प्राप्त हुआ और वैसा होने पर तुम वैशेषिकों के ऊपर सिद्धसाधन दोष लग वैठा । अर्थात्-जैसा हम जैन मान रहे हैं वैसा ही तुम साधरहे हो, नवीन कार्य कुछ नहीं कर रहे हो । साध्य तो प्रतिवादी की प्रसिद्ध होना चाहिये तथा हम जैनों को अभीष्ट होरहे विषय पर साध्यसम हेतु नामका दोष उठाना हुमें उचित नहीं दीखता है तुम उसको भी मन में समझलो । यहां परिणाम के स्थान पर "परिमाण" शब्द पच्छा जचता है।