Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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त०रा०
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कर्म में कर्मत्व, नित्य द्रव्यमें विशेष, इत्यादि प्रतीति होती है और वह किसी न किसी संबंधकी वतानेवाली है संयोगादि संबंध बाधित है क्योंकि द्रव्यका द्रव्यके साथ संयोग माना गया है इसलिये यहां जो संबंध सिद्ध होगा उसीका नाम समवाय है और वह नित्य तथा एक संबंध है इत्यादि (उष्ण और अग्नि, आत्मा और ज्ञानादि पदार्थ संबंध से पहिले अपने अपने स्वरूपते सर्वथा भिन्न प्रमाणसे सिद्ध नहीं हो सकते इसलिये समवायका लक्षण न घटनेके कारण इनका समवाय संबंध सिद्ध नहीं होता ) ज्ञान और आत्मा के अभेद सिद्ध करने में और भी यह पुष्ट हेतु है
उभयथाप्यसद्भावात् ॥ १० ॥ सर्वासद्वादिवर्त ॥ ११ ॥
जो वादी अग्नि और उष्ण एवं आत्मा और ज्ञानादिका समवाय संबंध माननेवाले हैं उनसे यह पूछना चाहिये कि अग्निके साथ जिससमये उष्ण गुणका संबंध हुआ उससे पहिले उसमें उष्ण गुण था या नहीं ? यदि उष्ण गुणके संबंध से पहिले भी अग्निमें उष्ण गुण मौजूद था और अग्नि उष्ण है। यह प्रतीति थी, तब उसमें संबंधसे उष्ण गुण मानना व्यर्थ है । यदि संबंध से पहिले उष्ण गुण अग्निमें न था तो उष्ण ज्ञानके अभाव से अग्निका स्वभाव उष्ण नहीं बन सकेगा इसलिये दंडके संबंध से जिस | प्रकार दंडी वा दंडवान् यह व्यवहार होता है उसप्रकार उष्ण गुणके संबंध होने पर उष्णी वा उष्णवान् यही व्यवहार अग्निमें हो सकेगा 'अग्नि उष्ण है' यह व्यवहार न बन सकेगा किन्तु यह व्यवहार तो अभेद पक्ष ही होता है इसलिये अग्नि और उष्णका अभेद संबंध ही मानना पडेगा अन्यथा दोनों ही पदार्थों की सिद्धि न होगी । असद्वादियों के समान असत् पदार्थ ही सिद्ध होगा । और भी यह वात है कि
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भाषा
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