Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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नहीं हैं उनका संबंध नही बन सकता इसलिये अग्नि और उष्णका समवाय संबंध नहीं हो सकता।
उसही प्रकार आत्माके साथ ज्ञान गुणके संबंध के पहले आत्माका कोई ऐसा विशेष गुण नहीं जो उसकी 5 ४ सचा सिद्ध कर सके और न कोई ज्ञान गुणका आधार आत्माके सिवा प्रसिद्ध है जिससे ज्ञान गुणकी
सचा सिद्ध हो सके क्योंकि ज्ञान गुण है। गुण विना आधारके ठहर नहीं सकता । तथा संबंधके पहले हूँ जो पदार्थ असत् हैं मोजूद नहीं हैं उनका संबंध नहीं बन सकता इसलिये आत्मा और ज्ञानका समवाय है संबंध कभी सिद्ध नहीं हो सकता। विशेष- .
जिसप्रकार जैन सिद्धांतमें द्रव्य और गुणका तादात्म्य संबंध माना है उसीप्रकार नैयायिक और वैशेषिक संप्रदायवालोंने समवाय संबंध माना है समवायका लक्षण उन्होंने यह माना है गुणगुणी आदि १ में जो दोनोंको भिन्न न होने देनेवाला नित्य संबंध है उसे ही समवाय संबंध कहते हैं अर्थात् जो पदार्थ
आपसमें कार्य और कारणरूप हैं अथवा अकार्य और अकारण रूप हैं। परस्परमें जुदे जुदे नहीं हैं। 4 और एक आधार तो दूसरा आधेय इस रूपसे स्थित हैं ऐसे पदार्थों का जो 'यह यहां है' ऐसी प्रतीति || , करानेवाला तथा देश कालकी अवधिसे नियत और अपने अपने स्वरूपसे सर्वथा भिन्न पदार्थों को जुदाई है न होने देनेवाला जो भी कोई संबंध है वह समवाय है। जिस प्रकार इस पात्रमें दही है' यहांपर कोई है।
न कोई संबंध जान पडता है और वह संयोग संबंध माना जाता है उसी प्रकार तंतुओंमें कंपडा है। वीरणों (सींकों) में चटाई, द्रव्यमें गुण और कर्म, द्रव्यत्गुण-काँमें सचा, द्रव्यमें द्रव्यत्व, गुणमें गुणत्व
१ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः । जो द्रव्यके प्राधीन हैं और जिनमें कोई गुण नहीं रहता वे गुण हैं । २ प्रशस्तपाद भाष्य ३२५ पृष्ठ देखो।
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