Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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भाषा
SHRESSRI
है उस समय वह ज्ञानस्वरूप और जिस समय दर्शन स्वरूप परिणत होता है उस समय दर्शन स्वरूप है
कहा जाता है अर्थात् ज्ञान दर्शन और आत्मा एकही है इसलिये आत्मा और ज्ञान दर्शनमें कर्ता कर- ।
णका विभाग रहने पर भी वे भिन्न नहीं हो सकते जो पदार्थ जिस समय जिप्त क्रियासे परिणत हो उस 3 समय उसे उसी रूपसे कहना एवंभूत नयका विषय है जिसपकार गमन करनेवालीको ही गाय कहना ए बैठी आदिको नही कहना । और भी ज्ञान दर्शन और आत्माकी अभिन्नतामें यह हेतु है कि
___ अतत्स्वाभाव्येऽनवधारणप्रसंगोऽग्निवत् ॥६॥ जिसप्रकार उष्णपना सिवाय अग्निके अन्य किसी में नहीं दीख पडता। अग्निमें ही रहता है इसलिये यह अग्निका अप्ताधारण धर्म है । उष्णता मालूम पडते ही यह अग्नि है ऐसा सर्वथा निश्चय है हो जाता है । यदि उष्णताअग्निका धर्म न हो तो अन्य किसी भी असाधारण धर्मके न रहने से उसका है निश्चय ही नहीं हो सकता उसीप्रकार ज्ञान दर्शन पर्याय भी सिवाय आत्माके किसी पदार्थमें नहीं,
दीख पडती आत्मामें ही दीख पडती है इसलिये वह आत्माका स्वभाव होनेसे असाधारण पर्याय है। 4 यदि ज्ञान पर्याय आत्मासे जुदी ही हो जायगी तो ज्ञान आत्माका स्वभाव न हो सकेगा । ज्ञानको है हूँ आत्माका स्वभाव न माननेपर वह ज्ञानरहित होगा तथा असाधारण पर्याय ज्ञानके अभावमें उसकी सिद्धि हूँ
ही नहीं हो सकेगी इसलिये ज्ञानस्वरूप ही आत्मा है ज्ञान और आत्मामें भेद नही। यदि यहांपर यह टू कहा जाय किअर्थातरात्संपत्यय इति चेन्नोभयासत्त्वात् ॥७॥ नीलीद्रव्यसंबंधाच्छाटीपटकंबलादिषु,
नीलसंपत्ययवत् ॥ ८॥ दंडदंडिवत् ॥९॥
V ASIRSISRO