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अध्याय १ : मोक्षमार्ग ७ यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि तब तो सम्यगज्ञान सम्यग्दर्शन से पूर्ववर्ती हुआ क्योंकि ज्ञान से जाना और आत्मा की प्रतीति हो गई, सम्यग्दर्शन को उपलब्धि हो गई ।
किन्तु वास्तव में ऐसी स्थिती है नहीं। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन से पूर्ववर्ती नहीं है । दोनों ही युगपत् हैं ।
इस जिज्ञासा के विशेष स्पष्टीकरण के लिए सम्यग्ज्ञान को स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है।
यद्यपि सम्यग्ज्ञान का सामान्य रूप से लक्षण यह बताया गया है कि नयों और प्रमाणों से जीवादि तत्वों का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है; किन्तु वह ज्ञान संशय-विभ्रम-विपर्यय विरहित होना चाहिए । अतः सम्यग्ज्ञान का व्यावाहारिक लक्षण यह बताया गया है -
संशय-विभ्रम-विपर्ययविरहितं ज्ञानं. सम्यग्ज्ञानमिति ।
संशय, विभ्रम और विपर्ययरहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। सामान्य रूप से अनेक वस्तुओं में घूमता हुआ अनिश्चित ज्ञान संशय है।
जिसमें कोई निश्चय न हो सके, 'कुछ है' इतना ही बोध हो, वह 'विभ्रम' है। जैसे पाँव में कोई चीज चुभ गई किन्तु यह निश्चय न हो सके कि वह नुकीला कंकर था, काँच का टुकड़ा था, अथवा किसी काँटे की नोंक थी।
. अंधेरे में रस्सी को साँप या साँप को रस्सी अथवा चाँदी को सीप या सीप को चाँदी समझ लेना 'विपर्यय' विपरीत ज्ञान है ।
संशय और विभ्रम में इतना अन्तर है कि संशयात्मक ज्ञान अस्थिर होता है, अनेक पदार्थों पर घूमता रहता है, किसी एक पदार्थ पर स्थिर नहीं होता, अनिश्चय की अवस्था रहती है ।
अनिश्चय की दशा तो विभ्रम में भी होती है; किन्तु इसमें ज्ञान की . भ्रमणा नहीं होती विमूढ़ जैसी दशा होती है ।
ज्ञान के यह तीनों दोष सम्यग्दर्शन के स्पर्श से नष्ट हो जाते है और . वह पहले का सामान्य ज्ञान सम्यक् विशेषण से विशेषित होकर तत्क्षण ही सम्यग्ज्ञान में परिणत हो जाता है । उस समय उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित स्थिति बन जाती है -
नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सहहे ।
- ज्ञान से भावों को (पदार्थों को) जानकर दर्शन से उन पर श्रद्धा करता है ।
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