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६ तत्त्वार्थ सूत्र
इस गाथा से स्पष्ट है कि सम्यक्चारित्र तो सम्यग्दर्शन के उपरान्त ही होता है ।
यदि कर्मग्रन्थ की भाषा में विचार किया जाय तो सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दृष्टि का चतुर्थ गुणस्थान है; जबकि चारित्र-सम्य्कचारित्र का प्रारंभ पाँचवें गुणस्थान से होता है । जीव चौथे गुणस्थान के अनन्तर ही पाँचवे तथा अन्य आगे के गुणस्थानों का स्पर्श करता है |
सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन का अभिप्राय है- जो वस्तु जैसी है, जिस रूप में अवस्थित है, उसकी वैसी ही श्रद्धा-यथार्थ विश्वास करना ।
सम्यग्दर्शन में दो शब्द हैं-सम्यक् और दर्शन । दर्शन का अर्थ दृष्टि, देखना, विश्वास करना भी है और निश्चय करना भी है । साथ ही इसका प्रयोग.विचारधारा के लिए भी किया जाता है, जैसे-वैदिक दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैनदर्शन आदि ।
_दृष्टि विपर्यास भी होता है, निश्चय भ्रान्त भी होते हैं और विचारधाराएँ मूढ़ता से भी ग्रसित होती हैं ।
___ 'सम्यक् शब्द इनमें संशोधन, परिमार्जन के लिए, यथार्थता के लिए और मोक्षाभिमुखता के लिए प्रयुक्त हुआ है। अतः वह यथार्थश्रद्धा जो सत्यतथ्य पूर्ण होने के साथ-साथ मोक्षाभिमुखी हो, जीव की गति-प्रगति मोक्ष की ओर उन्मुख करे, सम्यग्दर्शन है ।
व्याहारिक दृष्टि से तमेव सचं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं जिन सर्वज्ञ भगवान ने जैसा वस्तु का स्वरूप बताया है, उसमें किसी भी प्रकार की शंका न करना, सम्यग्दर्शन है ।।
किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से, जिसे निश्चयदृष्टि भी कहा जाता है, इस दृष्टि की अपेक्षा शुद्ध आत्मभाव, आत्मस्वरूप की अनुभूति, प्रतीति, रुचि, यथार्थ विश्वास और उसका दृढ़ श्रद्धान, निश्चय सम्यग्दर्शन है ।।
यह आत्म-प्रतीति और दृढ़श्रद्धान कैसे होते है इस प्रक्रिया को समझना है । आचारांग (१/५/५/१७१) में कहा गया है
जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण वियाणइ से आया, तं पडुच पडिसंखाए।
- जो आत्मा है, वह विज्ञाता है । जो विज्ञाता है वह आत्मा है । जिससे (जिसके द्वारा) जाना जाता है, वह आत्मा है। जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती है।
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