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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
(३) क्या जो पदार्थ के अवयव-प्रदेश विद्यमान हो, उसको सावयव कहा जाता है। अथवा (४) क्या यह अवयववाला है, ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो, उसे सावयव कहा जाता है ?
उसमें प्रथम पक्ष कहोंगे तो अर्थात् अवयवो में रहता है वह सावयव होने से कार्य कहा जाता है। वैसा कहोगे तो अवयवो में रहनेवाले अवयवत्वसामान्य से यह लक्षण व्यभिचारी (अनैकान्तिक) बन जायेगा। क्योंकि यह अवयव है यह अवयव है, ऐसी अनुगतबुद्धि द्वारा जिसका ज्ञान होता है, उस अवयवत्व नामकी जाति आपके (नैयायिकोके) मतानुसार नित्य है। इसलिए वह कार्य तो बन ही नहीं सकती। वह अवयवत्वजाति अवयवो में रहने के साथ साथ विपक्षभूत नित्य अकार्य में भी लक्षण जाने से वह व्यभिचारी है। वैसे ही अवयवत्व अवयवो में रहने पर भी आपके मत में वह निरवयव निरंश है, उसके अवयव नहीं है।
दूसरे पक्ष का स्वीकार करोंगे तो हेतु साध्यसम बनेगा। अर्थात् "जो अवयवो से उत्पन्न हो वह सावयव कहा जाता है।" ऐसे दूसरे पक्ष में हेतु साध्य के समान असिद्ध ही है। जैसे अभी पृथ्वी आदि को कार्य के रुप में सिद्ध करने है। वैसे वह पृथ्वी आदि के परमाणु इत्यादि, अवयवो में से उत्पन्न होते है, वह भी सिद्ध करना बाकी ही है। उसकी सिद्धि अभी हुइ नहि है। कहने का तात्पर्य यह है कि "जिस प्रकार से (पृथ्वी आदि में) कार्यत्व विवाद में है, असिद्ध है, उसी तरह से वह अवयवो से उत्पन्न हुआ है।" वह बात भी विवाद ही है। क्योंकि कार्य कहो या अवयवो से उत्पन्न होनेवाला कहो, दोनो एक ही बात है। अर्थात् कार्य के रुप में सिद्ध हो तो अपनेआप अवयवो से उत्पन्न होनेवाला है, यह बात सिद्ध होती है। परन्तु कार्यत्व में ही विवाद होने से 'अवयवो से उत्पन्न' इस बात में भी विवाद खडा ही है। इसलिए द्वितीय पक्ष में साध्यसम अर्थात् साध्य के समान असिद्ध है। __ तृतीयपक्ष में आकाश को लेकर लक्षण अनैकान्तिक (व्यभिचारी) बनता है। अर्थात् प्रदेशवाला होने से वह कार्य सावयव है। इस पक्ष में लक्षण व्यभिचारी है। क्योंकि आकाश सप्रदेशी होने पर भी अकार्य है। अर्थात् आकाश नित्य होने पर भी "यह घटाकाश", "यह मठाकाश" और "यह पटाकाश" है, ऐसे प्रदेश पडते है। इसलिए नैयायिको ने आकाश नित्य होने पर भी सप्रदेशी माना है और नित्य हो वह अकार्य होता है। इसलिए लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है। आकाश का सप्रदेशवत्व आगे सिद्ध किया जायेगा। ___ चौथे पक्ष में भी आकाश को लेकर लक्षण अनैकान्तिक (व्यभिचारी) बनता है। अर्थात् “यह
अवयववाला है," ऐसी बुद्धि जिसमें हो उसे सावयव कहा जाता है। उस पक्ष में आकाश को लेकर व्यभिचार आता है' वह इस तरह से-"यह पटाकाश है", "यह घटाकाश है", "यह मठाकाश है" इत्यादि अवयवोवाला आकाश भी दिखता है। फिर भी आकाश अकार्य ही है। उपरांत यदि आकाश को निरवयवी मानोंगे तो परमाणु की तरह सर्वव्यापित्व उसमें नहीं आ सकेगा। क्योंकि जैसे परमाणु निरवयव होने से जगत के एक छोटे से भाग में रहता है। वैसे आकाश को निरवयव मानोंगे तो वह भी सर्वजगत में व्याप्त नहि हो सकेगा। इसलिए आकाश सप्रदेशी होने पर भी नित्य होने के कारण अकार्य है। इस प्रकार आकाश को लेकर लक्षण व्यभिचारी बन जाता है।
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