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सानुवाद व्यवहारभाष्य
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प्रायश्चित्त दिया जाता है।
मध्यम उपधि के लिए एक लघुमास और जघन्य उपधि के लिए १२९. सज्झायस्स अकरणे, काउस्सग्गे तहा य पडिलेहा। पंचरात्रिक प्रायश्चित्त आता है। यह आरोपणा प्रायश्चित्त है।
पोसहिय-तवे य तधा, अवंदणा चेइयाणं च॥ १३३. चउ-छट्ठऽट्ठमऽकरणे, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग तथा प्रतिलेखना न करने पर,
अट्ठमि-पक्ख चउमास-वरिसे य। अष्टमी आदि पर्व तिथियों में तपोयुक्त पौषध न करने पर तथा
लहु-गुरु-लहुगा गुरुगा, चैत्य वंदन न करने पर मासलघु प्रायश्चित्त आता है।
अवंदणे चेइसाधूणं ।। १३०. सुत्तत्थपोरिसीणं, अकरणे मासो उ होति गुरु-लहुगो। .. अष्टमी और पक्खी के दिन उपवास न करने पर क्रमशः
चाउक्कालं पोरिसि उवाइणं तस्स चउलहुगा॥ मासलघु और मासगुरु, चातुर्मासिक बेला न करने पर चार - सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी न करने पर क्रमशः मासगुरु लघुमास और सांवत्सरिक तेला न करने पर चार गुरुमास तथा और मासलघु प्रायश्चित्त विहित है। चार काल की सूत्र पौरुषी इन पर्व तिथियों में चैत्यवंदन तथा अन्य उपाश्रय में स्थित मुनियों (दिन और रात के प्रथम और अंतिम प्रहर में स्वाध्याय) न करने को वंदना न करने पर प्रत्येक क्रिया मासलघु का प्रायश्चित्त पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्रात होता है।
विहित है। १३१. जइ उस्सग्गे न कुणति,
१३४. एतेसु तिठाणेसुं, भिक्खु जो वट्टती पमादेणं। तति मास निसण्णए निवण्णे य। सो मासियं ति लग्गति, उग्घातं वा अणुग्घातं॥ सव्वं चेवावासं,
. जो मुनि अगली गाथा (१३५) में उक्त स्थानों के प्रति न कुणति तहियं चउलहुं ति॥ प्रमादवश तीन-तीन बार अतिचार का सेवन करता है, उसे - मुनि प्रातः-सायं आवश्यक करते समय जितने कायोत्सर्ग उद्घातिक (लघु) अथवा अनुद्घातिक (गुरु) मासिक छेद नहीं करता, उसको उतने मास का प्रायश्चित्त आता है। (एक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (जितने लघु-गुरुमास का तपः कायोत्सर्ग न करने पर एक लघुमास, दो कायोत्सर्ग न करने पर प्रायश्चित्त होता है उसी अनुपात में छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता दो लघुमास और तीन कायोत्सर्ग न करने पर तीन लघुमास।) बैठे हुए या लेटे हुए तथा प्रावरण से प्रावृत होकर आवश्यक १३५. छक्काय चउसु लहुगा, परित्तलहुगा य गुरुग साहारे। करता है तो प्रत्येक का प्रायश्चित्त एक-एक लघुमास है। सर्वथा संघट्टण परितावण, लहु-गुरुगऽतिवायणे मूलं ।। आवश्यक का अनुष्ठान न करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त छह जीवनिकायों में से चार (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजप्राप्त होता है।
स्काय और वायुकाय) तथा प्रत्येक वनस्पतिकाय का संघटन१३२. चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंच उ जहन्ने।। परितापन करने पर लघु प्रायश्चित्त तथा साधारण वनस्पतिकाय
उवहिस्स अपेहाए, एसा खलु होति आरुवणा॥ का संघट्टन-परितापन करने पर गुरु प्रायश्चित्त और द्वीन्द्रिय उत्कृष्ट उपधि की प्रतिलेखना न करने पर चतुर्लघुमास, आदि जीवों के संघटन-परितापन करने पर यथायोग्य लघु अथवा
१. वृत्तिकार (पत्र ४४) इस विषय की विशेष जानकारी देते हुए कहते हैं-सचित्त अथवा मिश्र पृथ्वीकाय के रजःकणों से सने हुए अथवा सचित्त या मिश्र जल से आर्द्र हाथ या पात्र में भिक्षा ग्रहण करने वाले मुनि को पांच अहोरात्र का तपः प्रायश्चित्त आता है। वनस्पति के दो भेद हैं-परीत और अनंतकाय। प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं-पिष्ट, कुक्कुस और उत्कुटित। इस तीन प्रकार की सचित्त या मिश्र परीत वनस्पति से संस्पृष्ट हाथ या पात्र में भिक्षा ग्रहण करने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है।
पुरःकर्म और पश्चात्कर्म दोषयुक्त भिक्षा ग्रहण करने पर कुछ आचार्य लघुमास और कुछ आचार्य चार लघुमास के प्रायश्चित्त का विधान करते हैं।
बृहद्कल्प की चूर्णि में पुरःकर्म और पश्चात्कर्म में चतुर्लघु का प्रतिपादन है-'उक्तं च कल्पचूर्णी पुरकम्मपच्छाकम्मेहिं चउलहु।' २. अष्टमी को उपवास न करने पर मासलघु, पाक्षिक उपवास न करने
पर मासगुरु, चातुर्मासिक बेला न करने पर चतुर्मासलघु और सांवत्सरिक का तेला न करने पर चतुर्मासगुरु प्रायश्चित्त आता है।
(वृत्ति पत्र ४५) ३. प्रश्न होता है कि क्या अर्थपौरुषी से सूत्रपौरुषी बलवान है कि दोनों
के प्रायश्चित्त में गुरुलघु का भेद है ? अर्थ सूत्र के अधीन होता है। सूत्रपौरुषी यथाशक्ति सबको करनी होती है। सूत्र के अभाव में सर्वस्व का अभाव हो जाता है।
(वृत्ति पत्र ४५) ४. उपधि के दो प्रकार हैं-औधिक और औपग्रहिक। औधिक उपधि के तीन प्रकार हैं
उत्कृष्ट-पात्र और तीन कल्प (कंबल) मध्यम-पटल, रजस्त्राण, चोलपट्ट, मात्रक आदि। जघन्य-मुखपोतिका, पात्रकेसरिका, गोच्छग आदि।
(वृत्ति पत्र-४४)
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