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तीसरा उद्देशक
१६९६. कंकडुओ विव मासो, सिद्धिं न उवेति जस्स ववहारो । कुण हो वन सुज्झति, दुच्छेज्जो जस्स ववहारो ॥ १६९७. फलमिव पक्कं पडए, पक्कस्सऽहवा न गच्छते पागं । ववहारो तज्जोगा, ससिगुत्तसिरिव्व सन्नासे ॥ १६९८. पक्कुल्लोव्व भया वा, कज्जं पि न सेसया उदीरेंति । पाएण आहतो त्ति व उत्तर सोवाहणेणं ति ॥ १६९९. रोमंथयते कज्जे, चव्वागी नीरसं च विसनेत्तं । कहिते कहिते कज्जे, भणाति बधिरो व न सुतं मे ॥ १७००. मरहट्ठलाडपुच्छा, केरिसया लाडगुंठ साधिंसु ।
पावार भंडिछुभणं, दसिया गणणे पुणो दाणं ॥ १७०१. गुंठाहि एवमादीहि, हरति मोहित्तु तं तु ववहारं ।
अंबफरिसेहि अंबो, न ताणि सिद्धिं तु ववहारं ॥ कांकटुक -- कोरडू उडद पकाने पर भी नहीं पकता वैसे ही जिसका व्यवहार सिद्ध नहीं होता, वह कांकटुक है।
कुप-शव का मांस नख के समान तुच्छ होता है, वैसे ही इस व्यक्ति का व्यवहार दुच्छेद्य होता है, निर्मल नहीं होता।
पक्व—इसका व्यवहार पके हुए फल की भांति नीचे गिर जाता है अथवा उसके योग से व्यवहार पकता नहीं। जैसे चाणक्य के संन्यास लेने पर शशिगुप्त - चंद्रगुप्त की लक्ष्मी । अथवा जिसके ' पक्क' इस उल्लाप के भय से शेष व्यक्ति कार्य का भी कथन नहीं करते।
उत्तर- छलवचनों से उत्तर देना । एक व्यक्ति ने किसी को लात से मारा। पूछने पर कहता है-मैंने नहीं मारा। जूते युक्त पैर ने प्रहार किया है।
चार्वाकी - जैसे वृषभ का लिंग नीरस होने पर भी दूसरा वृषभ उसको चाटता है वैसे ही जो कार्य का रोमांथ - चबाए हुए को चबाना - इस प्रकार निष्फल करता है, वह चार्वाकी होता है। बधिर - जो कार्य के लिए कहे जाने पर बधिर की भांति कहता है- मैंने सुना ही नहीं ।
गुंठ - एक महाराष्ट्र देशवासी ने लाटदेशवासी से पूछालाटदेशवासी किस प्रकार के गुंठ-मायावी होते हैं। उसने कहाबताऊंगा। दोनों साथ-साथ चल रहे थे। महाराष्ट्रिक ने अपना कंबल उतार कर गाड़ी पर रख दिया। लाटदेशवासी ने उस कंबल की फलियां गिन ली। कंबल के स्वामित्व के विषय में दोनों में विवाद हुआ। महाराष्ट्रिक ने राजकुल में शिकायत की। ट कहा - यदि कंबल इसका है तो यह बताए कि कंबल की फलियां कितनी हैं ? महाराष्ट्रिक बता नहीं सका। लाट ने बता दिया । कंबल उसको दे दिया।
इस प्रकार माया आदि से मोहित कर जो प्रस्तुत व्यवहार का हरण करता है, उसका अपलाप करता है वह गुंठ समान होता
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है।
अम्ल-अम्लस्पर्श युक्त वचनों के कारण जो अम्लसदृश होता है, उसके वचनों से व्यवहार सिद्ध नहीं होता । १७०२. एते अकज्जकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि । जेहि कता ववहारा, खोडिज्जंतऽण्णरज्जेसु ॥ उस समय में उस गण में तगरा नगर में ये कांकटुक आदि आठ प्रकार के अकार्यकारी अव्यवहारी शिष्य थे। उनके द्वारा कृत व्यवहार अन्य राज्यों में अवांछनीय माने जाते थे। १७०३. इहलोए य अकित्ती, परलोए दुग्गती धुवा तेसिं ।
अणाणाय जिणिंदाण, जे ववहारं ववहरंति ॥
जो जिनेंद्र की अनाज्ञा से व्यवहार का व्यवहरण करते हैं। ( स्थापित कर उसका क्रियान्वयन करते हैं) उनकी इहलोक में अकीर्ति और परलोक में निश्चयरूप से दुर्गति होती है। १७०४. तेण न बहुस्सुतो वी, होति पमाणं अणायकारी तु ।
नाएण ववहरंतो, होति पमाणं जहा उ इमे ॥ इसलिए बहुश्रुत होकर भी जो अन्यायकारी होता है, वह प्रमाण नहीं होता। जो न्याय से व्यवहार करता है, वह प्रमाण होता है जैसे वक्ष्यमाण मुनि ।
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१७०५. कित्तेहि पूसमित्तं वीरं सिवकोट्ठगं व अज्जासं ।
अरहन्नग धम्मण्णग, खंदिल गोविंददत्तं च ॥ १७०६. एते उ कज्जकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि ।
जेहि कया ववहारा, अक्खोभा अण्णरज्जेसु ॥ १७०७. इहलोगम्मि य कित्ती, परलोगे सोग्गती धुवा तेसिं । आणाए जिणिदाणं, जे ववहारं ववहरंति ॥ इनकी प्रशंसा करो - पुष्यमित्र, वीर, शिवकोष्टक, आर्य आस, अर्हन्नक, धर्मान्वग, स्कन्दिल और गोपेन्द्रदत्त । उस युग तगरा नगर में ये आठ कार्यकारी - सुव्यवहारी मुनि थे। उनके द्वारा कृत व्यवहार-स्थापित व्यवहार अन्य राज्यों में अक्षोभ्य थे- अचलित थे। जो जिनेंद्रदेव की आज्ञा से व्यवहार का व्यवहरण करते हैं उनकी इहलोक में कीर्ति और परलोक में निश्चितरूप से सुगति होती है ।
१७०८. केरिसओ ववहारी आयरियस्स उ जुगप्पहाणस्स ।
जेण सगासेग्गहितं, परिवाडीहिं तिहि असेसं ॥ शिष्य ने पूछा- व्यवहारी कैसा होता है? आचार्य ने कहा- जिसने युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटियों से समस्त श्रुत-व्यवहार आदि का ग्रहण कर लिया है, वह व्यवहारी होता है।
१७०९. सुयपारायणं पढमं, बितियं
पदुब्भेदयं । तइयं च निरवसेसं, जदि सुज्झति गाहगो || तीन परिपाटियां ये हैं-पहली है श्रुत का पारायण, दूसरी है
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