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सानुवाद व्यवहारभाष्य
वर्षावास में नियमतः वसति अशून्य होनी चाहिए। उपधि स्वाध्याय आदि कर सकेंगे-इस निमित्त से वसति का परिकर्म को साथ ले जाने से कल्पाध्ययन में दोष वर्णित हैं। (वसति को करते हैं। जैसेशून्य कर जाने पर गाय आदि उसको तोड़ सकती है, भट आदि १७५४ उच्छेव बिलट्ठगणे, भूमीकम्मे समज्जणाऽऽमज्जे। आकर वहां अड्डा जमा सकते हैं।) इस स्थिति में ग्रामांतर जाना
कुड्डण लिंपणं दूमणं, च एयं तु परिकम्म॥ पड़ता है। वहां के मार्ग दुःसंचर हैं, मार्ग बहुत प्राणियों से संकुल वसति के ढहते हुए भाग को ठीक करने के लिए ईंट आदि हो गए हैं। शय्यातर उनको अनुकूल न मानकर उनके द्रव्यों का लगाना, बिलों को ढांकना,भूमीकर्म अर्थात् विषय भूमी को सम व्युच्छेद कर डालता है। ये दोष संभव हैं अतः वसति को शून्य। करना, गोबर आदि से लीपना, भींतों को लीपना, उनको चूने नहीं करना चाहिए।
आदि से पोतना-यह सारा परिकर्म है। १७४९. वासण दोण्ह लहुगा, आणादिविराधणा वसधिमादी। १७५५. जदि दक्किंतोच्छेवा,तति मास बिलेसु गुरुग सुद्धेसु। संथारग उवगरणे, गेलण्णे सल्लमरणे य॥
पंचेदियउद्दाते, एक-दुग-तिगे उ मूलादी॥ (इसलिए आचार्य और उपाध्याय को वर्षाकाल में जितने स्थानों पर ईंटें आदि लगायी गईं, उतने ही जघन्यतः स्वयं सहित तीन मुनियों से रहना चाहिए।)
लघुमासों का प्रायश्चित्त आता है। शुद्ध अर्थात् पंचेन्द्रिय प्राणी यदि वर्षाकाल में दो रहते हैं तो चार लघुमास का रहित बिलों का स्थगन करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग का दोष प्राप्त होता है तथा वसति आदि बिल-स्थगन से एक-दो-तीन पंचेन्द्रिय प्राणियों का व्याघात होने की विराधना होती है। संस्तारक, उपकरण तथा ग्लान और . पर मूल आदि प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (एक पंचेन्द्रिय का शल्यमरण विषयक अनेक दोष होते हैं। (व्याख्या अगली व्याघात होने पर मूल, दो का व्याघात होने पर अनवस्थाप्य तथा गाथाओं में।)
तीन का व्याघात होने पर पारांचित प्रायश्चित्त आता है।) १७५०. सुण्णं मोत्तुं वसहिं, भिक्खादी कारणओ जदि दो वि। १७५६. भूमीकम्मादीसु उ, फासुगदेसे उ होति मासलहू। वच्चंत ततो दोसा, गोणादीया हवंति इमे।।
सव्वम्मि लहुगा अफासुएण देसम्मि सव्वे य॥ यदि दोनों भिक्षा आदि के कारण वसति को शून्य कर जाते . वसति का देशतः भूमीकर्म यदि प्रासुक जल आदि से किया हैं तो गौ आदि के निमित्त से ये दोष होते हैं।
गया है तो प्रत्येक का एक लघुमास का प्रायश्चित्त, तथा संपूर्ण में १७५१. गोणे साणे छगले, सूगर-महिसे तहेव परिकम्मे।। प्रत्येक का चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। अप्रासुक जल
मिच्छत्तबडुगमादी, अच्छते सलिंगमादीणि॥ आदि से देशतः तथा सर्वतः करने पर प्रत्येक का चार लघुमास
गौ, कुत्ता, छगल, सूकर, महिष, गृहस्थ द्वारा परिकर्म, का प्रायश्चित्त है। मिथ्यात्वी बटुकों आदि का प्रवेश, यदि एक मुनि जाता है और १७५७. सोच्चा गत त्ति लहुगा, एक वसति में ही रहता है तो स्वलिंग प्रतिसेवना आदि का प्रसंग।
अप्पत्तिय गुरुग जं च वोच्छेदो। (व्याख्या आगे के श्लोको में।)
बडु-चारण-भडमरणे, १७५२. गोणादीय पविढे, धाडंतमधाडणे भवे लहुगा।
पाहुण निक्केयणा सुण्णे॥ अधिकरणवसधिभंगा तह पवयण-संजमे दोसा। जब शय्यातर यह सुनता है कि मुनि वसति से चले गए गाय आदि का वसति में प्रवेश कर लने पर यदि वहां और यदि उसके मन में अप्रीति नहीं होती है तो उसका प्रायश्चित्त उपस्थित मुनि उसको बाहर निकालने के लिए ताड़ित-प्रताड़ित है चार लघुमास तथा अप्रीति उत्पन्न होने पर प्रायश्चित्त है चार करता है तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि गुरुमास । यदि द्रव्य का व्यवच्छेद हुआ हो तो चार गुरुमास का धाड़ित नहीं करता है तो अधिकरण दोष संभव है तथा वसति का प्रायश्चित्त आता है। शून्य वसति में बटुक, चारण, भट आदि भंग और प्रवचन तथा सयंम में दोष लगता है।
आकर रह सकते हैं। कोई मनुष्य वहां आकर मर सकता है। १७५३. दुक्खं ठितेसु वसधी, परिकम्मं कीरति त्ति इति नाउं। प्राघूर्णक मुनि शय्यातर की अनुज्ञा से वहां रह सकते हैं, फिर
भिक्खादिनिग्गतेसुं, सअट्ठमीसं विमं कुज्जा॥ उनको निकालना कठिन होता है। (कोई तिरश्ची अथवा मानुषी
गृहस्थ सोचते हैं-साधुओं के वसति में रहते वसति का वहां शून्य वसति में प्रसव कर सकती है। उसका निष्कासन भी परिकर्म करना कष्टप्रद होता है, यह सोचकर, जब मुनि भिक्षा दोषयुक्त होता है। ये शून्य वसति के दोष हैं। आदि के निमित्त बाहर चले जाते हैं तब वे स्वार्थ-अपनी वसति १७५८. अह चिद्विति तत्थेगो, एगो हिंडति य उभयहा दोसा। को बलिष्ठ बनाने के लिए तथा मिश्र-मुनि भी सुखपूर्वक
सल्लिंगसेवणादी, आउत्थ परे उभयतो वा॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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