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शाला
नौवां उद्देशक
३३७ प्रकार की अन्य शालाएं होती हैं।
कल्पता। ३७२६. ववहारे उद्देसम्मि, नवमए जत्तिया भवे साला। ३७३२. छेदे वा लाभे वा, सागारिया जत्थ होति आभागी।
तासि परिपिंडिताणं, साधारणवज्जिते गहणं । __तं तु साधारणं जाणे, सेसमसाधारणं होति।। व्यवहार सूत्र के नौंवे उद्देशक में जितनी शालाओं का वर्णन विक्रेय भांड के जितने विभाग अथवा लाभ के जितने हैं उनका परिपिंडितरूप में तात्पर्यार्थ यह है कि इनमें शय्यातर के विभाग में शय्यातर सहभागी होता है, वह साधारण होता है, वह साथ अविभक्त व्यापार है, वहां से ग्रहण करने का प्रतिषेध है। नहीं कल्पता। शेष असाधारण होता है। साधारणवर्जित अर्थात् विभक्त व्यापार में ग्रहण किया जा सकता ३७३३. सच्चित्तअच्चित्तमीसेण, कयएण पउंजए साला।
तद्दव्वमन्नदव्वेण, होति साहारणं तं तु॥ ३७२७. साहारण सामन्नं, अविभत्तमछिन्नसंथडेगहूँ। शाला में सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य है। शाला में जो
साल त्ति आवणं ति य, पणियगिहं चेव एगहूँ॥ द्रव्य है वह तद्रव्य है। उसके अतिरिक्त द्रव्य अन्य द्रव्य है। वह
साधारण, सामान्य, अविभक्त, अच्छिन्न तथा असंस्तृत- साधारण अच्छिन्न द्रव्य है। वह भी उस शाला से ग्रहण करना ये एकार्थक हैं। शाला, आपण, पणित तथा गृह-ये एकार्थक हैं। नहीं कल्पता। ३७२८. साहारणा उ साला, दव्व मीसम्मि आवणे भंडे। ३७३४. तद्दव्वमन्नदव्वेण, वावि छिन्ने वि गहणमद्दिट्ट। साहरणऽवक्कजुत्ते, छिन्नं वोच्छं अछिन्नं वा॥
मा खलु पसंगदोसा, संछोभ भतिं व मुंचेज्जा।। शाला सामान्य है। वहां बिकने वाला जो द्रव्य है वह शालागत द्रव्य से वह अन्य द्रव्य यदि छिन्न है, विभक्त है, मिश्रित है अर्थात् अनेक व्यक्तियों का है। अथवा साधारण उसे शय्यातर द्वारा अदृष्ट होने पर ग्रहण करना कल्पता है। अवक्रय (भाड़े पर दिए गए) आपण अथवा भांड युक्त वह क्योंकि देखे जाने पर प्रसंगदोष हो सकता है, संक्षोभ अर्थात् साधारण शाला है। अब मैं छिन्न-अच्छिन्न की व्याख्या करूंगा।। प्रक्षेपदोष अथवा भृति-मूल्य आदि दिए जाने का प्रसंग हो ३७२९.पीलेंति एक्कतो वा,विकेंति व एक्कतो करिय तेल्लं। सकता है।
अधवा वि वक्कएणं, साधारणवक्कयं जाणे॥ ३७३५. जंपियन एति गहणं, फलकप्पासो सुरादि वा लोणं। अन्यान्य व्यक्तियों के तिलों को एकत्रित कर उनको पीला
फासुम्मि उ सामन्नं, न कप्पते जं तहिं पडितं॥ जाता है अथवा पृथक्-पृथक् तिलों को पीलकर तैल को एकत्र यद्यपि शाला की इन वस्तुओं का ग्रहण नहीं होता-फल, बेचा जाता है। अथवा वक्रय-भाड़े से साधारण शाला व्यापार के कार्पास, सुरा, लवण आदि। प्रासुक वस्त्र आदि जो शाला में है लिए ली गई है। वहां जो भांड प्राप्त होता है, वह शय्यातर तथा । उनका भी शय्यातर के साथ सामान्य होने के कारण ग्रहण नहीं अन्य से संबंधित होता है। यह साधारण अवक्रयप्रयुक्त माना कल्पता। जाता है।
३७३६. अंडज-बोंडज-वालज, वागज तह कीडजाण वत्थाणं। ३७३०. पीलितविरेडितम्मी, पुव्वगमेणं तु गहणमादिठे।
नाणादिसागताणं, साधारणवज्जिते गहणं॥ एगत्थ विक्कयम्मी, अमेलियादिट्ठ अन्नत्थ ॥ वस्त्रों के प्रकार-अंडज-वसरिसूत्र से निष्पन्न,
अनेक लोगों के तिलों को एकत्रित कर, उनको एक साथ वोडज-कासिक सूत्र से निष्पन्न, बालज-बालों से निष्पन्न, पीलकर तैल निकाला गया और फिर तैल का विभाग कर दिया वागज-वल्कल अथवा शण से निष्पन्न, कीटज-कीड़ों से तो पूर्व प्रकार से शय्यातर के न देखे जाने पर उस तैल का ग्रहण निष्पन्न-ये वस्त्र नाना दिशाओं से प्राप्त होते हैं। ये यदि शाला में होता है। वह तैल यदि एकत्र बेचा जाता है और जब तक प्राप्त साधारण-वर्जित हों, शय्यातर से विभक्त हों, तो इनका ग्रहण मूल्य का विभक्तीकरण नहीं होता तब तक वह तैल नहीं कल्पता।। किया जा सकता है। मूल्य का विभक्तीकरण हो जाने पर वह कल्पता है। यदि वह ३७३७. सागारियम्मि पगते, साधारणए य समणुवत्तंते। व्यक्ति तैल को अपने आप अन्यत्र ले जाता है तो वह कल्पता है।
ओसहिफलसुत्ताणं, वंजणनाणत्तओ जोगो।। ३७३१. जो उ लाभगभागेण, पउत्तो होति आवणो। सागारिक अर्थात् शय्यातर के अधिकार में साधारण के
सो उ साहारणो होति, तत्थ घेत्तुं न कप्पति॥ समनुवर्तन के आधार पर औषधि, फल सूत्रों का उपनिपात किया
जो आपण शय्यातर के साथ लाभ के विभाग से प्रयुक्त । गया है। इसका कारण है व्यंजनों का नानात्व। यही पूर्वसूत्र के होता है, वह साधारण आपण होता है। वहां कुछ भी लेना नहीं साथ प्रस्तुत सूत्र का योग है, संबंध है।
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