________________
नौवां उद्देशक
३७०३. आहारो खलु पगतो, घेत्तव्वो सो कहिं न वा कधितं। दो अर्थात् पहले और तीसरे सूत्र में सागारिक के दोष के
सागारियपिंडस्सा, इति नवमे सुत्तसंबंधो॥ कारण अर्थात् शय्यातरपिंड होने के कारण वह नहीं कल्पता तथा
आहार का अधिकार है। उस (शय्यातरपिंड को) कहां दो अर्थात् दूसरे और चौथे सूत्र में प्रसंगदोष-भद्रक-प्रांत आदि लेना चाहिए और कहां नहीं लेना चाहिए, वह प्रस्तुत सूत्र में दोषों से युक्त होता है। वे दोष ये हैंप्रतिपादित है। यह नौवें उद्देशक के सागारिकपिंड (शय्यातर) का ३७०९. एतेण उवाएणं, गिण्हती भद्दउम्गमेगतरं। प्रतिपादक पहला सूत्र है। यही पूर्वसूत्र से संबंध है।
पंतो दुदिट्ठधम्मा, विणास गरहा दिय निसिं वा॥ ३७०४. आयासकरो आएसितो उ आवेसणं व आविसति। भद्रक सोचता है-इस उपाय से मेरा पिंड साधु ग्रहण
सो नायगो सुही वा, पभू व परतित्थिओ वावि॥ करेंगे-ऐसा सोचकर वह उद्गम आदि दोषों में कोई एक दोष आयासकर अर्थात् आयास-श्रम कराने वाला अथवा लगाकर पिंड निष्पन्न करता है। प्रांत दुर्दृष्टधर्मा होता है, वह रातआदिशित अर्थात् सत्कारपूर्वक बुलाया जाने वाला-आदेश दिन उस पिंड के ग्रहण का विनाश अथवा गर्दा करता है। कहलाता है। अथवा जिस स्थान पर प्रविष्ट होकर आयास पैदा ३७१०. सुत्तम्मि कम्पति त्ति य, वुत्ते किं अत्थतो निसेधेह। करता है वह आदेश अथवा आवेश कहलाता है। वह ज्ञातिक,
एगतरदोस कालिय, सुत्तनिवातो इमेहिं तु॥ सुहृद्, प्रभु अथवा परतीर्थिक हो सकता है।
जिज्ञासु ने कहा-सूत्र में 'कल्पता है'-ऐसा कहा गया है, ३७०५. आएस-दास-भइए, अट्ठहि सुत्तेहि मग्गणा जत्थ। फिर भी आप अर्थ के आधार पर उसका निषेध क्यों करते हैं?
सागारियदोसेहि य, पसंगदोसेहि आगज्झो॥ आचार्य कहते हैं-भद्रकदोषप्रसंग अथवा प्रांतदोषप्रसंग-इनमें से
आदेश, दास और भृतक-इनकी आठ सूत्रों से मार्गणा की कोई एक का आपादन होता है, इसलिए निषेध किया गया है। गई है। सागारिक दोषों तथा प्रसंग दोषों से पिंड अग्राह्य होता है। सूत्र में 'कल्पता है'-ऐसा क्यों कहा गया? इन कारणों से ३७०६. तत्थादिमाइ चउरो, आदेसे सुत्तमाहिया। कालिकसूत्र का निपात होता है।
दोच्चेव पाडिहारी, अपाडिहारी भवे दोण्णि॥ ३७११. जंजह सुत्ते भणियं, तधेव तं जइ वियालणा नत्थि। आठ सूत्रों का विभाग-प्रथम चार सूत्र आदेश के विषय में
किं कालियाणुओगो, दिट्ठो दिट्ठिप्पहाणेहिं। हैं। उनमें भी दो सूत्र (पहला तथा तीसरा सूत्र) प्रातिहारिणी तथा यदि कालिकसूत्र में जो कहा गया है उसे वैसे ही स्वीकार दो सूत्र (दूसरा और चौथा सूत्र) अप्रातिहारिणी से संबंधित हैं। करना है, उसके विषय में कोई विचारणा नहीं होती, तो फिर ३७०७. अंतो बहिं वावि निवेसणस्स,
दृष्टिप्रधान अर्थात् युगप्रधान आचार्यों ने कालिकानुयोग क्यों आदेसएणं व ठिते सगारे।। कहा? भत्तं न एयस्स विसेसजुत्तं,
३७१२. अद्दिट्ठस्स उ गहणं, अधवा सागारियं तु वज्जेत्ता। तम्मी दलते खलु सुत्तबंधो॥
अन्नो पेच्छउ मा वा, पेच्छंते वावि वच्चंता।। घर के अंदर अथवा बहिर् शय्यातर आदेश (प्राघूर्णक) के कालिकसूत्रनिपात के कारणसाथ स्थित हो और भक्त शय्यातर के लिए विशेषरूप से बनाया अदृष्ट का ग्रहण (दिया जाता हुआ न दिखे, उसका ग्रहण), गया हो, वह यदि प्राघूर्णक मुनि को देता है-यह सूत्रबंध-सूत्र अथवा शय्यातर को छोड़कर दूसरा कोई व्यक्ति दीयमान को देखे का प्रतिपाद्य है।
या न देखे अथवा शय्यातर के देखे जाने पर भी जाते हए नहीं ३७०८. सागारियस्स दोसा, दोसुं दोसुं पसंगतो दोसा। ठहरते, केवल दानवेला में उसकी दृष्टि का परिहार करते हैं।
भद्दगपंतादीया, होति इमे ऊ मुणेयव्वा॥ इसीलिए सूत्र में 'कल्पता है ऐसा कहा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org