Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 447
________________ ४०८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ४६७८. जा जस्स होति लद्धी, उल्लेख क्यों नहीं किया? क्या तीर्थंकर का वैयावृत्त्य नहीं करना तं तु न हावेति संत विरियम्मि।। चाहिए? क्या उसमें निर्जरा नहीं होती? ऐसा कहने पर आचार्य एयाणुत्तत्थाणि तु, कहते हैंपायं किंचित्थ वुच्छामि॥ ४६८५. आयरियग्गहणेणं, तित्थयरो तत्थ होति गहितो तु। जिसमें जिस विषय की लब्धि हो वह शक्ति होते हुए उसका किं व न होयायरिओ, आयारं उवदिसंतो उ॥ गोपन न करे। उपरोक्त तेरह पद सुप्रतीत हैं, फिर भी कुछेक पदों ४६८६. निदरिसण जध मेत्थ खंदएण पुट्ठो उ गोतमो भयवं। के विषय में कहूंगा। केण तु तुब्भं सिटुं, धम्मायरिएण पच्चाह॥ ४६७९. पादपरिकम्म पादे, ओसह-भेसज्ज देति अच्छीणं। आचार्य के ग्रहण से तीर्थंकर स्वयं गृहीत हो जाते हैं-क्या अद्धाणे उवगेण्हति, राया दुद्वे य नित्थारे॥ आचार का उपदेश देने वाला आचार्य नहीं होता? (तीर्थंकर ४६८०. सरीरोवहितेणेहि,सा रक्खति सति बलम्मि संतम्मि। धर्माचार्य होते हैं वे आचार का उपदेश देते हैं। यहां यह निदर्शन दंडग्गहणं कुणती, गेलण्णे यावि जं जोग्गं॥ है। स्कंदक ने भगवान् गौतम से पूछा-तुमको यह किसने कहा? ४६८१. उच्चारे पासवणे, खेले मत्तयतिगं तिविधमेयं। गौतम ने उत्तर दिया-धर्माचार्य भगवान् महावीर ने।) सव्वेसिं कायव्वं, साहम्मिय तत्थिमो विसेसो॥ (भगवान् महावीर ने गौतम से कहा-'गौतम! आज तुम ‘पाद' का अर्थ है पाद परिकर्म करता है, आवश्यकतावश अपने पूर्व मित्र को देखोगे।' औषध पिलाता है, अक्षी-चक्षु के रोग में भेषज देता है, इतने में ही स्कंदक संन्यासी को निकट आते हुए देखकर अध्वा-मार्गगत मुनियों के उपधि स्वयं ढोकर उन्हें सहयोग देना गौतम सामने गए और कहा-स्कंदक! तुम पिंगल के प्रश्न का है। राजा द्विष्ट हो जाने पर मुनियों के निस्तारण का उपाय करता समाधान पाने यहां आए हो? स्कंदक ने गौतम से पूछा-मेरे मन है। शरीरस्तेन तथा उपधिस्तेनों से अपनी शक्ति विद्यमान होने की बात तुमको किसने बतलाई ? गौतम ने तक कहा-भगवान् पर उनका संरक्षण करता है। मुनियों का दंडग्रहण करता है। महावीर मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक हैं। उन्होंने मुझे यह ग्लान की यथायोग्य सेवा करता है। रहस्य बताया है।) तीर्थंकर धर्माचार्य होते ही हैं। उच्चार, प्रस्रवण और श्लेष्म-इन तीनों के लिए तीन ४६८७. तम्हा सिद्धं एयं, आयरिगहणेण गहिय तित्थगरो। मात्रक हैं। इनको यथा समय उपहृत करता है। यह त्रयोदश आयरियादी दस वी, तेरस गुण होंति कायव्व।। पदात्मक वैयावृत्त्य आचार्य आदि सभी का त्रिविध-मन, वचन, ४६८८. तीसुत्तरसयमेगं, ठाणाणं वण्णितं तु सुत्तम्मि। काया से करना चाहिए। साधर्मिक के लिए विशेष ज्ञातव्य है। वेयावच्चसुविहितं, नेम्मं निव्वाणमग्गस्स।। ४६८२. होज्ज गिलाणो निण्हव, _ अतः यह सिद्ध है कि आचार्य के ग्रहण से तीर्थंकर गृहीत न य तत्थ विसेस जाणति जणो तु। हो जाते हैं। आचार्य आदि दसों को तेरह पदों से गुणित करना तुब्भत्थं पव्वतितो, चाहिए। इस प्रकार सूत्र में वैयावृत्त्य विषयक एक सौ तीस न तरती किण्णु कुणह तस्स॥ (१०x१३)स्थान वर्णित हैं। सुविहित मुनियों के लिए यह ४६८३. ताहे मा उड्डाहो, होउ त्ती तस्स फासुएणं ति। निर्वाणप्राप्ति का मार्ग है। पडुयारेण करोती, चोदेती एत्थ अह सीसो॥ ४६८९. ववहारे दसमए उ, दसविह साहुस्स जुत्तजोगस्स। एक गांव में एक निन्हव ग्लान है। वहां के लोग विशेष रूप एगंतनिज्जरा से, न हु नवरि कयम्मि सज्झाए।। से नहीं जानते कि निन्हव कौन होता है। वे सुविहित साधुओं को व्यवहार सूत्र के दशवें उद्देशक में दस प्रकार का वैयावृत्त्य कहते हैं-आपका एक प्रव्रजित मुनि ग्लान है। वह कुछ नहीं कर प्ररूपित है। उसमें जो युक्तयोगवाला साधु है-जो इस वैयावृत्त्य में सकता। क्या आप उसका वैयावृत्त्य नहीं कर सकते? तब वे अपने योगों को संयुक्त करता है, उस साधु के एकांत निर्जरा होती सुविहित मुनि सोचते हैं-प्रवचन का उड्डाह न हो, इसलिए वे है। केवल स्वाध्याय करने वाले के एकांत निर्जरा नहीं होती। उसकी प्रासुक प्रत्यवतार-भक्त, पान आदि से वैयावृत्त्य करते हैं। ४६९०. एसोऽणुगमो भणितो, शिष्य प्रश्न करता है अहुणा नयो सो य होति दुविधो उ। ४६८४. तित्थगरवेयवच्चं, किं भणियमेत्थ तु किं न कायव्वं । नाणनओ चरणणओ, किं वा न होति निज्जर, तहियं अह बेति आयरिओ।। तेसि समासं तु वुच्छामि।। इन दस प्रकार के वैयावृत्त्यों में तीर्थंकर के वैयावृत्त्य का यह अनुगम कहा गया है। अब नय की वक्तव्यता है। नय के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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