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दसवां उद्देशक
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४६६३. तेरसवासे कप्पति, उट्ठाणसुते तधा समुट्ठाणे।
देविंदपरियावणिय, नागाण तधेव परियाणी॥
तेरह वर्ष की संयम-पर्याय वाले मुनि को उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, देवेंद्रपरियापनिका तथा नागपरियाणी (परियापनिका) का उद्देशन कल्पता है। ४६६४. परियट्टिज्जति जहियं, उट्ठाणसुतं तु तत्थ उद्वेति।
कूल-गाम-देसमादी, समुट्ठाणसुते निविस्संति ।। ४६६५. देविंदा नागा विय, परियाणीएस एंति ते दो वी।
चोद्दसवासुद्दिसती, महासुमिणभावणज्झयणं॥
जहां उत्थानश्रुत का परावर्तन होता है वहां कुल, ग्राम और देश उद्वसित हो जाते हैं, उजड़ जाते हैं और जब समुत्थान श्रुत का परावर्तन होता है तब कुल, ग्राम और देश पुनः आबाद हो जाते हैं।
देवेंद्रपरियापनिका का परावर्तन करने पर देवेंद्र तथा नागपरियापनिका का परावर्तन करने पर नाग देवता-ये दोनों आते
हैं।
. चौदह वर्ष की संयमपर्याय वाले मुनि को महास्वप्नभावनाध्ययन की वाचना दी जा सकती है। ४६६६. एत्थं तिसइ सुमिणा, बायाला चेव होंति महसुमिणा।
बावत्तरिसव्वसुमिणा, वणिज्जंते फलं तेसिं॥ इस महास्वप्नभावनाध्ययन में तीस सामान्य स्वप्न तथा बयालीस महास्वप्नों का वर्णन है तथा उनके फलों का भी कथन
४६७०. दिट्ठीवाए पुण होति, सव्वभावणा रूवणं नियमा।
सव्वसुत्ताणुवादी, वीसतिवासे उ बोधव्वो॥
दृष्टिवाद में सर्वभावों का निरूपण है। नियमतः बीस वर्ष में मुनि सर्वश्रुतानुपाती होता है, यह जानना चाहिए। ४६७१. चउद्दससहस्साई, पइण्णगाणं तु वद्धमाणस्स।
सेसाण जत्तिया खल, सीसा पत्तेयबुद्धा उ॥ भगवान् वर्द्धमान के चौदह हजार प्रकीर्णककर्ता निग्रंथ थे। शेष तीर्थंकरों के जितने शिष्य थे उतने ही प्रकीर्णककर्ता तथा उतने ही प्रत्येकबुद्ध थे। ४६७२. पत्तस्स पत्तकाले, एतेणं जो उ उद्दिसे तस्स।
निज्जरलाभो विपुलो, किध पुण तं मे निसामेह।
जो पात्र को प्राप्तकाल-निर्दिष्टकाल में प्रकीर्णकों को उद्दिष्ट करता है, उसको विपुल निर्जरालाभ होता है। उस विपुल निर्जरालाभ को मैं कहता हूं, तुम सुनो। ४६७३. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो।
अन्नयरगम्मि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेण ॥
संयमयोगों में से किसी संयमयोग में आयुक्त मुनि प्रतिसमय असंख्येयभवोपार्जित कर्मों का क्षय करता है। स्वाध्याय में आयुक्त मुनि विशेष करता है। ४६७४. आयारमादियाण, अंगाणं जाव दिट्ठिवाओ तु।
एस विही विण्णेओ, सव्वेसिं आणुपुव्वीए।
आचारांग से दृष्टिवाद पर्यंत सभी अंगों का आनुपूर्वी से वाचना देने की इस विधि को भलीभांति जान लेना चाहिए। ४६७५. दसविहवेयावच्चं, इमं समासेण होति विण्णेयं ।
आयरियउवज्झाए, थेरे य तवस्सि सेहे य॥ ४६७६. अतरंत कुलगणे या, संघे साधम्मिवेयवच्चे य।
एतेसिं तु दसण्हं, कातव्वं तेरसपदेहिं।। यह दस प्रकार का वैयावृत्त्य संक्षेप में इस प्रकार हैआचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, अतर अर्थात् ग्लान, कुल, गण, संघ और साधर्मिक-इन दसों का वैयावृत्त्य करना दस प्रकार का वैयावृत्त्य कहलाता है। इस वैयावृत्त्य को तेरह पदों (स्थानों) से करना चाहिए। ४६७७. भत्ते पाणे सयणासणे य पडिलेहण पायमच्छिमद्धाणे।
राया तेणं दंडग्गहे य गेलण्णमत्ते य॥ तेरह पद ये हैं
१. भक्त २. पान ३. शयन ४. आसन ५. प्रतिलेखन ६. पादप्रमार्जन ७. अक्षिरोगी को औषध ८. अध्वाप्रपन्न को सहयोग ९. राजाद्विष्ट का निस्तारण (राजा के विपरीत होने पर उसका समाधान करना) १०. चोरों से संरक्षण ११. रत्नाधिकों का दंडग्रहण १२. ग्लान की सेवा १३. मात्रत्रिक की प्रस्तुति।
४६६७. पण्णरसे चारणभावणं ती उद्दिसते तु अज्झयणं।
। चारणलद्धी तहियं, उप्पज्जती तु अधीतम्मि।
पंद्रह वर्ष की संयम-पर्याय वाले श्रमण निग्रंथ को चारणभावना नामक अध्ययन उद्दिष्ट किया जा सकता है। उसके अध्ययन से चारणलब्धि उत्पन्न होती है। ४६६८. तेयनिसग्गा सोलस, आसीविसभावणं च सत्तरसे।
दिट्ठीविसमट्ठारस, उगुणवीस दिट्ठिवाओ तु॥
सोलह वर्ष की संयम-पर्याय वाले को तेजोनिसर्ग नामक अध्ययन, सतरह वर्ष की संयम-पर्याय वाले को आसीविषभावना, अठारह वर्ष की संयम-पर्याय वाले को दृष्टिविषभावना तथा उन्नीस वर्ष की संयम-पर्याय वाले को दृष्टिवाद की उद्देशना की जा सकती है। ४६६९. तेयस्स निसरणं खलु, आसिविसत्तं तहेव दिट्ठिविसं।
लद्धीओ समुप्पज्जे, समधीतेसुं तु एतेसुं॥
तेजोनिसर्ग आदि के अध्ययन से तेज का निस्सरण, आसीविषत्व, दृष्टिविष आदि लब्धियां समुत्पन्न होती हैं।
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