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दसवां उद्देशक
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पात्र की विराधना हो सकती है। अतिथियों को देखकर वह वमन करने लगता है। शैक्ष के प्रति जुगुप्सा होती है। वे कहते हैं-सभी दुर्दृष्टधर्मा अर्थात् दुष्टधर्मा हैं। ४६३६. जलमूग-एलमूगो, सरीरजड्डो य जो य अतिथुल्लो।
जं वुत्तं तु विवेगो, भूमितियं ते न दिक्खेज्जा।
जो पहले कहा गया है कि 'भूमीत्रिक का विवेक'- इसका तात्पर्य है कि जड़मूक, एड़मूक, और शरीरजड़-ये अतिस्थूल हों तो इन्हें दीक्षित नहीं करना चाहिए। ४६३७. दुम्मेहमणतिसेसी,
न जाणती जो य करणतो जड्डो। ते दोन्नि वि तेण उ सो,
दिक्खेति सिया उ अतिसेसी॥ जो दुर्मेधा है, करणजड़ है उसको अनतिशायी ज्ञान वाला नहीं जानता। इन दोनों को वह दीक्षित कर सकता है। यदि वह अतिशायी ज्ञान वाला है तो इन्हें दीक्षित न करे। ४६३८. अहव न भासाजहो, जहाति ति परंपरागतं छउमो।
इतरं पि देसहिंडग, असतीए वा विगिंचेज्जा॥
छद्मस्थ परंपरागत भाषाजड़ का परित्याग नहीं करता। देशहिंडक न होने पर करणजड़ को दीक्षित करे। अन्य साधु होने पर उसका परिष्ठापन कर दे-छोड़ दे। ४६३९. मासतुसानातेणं, दुम्मेहं तं पि केइ इच्छंति।
तं न भवति पलिमंथो, न यावि चरणं विणा णाणं॥ कुछेक आचार्य /मुनि दुर्मेधा शिष्य जो केवल माष-तुष को जानता है उसको दीक्षित करना चाहते हैं। यह नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसे दुर्मेधा वाले व्यक्ति को दीक्षित करने से सूत्रार्थ का पलिमंथ होता है तथा ज्ञान के बिना चरण भी नहीं होता। ४६४०. नातिथुल्लं न उज्झंति मेहावी जो य बोब्बडो।
जलमूग-एलमूगं, परिठ्ठावेज्ज दोन्नि वि॥
अतिस्थूल का परित्याग कर देना चाहिए। जो मेधावी है, भाषाजड़ है,उसको नहीं छोड़ना चाहिए। जड़मूल (जलमूक) तथा एड़कमूक-इन दोनों का परिष्ठापन-त्याग कर देना चाहिए। ४६४१. मोत्तूण करणजहुं, परियटुंति जाव सेस छम्मासा।
एक्केक्कं छम्मासा, जस्स य द8 विविंचणया।। करणजड़ के अतिरिक्त जो दुर्मेधा तथा भाषाजड़ हैं उनका आचार्य छह मास तक अनुवर्तन करे। फिर दूसरा, तीसरा आचार्य-प्रत्येक छह-छह मास तक उनका अनुवर्तन करे। जिसको देखकर वह शिक्षा लेता है उसी आचार्य को उसका विवेचन-दान कर देना चाहिए। ४६४२. तिण्हं आयरियाणं, जो णं गाहेति सीस तस्सेव।
जदि एत्तिएणं गाहितो न परिट्ठावए ताहे।
तीन आचार्यों में जो शिक्षा ग्रहण करवाता है उसी का वह शिष्य होता है। यदि तीनों आचार्यों ने मिलकर उसे शिक्षित किया है तब उसे परिस्थापित (उपसंपन्न) नहीं करते। ४६४३. देति अजंगमथेराण, वावि य जह दट्ठ णं जो उ।
भणति मज्झं कज्जं, दज्जिति तस्सेव सो ताधे॥
उसे अजंगम स्थविर को देते हैं अथवा जो उसको देखकर कहता है-इससे मेरा प्रयोजन है, तो उसी को वह दिया जाता है। ४६४४. जो पुण करणे जड्डो, उक्कोसं तस्स होति छम्मासा।
___कुल-गण-संघनिवेदण, एयं तु विहिं तहिं कुज्जा॥
जो करणजड़ होता है, उसकी उत्कृष्ट परिपालना छह मास तक होती है। उसके पश्चात् कुल, गण और संघ को निवेदन करने पर वे जो कहते हैं उसी विधि का पालन करे। ४६४५. पव्वज्जापरियाओ, वुत्तो सेहो ठविज्जए जत्थ।
जम्मणपरियागस्स उ, विजाणणट्ठा इमं सुत्तं ॥ पूर्वसूत्र में शैक्ष को स्थापित करने का प्रव्रज्यापर्याय कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र उसी के जन्मपर्याय को जानने के लिए है। ४६४६. ऊणऽट्ठए चरित्तं, न चिट्ठए चालणीय उदगं वा।
बालस्स य जे दोसा, भणिता आरोवणा जा य॥
चालनी में जैसे पानी नहीं ठहरता वैसे ही आठ वर्ष के (आठ वर्ष से न्यून) बालक में चारित्र नहीं ठहरता। बालक विषयक जो दोष कहे गए हैं उनका तथा आरोपणा दोषों का प्रसंग आता है। ४६४७. काय-वइ-मणोजोगो,
हवंति तस्स अणवट्ठिया जम्हा। संबंधि अणाभोगे,
ओमे सहसाऽववादेणं॥ बालक के काय-वाङ्-मनोयोग अनवस्थित होते है। वह यदि संबंधी हो, जन्मपर्याय ज्ञात न होने पर, दुर्भिक्ष काल में, सहसाकार-अचानक तथा अपवाद रूप से आठ वर्ष से न्यून बालक की भी उपस्थापना की जा सकती है। ४६४८. मुंजिस्से स मया सद्धिं नीओ नेच्छति संपयं।
सो व नेहेण संबंधो, कहं चिट्ठज्ज तं विणा॥ 'यह बालक मेरे साथ भोजन करेगा' यह कहकर आचार्य उसे मंडली में ले जाते हैं। अभी वह उस आचार्य के बिना भोजन करना नहीं चाहता। आचार्य का उसके साथ स्नेहसंबंध है, अतः वह उसके बिना कैसे रह सकता है ? ४६४९. अणुवट्ठवितो एसो, संभुंजति मा बुवेज्ज अपरिणतो।
ताहे उवठ्ठाविज्जति, तो णं संभुंजणं ताहे।
अपरिणत शिष्य ऐसा न कह दे कि उपस्थापना के बिना भी यह साथ भोजन करता है। अतः आचार्य उसे उपस्थापना दे देते
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