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दसवां उद्देशक
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दो प्रकार हैं-ज्ञाननय और चरणनय (क्रियानय)। मैं इनको संक्षेप में कहूंगा। ४६९१. नायम्मि गिव्हियव्वे,अगिण्हितव्वम्मि चेव अत्थम्मि।
जइयव्वमेव इति जो, उवदेसो सो नयो नाम ।
अर्थ को भलीभांति जान लेने पर उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए-यह जो उपदेश है वह नय है। ४६९२. सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता।
तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणद्वितो साधू॥
सभी नयों की बहुविध वक्तव्यता को सुनकर जो सर्वनयविशुद्ध-सर्वनयसम्मत वचन है, वह चरणगुणस्थित अर्थात् चारित्र (क्रिया) और ज्ञान में स्थित होने के कारण प्रशस्त है। ४६९३. कप्पव्ववहाराणं, भासं मोत्तूण वित्थरं सव्वं ।
पुव्वायरिएहि कयं, सीसाण हितोवदेसत्थं ।। कल्प और व्यवहार के महाभाष्य को छोड़कर, पूर्वाचार्यों ने इसका सारा विस्तार शिष्यों के हितोपदेश के लिए किया है। ४६९४. भवसयसहस्समहणं, एयं णाहिंति जे उ काहिंति।
कम्मरयविप्पमुक्का, मोक्खमविग्घेण गच्छंति।।
जो इस व्यवहारसूत्र/भाष्य को जानेंगे वे भवशतसहस्र के पापों को नष्ट कर, कर्मरजों से विप्रमुक्त होकर निर्विघ्नरूप से मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे।
दसवां उद्देशक समाप्त
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