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दसवां उद्देशक
४०१ करने लगा। एक मुनि ने यह देखा। वह मुनि वादलब्धिसंपन्न तथा नहीं। २. दृढ़धर्मा होते हैं, पियधर्मा नहीं ३. प्रियधर्मा भी और आकाशगामिनी विद्या का ज्ञाता था। उसने राजा द्वारा की जाने दृदधर्मा भी ४. न दृदधर्मा और न प्रियधर्मा।) वाली प्रवचन की अवहेलना से बचने के लिए गृहलिंग अथवा ४५८६. वेयावच्चेण मुणी, उवचिट्टति संगहेण पियधम्मो। अन्यलिंग का वेश बनाया और वह राजा के समक्ष वाद करने के
उवचिट्ठति दढधम्मो, सव्वेसिं निरतियारो य॥ लिए उपस्थित हुआ। दोनों-राजा और मुनि में वाद प्रारंभ हुआ। प्रियधर्मा मुनि वैयावृत्त्य और गणसंग्रहण में लगा रहता है। राजा अपने पक्ष का भी निर्वाह नहीं कर सका, परंतु राज्यत्व के
दृढधर्मा मुनि सभी के वैयावृत्त्य में लगा रहता है। वह सर्वत्र मद से मुनि की अवहेलना करने लगा। तब मुनि उस दुरात्मा
निरतिचार होता है। राजा के शिर पर पाद-प्रहार कर, उसे पैरों से रौंदकर वायु की
४५८७. दसविधवेयावच्चे अन्नयरे खिप्पमुज्जम कुणति। भांति आकाश-मार्ग से पलायन कर अपने स्थान पर आ गया।
अच्चंतमणिव्वाही, घिति-विरियकिसे पढमभंगो॥ यह प्रथम भंगवर्ती पुरुष का उदाहरण है।
जो दसप्रकार के वैयावृत्त्य में से किसी एक में शीघ्र उद्यम ४५८१. गणसंठिति धम्मे या, चउरो भंगा हवंति नातव्वा।
करता है किंतु धृति और वीर्य की कृशता-कमी के कारण उसका गणसंठिति अस्सिस्से महकप्पसुतं न दातव्वं ॥
अंत तक निर्वाह नहीं करता वह है प्रथम भंगवर्ती पुरुष अर्थात् गणसंस्थिति और धर्म के आधार पर पुरुषों के चार
प्रियधर्मा है, पर दृढ़धर्मा नहीं। विकल्प होते है। गणसंस्थिति अर्थात् गण की मर्यादा यह है कि
४५८८. दुक्खेण उ गहिज्जति, अशिष्य-अयोग्य शिष्य को महाकल्पश्रुत की वाचना नहीं देनी
बितिओ गहितं तु नेति जा तीरं। चाहिए। ये चार विकल्प इस प्रकार हैं
उभयत्तो कल्लाणो, ४५८२. सातिसयं इतरं वा, अन्नगणिच्च ण देयमज्झयणं।
ततिओ चरिमो य पडिकुट्ठो॥ इति गणसंठितीए उ, करेंति सच्छंदतो केई ॥
दूसरा पुरुष वैयावृत्त्य का महान् कष्ट से पार पाता है (वह ४५८३. पत्ते देंतो पढमो, बितिओ भंगो न कस्सइ वि देतो।
प्रियधर्मा नहीं, दृढ़धर्मा है।) तीसरा पुरुष जो प्रतिज्ञा ग्रहण करता जो पुण अपत्तदायी, ततिओ भंगो उ तं पप्प॥
है उसको तीर तक ले जाता है। उसका उभयतः कल्याण है। (वह ४५८४. सयमेव दिसाबंधं, काऊण पडिच्छगस्स जो देति।
प्रियधर्मा भी है और दृढ़धर्मा भी)। चौथा पुरुष प्रतिकुष्टउभयमवलंबमाणं, कामं तु तगं पि पुज्जामो॥
हीलनीय होता है। (वह न प्रियधर्मा है और न दढधर्मा। कोई आचार्य स्वच्छंदता से इस प्रकार की गणसंस्थिति करते हैं कि सातिशय अध्ययन-महाकल्पश्रुत अथवा अन्य कोई
४५८९. अदढप्पियधम्माणं, तं वि य धम्मो करेंति आयरिए। अध्ययन (देवेंद्रोपपातिक आदि) अन्य गण के शिष्य आदि को
तेसि विहाणम्मि इमं, कमेण सुत्तं समुदियं तु॥ नहीं देना चाहिए। इस स्थिति में जो अन्य गण के पात्र को देता है,
अदृढ़धर्मा और अप्रियधर्मा व्यक्तियों को आचार्य अपने वह प्रथम पुरुष तुल्य है। जो गणसंस्थिति के आधार पर किसी
अनुशासन के द्वारा दृढ़धर्मा और प्रियधर्मा करते हैं। उन आचार्यों को भी नहीं देता, वह द्वितीय पुरुष तुल्य है। जो अपात्र को देता
के विधान के इस क्रम में प्रस्तुत सूत्र समुद्दिष्ट है। है, वह तृतीय पुरुष तुल्य है। जो स्वयं दिग्बंध कर (आचार्यत्व
४५९०. पव्वावणुवट्ठावण, उभओ तह नोभयं-चउत्थो उ। आदि का प्रतिनिधित्व कर) उभय अर्थात् गणसंस्थिति और धर्म
अत्तट्ठ-परट्ठा वा, पव्वावण केवलं पढमे ।। का अवलंबन लेकर प्रतीच्छक को उन अध्ययनों की वाचना देता
४५९१. एमेव य बितिओ वी, केवलमत्तं उवट्ठवे सो उ। है, हम उसकी पूजा करते है। वह चौथे पुरुष तुल्य है।
ततिओ पुण उभयं पी, अत्तट्ठ-परट्ठ वा कुणति॥ ४५८५. धम्मो य न जहियव्वो,
४५९२. जो पुण नोभयकारी, __ गणसंठितिमेत्थ णो पसंसामो।
सो कम्हा भवति आयरीओ उ। जस्स पिओ सो धम्मो,
भण्णति धम्मायरिओ, सो न जहति तस्सिमो जोगो॥
सो पुण गिहिओ व समणो वा। धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए। इस प्रसंग के गणसंस्थिति आचार्य के चार प्रकार हैं-प्रव्राजनाचार्य, उपस्थापनाचार्य, की प्रशंसा नहीं करते। जिसको धर्म प्रिय है, वह उसको नहीं प्रव्राजन तथा उपस्थापन-दोनों, तथा जो उभयकारी नहीं। प्रथम छोड़ता। यहां उस प्रियधर्मासूत्र का योग है।
है प्रव्राजनाचार्य, जो आत्मनिमित्त और परिनिमित्त से प्रेरित (पुरुषों के चार विकल्प हैं-१. प्रियधर्मा होते हैं, दृढ़धर्मा होकर केवल प्रव्रजित करता है। उपस्थापनाचार्य केवल उपFor Private & Personal Use Only
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