Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 441
________________ ४०२ स्थापना देता है। यह दूसरा है। तीसरा है- आत्मार्थ तथा परार्थ प्रव्राजना और उपस्थापना दोनों करता है। जो उभयकारी नहीं होता वह चौथा है। प्रश्न है फिर वह किसलिए आचार्य होता है ? आचार्य कहते हैं - वह धर्मोपदेश देने के कारण धर्माचार्य है। वह गृही अथवा श्रमण भी हो सकता है। ४५९३. धम्मायरि पव्वावण, तह य उवट्ठावणा गुरू ततिओ । कोई तिहिं संपन्नो, दोहि वि एक्केक्कएणं वा ॥ धर्माचार्य वह है जो धर्मग्रहण करवाता है। प्रव्राजनाचार्य वह है जो प्रव्रजित करता है। उपस्थापनाचार्य वह है जो महाव्रतों में उपस्थापित करता है । कोई-कोई आचार्य तीनों गुणों से संपन्न होता है, कोई दो से और कोई एक-एक से संपन्न होता है। ४५९४. एगो उद्दिसति सुतं, एगो वाएति तेण उद्दिद्वं । उद्दिसती वाएति य, धम्मायरिओ चउत्थो य ॥ चार प्रकार के आचार्य हैं-एक आचार्य श्रुत की उद्देशा देता है, वाचना नहीं। दूसरा आचार्य द्वारा उद्दिष्ट श्रुत की वाचना देता है। तीसरा आचार्य श्रुत की उद्देशना भी देता है और वाचना भी। चौथा धर्माचार्य होता है। ४५९५. पडुच्चायरियं होति, अंतेवासी उ मेलणा । अंतमब्भासमासन्नं, समीवं चेव आहितं । आचार्य के साथ अंतेवासी की युति है। यह पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र की मेलना-संबंध है। 'अंत' शब्द के ये पर्यायवाची शब्द कहे गए हैं-अंतिक, अध्यास, आसन्न और समीप । ४५९६. जह चेव उ आयरिया, अंतेवासी वि होंति एमेव । अंते य वसति जम्हा, अंतेवासी ततो होति ॥ उद्देशन आदि के आधार पर जैसे आचार्य के चार प्रकार हैं, वैसे ही अंतेवासी के चार प्रकार हैं। आचार्य के 'अंत' अर्थात् निकट रहते हैं इसलिए वे अंतेवासी हैं। ४५९७. थेराणमंतिए वासो, सो य थेरो इमो तिहा । भूमिं ति य ठाणं ति य, एगट्ठा होंति कालो य ।। स्थविरों (आचार्यों) के अंतिक अर्थात् समीप वास करने के कारण वह स्थविर कहलाता है। उसके तीन प्रकार ये हैंजातिस्थविर, श्रुतस्थविर और पर्यायस्थविर । उनकी तीन भूमियां हैं। भूमी, स्थान और अवस्थारूपकाल-ये तीनों एकार्थक हैं। ( स्थविरभूमी, स्थविरस्थान तथा स्थविरकाल ।) ४५९८. तिविधम्मि व थेरम्मी, परूवणा जा जधिं सए ठाणे । कंप पूया, परियाए वंदणादीणि ॥ तीनों प्रकार के स्थविरों की प्ररूपणा अपने-अपने स्थान पर होगी। (साठ वर्ष की अवस्था वाला जातिस्थविर, ठाणं और समयवायधर श्रुतस्थविर तथा बीस वर्ष की संयम पर्याय वाला पर्यायस्थविर) जातिस्थविर पर अनुकंपा, श्रुतस्थविर की पूजा Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य तथा पर्याय स्थविर को वंदना आदि करनी चाहिए। ४५९९. आहारोवहि- सेज्जा य, संथारे खेत्तसंकमे । कितिछंदाणुवत्तीहिं, अणुवत्तंति थेरगं ॥ जोग्गाहारपसंसणं । ४६००. उट्ठाणासण- दाणादी, नीयसेज्जाय निसवत्तितो पूजए सुतं ॥ ४६०१. उट्ठाणं वंदणं चेव, गहणं दंडगस्स य । परियायथेरगस्सा, करेंति अगुरोरवि ॥ जातिस्थविर के प्रति ये कार्य करणीय हैं- आहार, उपधि, शय्या - वसति, संस्तारक तथा क्षेत्र के संक्रमण करते समय उसके उपधि आदि का वहन करना । श्रुतस्थविर के प्रति - कृतिकर्म, छंदानुवर्तिता, अभ्युत्थान, आसनदान आदि, योग्य आहार लाकर देना, प्रशंसागुणोत्कीर्तन, उसके आसन से नीची शय्या करना-बैठना, निर्देशवर्तिता - इस प्रकार श्रुतस्थविर की पूजा करे। पर्याय स्थविर के प्रति पर्यायस्थविर अगुरु आचार्य न होने पर भी ये कार्य करणीय हैं- अभ्युत्थान, वंदना, दंड का ग्रहण आदि । ४६०२. तुल्ला उ भूमिसंखा, ठिता च ठावेंति ते इमे होंति । पडिवक्खतो व सुत्तं, परियाए दीह-हस्से य ॥ स्थविरों की और शैक्षों की भूमी संख्या तुल्य है, तीन-तीन है । स्थविर स्वयं स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थापित करते हैं। शैक्ष स्थाप्यमान होते हैं। अतः इस सूत्र का उपक्रम है अथवा स्थविर के प्रतिपक्ष हैं शैक्ष अथवा स्थविरों की दीर्घ पर्याय होती है और शेक्षों की छोटी पर्याय। यह सूत्रसंबंध है । ४६०३. सेहस्स ति भूमीओ, दुविधा परिणामगा दुवे जड्डा । पत्त जहंते संभुज्जणा य भूमित्तिग विवेगो । शैक्ष की तीन भूमियां। दो प्रकार के परिणामक । दो प्रकार के जड़ । पात्र को छोड़ना । संभोजना तथा भूमीत्रिक का विवेकपरित्याग । (यह द्वार गाथा है । व्याख्या आगे ।) ४६०४. सेहस्स तिन्निभूमी, जहण्ण तह मज्झिमा य उक्कोसा। रादिव सत्त चउमासिया छम्मासिया चेव ॥ शैक्ष की तीन भूमियां हैं- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जघन्य का कालमान है-सात दिन-रात, मध्यम का कालमान है - चातुर्मास और उत्कृष्ट का कालमान है, छह मास । ४६०५. पुव्वोवपुराणे, करणजयट्ठा जहणिया भूमी | उक्कोसा दुम्मेहं, पडुच्च अस्सद्दहाणं च ॥ जो पूर्वोपस्थपुराण अर्थात् पहले प्रव्रजित था, फिर उत्प्रव्रजित होकर पुनः प्रव्रज्या लेता है, उसको करणजय ( पूर्व www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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