Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 406
________________ पोगा दसवां उद्देशक ३६७ ४१०३. निज्जवगो अत्थस्सा, जो उ वियाणाति अत्थ सुत्तस्स। अवाय होता है। अवगत होने पर धारणा होती है। धारणा के __ अत्थेण व निव्वहती, अत्थं पि कहेति जं भणितं॥ विषय में यह विशेष है।। 'अर्थ का निर्यापक'-यह जो कहा गया है उसका अर्थ ४११०. बहु बहुविधं पुराणं, दुद्धरऽणिस्सिय तहेवऽसंदिद्धं। है-जो कथ्यमान सूत्रार्थ को जानता है अथवा जो अर्थ का निर्वहन पोराण पुरा वायित, दुद्धरनयभंगगुविलत्ता॥ करता है-अर्थबल से सूत्र का अवधारण करता है, उसको अर्थ धारणा के ये छह भेद हैं-बहु, बहुविध, पौराण, दुर्धर, की भी वाचना देते हैं। अनिश्रित तथा असंदिग्ध। बहू, बहुविध, अनिश्रित तथा ४१०४. मइसंपय चउभेदा, उग्गह ईहा अवाय धरणा य। असंदिग्ध-ये पूर्ववत् हैं। पौराण का अर्थ है-जो पूर्व अर्थात् उग्गहमति छन्भेदा, तत्थ इमा होति णातव्वा ॥ चिरकाल पूर्व वाचित है। दुर्द्धर-नय और भंगों के द्वारा गहन होने ४१०५. खिप्पं बहु बहुविधं व, के कारण जिसको धारण करना कष्टप्रद है। धुवऽणिस्सिय तह य होतऽसंदिद्धं। ४१११. एत्तो उ पओगमती, चउव्विहा होति आणुपुवीए। ओगेण्हति एवीहा, __ आय पुरिसं व खेत्तं, वत्थु विय पउंजए वायं ।। अवायमवि धारणा चेव॥ अब आगे प्रयोगमति के चार भेद आनुपूर्वी से कहे जा रहे मतिसंपदा के चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और हैं-आत्मा (स्वयं), पुरुष, क्षेत्र और वस्तु-इनको जानकर वाद धारणा। अवग्रहमति के ये छह भेद ज्ञातव्य हैं--क्षिप्र, बहु, का समारंभ करना चाहिए। बहुविध, ध्रुव, निश्रित तथा असंदिग्ध ग्रहण करना। इसी प्रकार ४११२. जाणति पओगभिसजो,जेण आतुरस्स छिज्जती वाही। ईहा, अवाय और धारणा के भी छह-छह भेद हैं। ___ इय वादो य कहा वा, नियसत्ति नाउ कायव्वा।। ४१०६. सीसेण कुतित्थीण व, उच्चारितमेत्तमेव ओगिण्हे। जैसे प्रायोगिक वैद्य यह जानता है कि रोगी की व्याधि किस तं खिप्पं बहुगं पुण, पंच व छस्सत्तगंथसया।। औषधि के प्रयोग से मिट सकती है। इस प्रकार अपनी शक्ति को शिष्य अथवा कुतीर्थी द्वारा उच्चारितमात्र का तत्काल जानकर वाद अथवा धर्मकथा करनी चाहिए। ४११३. पुरिसं उवासगादी, अहवा वी जाणिगा इयं परिसं। अवग्रहण कर लेना क्षिप्र अवग्रह है। इसी प्रकार पांच, छह, सातसौ ग्रंथों का अवग्रहण बहुअवग्रह है। पुव्वं तु गमेऊणं, तहे वादो पओत्तव्यो। पुरुष-प्रतिवादी उपासक है अथवा यह पर्षद ज्ञापिका है, ४१०७. बहुविह णेगपयारं, जह लिहतिऽवधारए गणेति वि य। इन सबको पहले जानकर पश्चात् वाद प्रयोक्तव्य होता है।' अक्खाणगं कहेती, सद्दसमूहं व णेगविहं।। ४११४. खेत्तं मालवमादी, अहवा वी साधुभावितं जं तु। अनेक प्रकार का अवग्रहण बहुविध अवग्रह है। जैसे-स्वयं नाऊण तहा विधिणा, वादो य तहिं पओत्तव्वो। लिख रहा है। उस समय दूसरे के बोले हुए वचन का अवधारण क्षेत्र मालव आदि है अथवा साधुभावित है। यह यथार्थरूप भी करता है, वस्तुओं की गणना भी करता है, आख्यानक कहता से जानकर विधिपूर्वक वाद का समारंभ करना चाहिए। है, अनेक प्रकार के शब्द-समूहों को सुनता भी है-इन सबको ४११५. वत्थु परवादी ऊ बहुआगमितो न वावि णाऊणं। साथ-साथ ग्रहण करना बहुविध अवग्रह है। राया व रायऽमच्चो, दारुणभद्दस्सभावो ति॥ ४१०८. न वि विस्सरति धुवं तू, वस्तु अर्थात् परवादी बहुत आगमों का जानकार है अथवा अणिस्सितं जन्न पोत्थए लिहियं। नहीं तथा राजा और अमात्य दारुण स्वभाव वाले हैं अथवा भद्र अणभासियं च गेण्हति, स्वभाव वाले हैं, यह ज्ञातकर फिर वाद करना चाहिए। ये निस्संकित होतऽसंदिद्धं॥ प्रयोगमति के चार प्रकार कहे गए हैं। जिसकी विस्मृति नहीं होती, वह ध्रुव अवग्रह है। जो ४११६. बहुजणजोग्गं खेत्तं, पेहे तह फलग-पीढमाइण्णो। पुस्तकों में अलिखित है तथा जो अभाषित है उसको ग्रहण करता वासासु एय दोन्नि वि, काले य समाणए कालं ।। है. वह अनिश्रित अवग्रह है। जो असदिग्ध है वह निःशकित ४११७. पूए अहागुरुं पी, चउहा एसा उ संगहपरिणा। अवग्रह है। ये अवग्रहण के छह भेद हैं। एतेसिं तु विभागं, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए। ४१०९. उग्गहियस्स उ ईहा, ईहित पच्छा अणंतरमवाओ। संग्रह संपदा के चार प्रकार ये हैंअवगते पच्छ धारण, तीय विसेसो इमो नवरं।। १. वर्षा ऋतु में बहुजनयोग्य क्षेत्र की प्रेक्षा करना। अवगृहीतार्थ के प्रति ईहा होती है। ईहित करने के पश्चात् २. पीढ़ और फलक का आनयन करना चाहिए क्योंकि ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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