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दसवां उद्देशक
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तथा वह नमस्कार मंत्र का उच्चारण करने में असमर्थ न हो जाए, उस अगीतार्थ के द्वारा उपाश्रय के भीतर अथवा बाहर, इसलिए मुंह में तेल धारण किया जाता है।
रात में अथवा दिन में वह भक्तप्रत्याख्याता त्यक्त हो जाता है तो ४२४९. उक्कोसिगा उ एसा, संलेहा मज्झिमा जहन्ना य। संभवतः वह आर्त, दुःखार्त्त और वशार्त्त होकर प्रतिगमन कर
संवच्छर छम्मासा, एमेव य मासपक्खेहिं।। व्रत का भंग कर, चला जाए।
यह उत्कृष्ट संलेखना का कथन है। मध्यम संलेखना ४२५६. मरिऊण-अट्टझाणो, गच्छे तिरिएसु वणयरेसुं वा। संवत्सरप्रमाण की होती है। उसकी विधि पूर्वोक्त ही है। जघन्य
संभरिऊण य रुट्ठो, पडिणीयत्तं करेज्जाहि।। संलेखना छह मास की अर्थात् बारहपक्षों की होती है। मध्यम __ वह आर्त्तध्यान में मरकर तिर्यंचयोनि में अथवा वनचरऔर जघन्य संलेखना में वर्षों के स्थान में मास और पक्षों की वानमंतर देवों में उत्पन्न होता है। वह जातिस्मृति से पूर्वभव का स्थापना कर तपोविधि पूर्ववत् करनी चाहिए।
स्मरण कर, रुष्ट होकर अनेक प्रकार से शत्रुता का पोषण करता ४२५० एत्तो एगतरेणं, संलेहणं तु खवेत्तु अप्पाणं। है, प्रतिशोध लेता है।
कुज्जा भत्तपरिण्णं, इंगिणि पाओवगमणं वा॥ ४२५७. अधवावि सव्वरीए, मायं दिज्जाहि जायमाणस्स। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य-इन तीन प्रकार की
सो दंडियादि होज्जा, रुट्ठो सो निवादीणं ।। संलेखनाओं में से किसी एक प्रकार की संलेखना से अपने ४२५८. कुज्ज कुलादिपत्थारं, सो वा रुट्ठो तु गच्छे मिच्छत्तं। आपको क्षीण कर भक्तपरिज्ञा अथवा इंगिनी अथवा प्रायोपगमन
तप्पच्चयं च दीहं, भमेज्ज संसारकंतारं।। मरण का उपक्रम करे।
भक्तप्रत्याख्याता रात्री में पानी मांगता है तो अगीतार्थ उसे ४२५१. अग्गीतसगासम्मी, भत्तपरिणं तु जो करेज्जाही। प्रस्रवण देता है। वह अनशनी दंडिक आदि हो तो रुष्ट होकर राजा
चउगुरुगा तस्स भवे, किं कारणं जेणिमे दोसा। आदि को निवेदन कर देता है। राजा भी रुष्ट होकर कुल आदि का जो मुनि अगीतार्थ के पास भक्तपरिज्ञा ग्रहण करता है, नाश कर देता है। वह अनशनी मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है और उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसका कारण यह मिथ्यात्वप्रत्ययिक (मिथ्यात्व के फलस्वरूप) संसार रूपी अटवी है कि उससे ये दोष उत्पन्न होते हैं।
में वह दीर्घकाल तक भ्रमण करता है। ४२५२. नासेति अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोगसारंग। ४२५९. सो उ विविंचिय दिट्ठो, संविग्गेहिं तु अन्नसाधूहिं। नट्ठम्मि य चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंगं॥
आसासियमणुसिट्ठो, मरण जढ पुणो वि पडिवन्नं ।। अगीतार्थ सर्वलोक का सारभूत अंग-चतुरंग का नाश कर अगीतार्थ मुनि उस प्रत्याख्याता मुनि का परित्याग कर देता है। चतुरंग के नष्ट हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं देता है। अन्य संविग्न अर्थात् गीतार्थ मुनियों ने उसे देखा, होती।
आश्वासन दिया और शिक्षा देकर उसके उत्साह को बढ़ाया। ४२५३. किं पुण तं चउरंगं, जं नटुं दुल्लभं पुणो होति । उसने पुनः अभ्युद्यतमरण स्वीकार कर लिया।
माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तव संजमे विरियं॥ ४२६०. एते अन्ने य तहिं, बहवे दोसा य पच्चवाया य। वे चार अंग कौन से हैं जिनके नष्ट हो जाने पर पुनः उनकी
एतेहि कारणेहिं, अगीते न कप्पति परिण्णा।। प्राप्ति दुर्लभ होती है? वे चार अंग हैं, वह चतुरंग है-मानुषत्व, अगीतार्थ के पास भक्तप्रत्याख्यान करने पर ये तथा अन्य धर्मश्रुति, श्रद्धा तथा तप और संयम में वीर्य-पराक्रम।
दोष तथा प्रत्यवाय उत्पन्न होते हैं। इन कारणों से अगीतार्थ के ४२५४. किह नासेति अगीतो, पढमबितियएहि अद्दितो सो उ।। पास भक्तपरिज्ञा ग्रहण करना नहीं कल्पता। ___ ओभासे कालियाए, तो निद्धम्मो त्ति छड्डेज्जा। ४२६१. पंच व छस्सत्तसते, अधवा एत्तो वि सातिरेगतरे। अगीतार्थ चतुरंग का नाश कैसे करता है ? आचार्य कहते
गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो।। हैं-वह भक्तप्रत्याख्याता प्रथम-द्वितीय परीषह से पीड़ित होकर अतः पांच सौ, छह सौ, सात सौ अथवा इनसे भी अधिक कदाचित् कालिका-रात्री में भक्तपान की याचना करे। यह योजनों तक अपरिश्रांत होकर गीतार्थ की सन्निधि प्राप्त करने के सुनकर अगीतार्थ उसे निर्धर्मा (असंयतभूत) समझकर छोड़ दे, लिए उसकी मार्गणा करे, खोज करे। चला जाए।
४२६२. एक्कं व दो व तिन्नि व, उक्कोसं बारसेव वासाणि। ४२५५. अंतो वा बाहिं वा, दिवा य रातो या सो विवित्तो उ।
गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो॥ अट्ट-दुहट्ट-वसट्टो, पडिगमणादीणि कुज्जाहि॥ मुनि एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्टतः बारह वर्षों तक १. असमाधिमरण, तिर्यंचयोनि तथा वानव्यंतर में उत्पत्ति-ये सारे प्रत्यवाय हैं। For Private & Personal Use Only
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