Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 419
________________ ३८० सानुवाद व्यवहारभाष्य वक्तव्य होता है। (देखें गाथा ४२९२, ४२९३) दिया जाएगा। कोंकणक अपने तुम्बे और कांजी को वहीं छोड़कर ४२८७. कलमोदण-पयकढियादि, तत्काल वहां से चला गया। अमात्य शकट, बैल, कापोती आदि दव्वे आणेह मे त्ति इति उदिते। की तैयारी में लगा। इतने में पांच दिन बीत गए। राजा ने उसे भावे कसाइज्जंति, शूली पर चढ़ाकर मार डाला। तेसि सगासे न पडिवज्जे॥ ४२९४. इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु। भक्त्प्रत्याख्याता गण के साधुओं को 'कलमशालिकूर, न चेयं ते पसंसामी, किसं साधुसरीरगं॥ दूध क्वथित आदि द्रव्य लाओ'-यह कहने पर यदि वे भावतः वत्स! तुम इंद्रियों को, कषायों तथा गौरवों को कृश करो। कषाय करते हैं, उनके पास भक्तपरिज्ञा स्वीकार न करे। यदि ऐसा नहीं करोगो तो हे साधो! हम तुम्हारे कृश शरीर की ४२८८. अह पुण विरूवरूवे, आणीत दुगुंछिते भणंतऽण्णं। प्रशंसा नहीं करेंगे। आणेमो त्ति ववसिते, पडिवज्जति तेसि तो पासे।। ४२९५. आयरियपादमूलं, गंतूणं सति परक्कमे ताधे। यदि वे मुनि अनेक प्रकार का विरूपरूप आहार लाकर सव्वेण अत्तसोधी, कायव्वा एस उवदेसो॥ जुगुप्सा करते हुए कहते हैं-हम दूसरा आहार ले आएं और वे संलेखना के अनंतर भक्तपरिज्ञा करने वाला मुनि यदि आहार लाने के लिए तत्पर हो जाते हैं तो उनके पास भक्तपरिज्ञा सामर्थ्य हो तो स्वयं सबकुछ जानते हुए भी आचार्य के चरणों में स्वीकार करे। जाकर आलोचना कर स्वयं की शोधि करे। यही तीर्थंकरों का ४२८९. कलमोदणो य पयसा, अन्नं च सभावअणुमतं तस्स। उपदेश है। उवणीतं जो कुच्छति, तं तु अलुद्धं पडिच्छंति॥ ४२९६.जह सुकुसलो वि वेज्जो,अन्नस्स कति अप्पणो वाहिं। कलमोदन दूध के साथ लाकर तथा स्वभावतः उसको जो वेज्जस्स य सो सोउं, तो पडिकम्मं समारभते ।। ४२९७. जाणतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं। अन्य द्रव्य अनुमत था, वह लाकर उसके समक्ष रखने पर यदि वह भक्तप्रत्याख्यान करने का इच्छुक मुनि उस भोजन सामग्री तह वि य पागडतरयं, आलोएयव्वयं होति।। जैसे कुशल वैद्य भी अन्य वैद्य को अपनी व्याधि का कथन की निंदा करता है तो उसको आहार के प्रति अलुब्ध जानकर उसे करता है। वैद्य का व्याधि विवरण सुनकर वह वैद्य रोग स्वीकार कर लेते हैं। (जो प्रशंसा करता है, उसे लोलुप जानकर प्रतिकर्म-निवारण का उपाय करता है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करते।) विधि को स्वयं अच्छे प्रकार से जानते हुए भी दूसरे आचार्य के ४२९०. अज्जो संलेहोते, किं कतो न कतो त्ति एवमुदियम्मि। पास स्पष्टरूप से आलोचना करनी होती है। भंतुं अंगुलि दावे, पेच्छह किं वा कतो न कतो॥ ४२९८. छत्तीसगुणसमन्नागतेण, तेण वि अवस्स कायव्वा। आर्य ! तुमने संलेखना की अथवा नहीं, यह कहने पर जो परपक्खिगा विसोधी सुट्ठ वि ववहारकुसलेणं। मुनि अंगुली तोड़कर दिखाते हुए कहता है-देख लो, मैंने छत्तीस गुणों से सम्पन्न तथा भलीभांति व्यवहारकुशल संलेखना की है अथवा नहीं? आचार्य को भी परपक्ष (अन्य आचार्य के पास) में जाकर ४२९१. न हु ते दव्वसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं। विशोधि अवश्य करनी चाहिए। कीस ते अंगुली भग्गा ? भावं संलिहमाउर !। ४२९९. जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणति। आचार्य बोले-वत्स! मैं तुम्हारी द्रव्यसंलेखना के विषय तं तह आलोएज्जा, माया-मदविप्पमुक्को उ॥ में नहीं पूछता। देखता हूं कि तुम्हारा शरीर कृश हो गया है। तुमने जैसे बालक बोलता हुआ अपने कार्य या अकार्य का कथन अंगुली को क्यों तोड़ा? मैं भावसंलेखना के विषय में पूछता हूं। ऋजुता से करता है, उसी प्रकार आलोचना करने वाले को माया क्रोध के वशीभूत होकर आतुर मत बनो। और मद से विप्रमुक्त होकर गुरु के समक्ष आलोचना करनी ४२९२. रण्णा कोंकणगाऽमच्चा, दो वि निविसया कता। चाहिए। दोड्डिए कंजियं छोळ, कोंकणो तक्खणा गतो॥ ४३००. उप्पन्ना उप्पन्ना, मायामणुमग्गतो निहंतव्वा । ४२९३. भंडी बइल्लए काए, अमच्चो जा भरेति तु। आलोयण-निंदण-गरहणादि न पुणो य बितियं ति।। ताव पुन्नं तु पंचाहं, नलिए निधणं गतो।। उत्पन्न होनेवाली माया को, बार-बार उत्पन्न होने वाली राजा ने कोंकणक और अमात्य दोनों को देश से माया को उसके पीछे लगकर आलोचना, निंदा और गर्हा से नाश निष्कासित करते हुए आज्ञा दी कि तुम दोनों पांच दिन के भीतर- कर देना चाहिए। इस संकल्प के साथ कि मैं दूसरी बार ऐसा नहीं भीतर देश को छोड़कर चले जाओ, अन्यथा तुम्हारा वध कर करूंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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