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दसवां उद्देशक
३८५ ४३५३. सव्वाहि वि लद्धीहिं, सव्वे वि परीसहे पराइत्ता। से पीड़ित होकर कदाचित् अशन और पानक के रूप में कुछ ___सव्वे वि य तित्थगरा, पादोवगया तु सिद्धिगया।। याचना करे तब उसे 'तुम गीतार्थ हो अथवा अगीतार्थ' आदि की
सभी कालों में, सभी कर्मभूमियों में होने वाले सभी सर्वज्ञ, स्मृति कराते हैं और यथार्थ मति-विबोधन कराकर, उसे छठे व्रत सर्वगुरु, सर्वमहित-सर्वपूजित, सभी मेरु पर्वत पर अभिषिक्त, रात्रीभोजन संबंधी प्रतिबोध देकर पहला अशन प्रस्तुत करे फिर सभी प्रकार की लब्धियों से संपन्न तथा सभी परीषह को पराजित दूसरा पानक उसे लाकर दे। कर वे सभी तीर्थंकर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर सिद्धि को, ४३६२. हंदी परीसहचमू, जोहेतव्वा मणेण काएणं। प्राप्त हुए।
तो मरणदेसकाले, कवयम्भूतो उ आहारो॥ ४३५४. अवसेसा अणगारा, तीत-पडुप्पण्णऽणागता सव्वे। अनशनी को आहार-पानी कैसे दिया जा सकता है इस
केई पादोवगया, पच्चक्खाणिगिणिं केई॥ प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं-हे वत्स ! उस भक्तप्रत्याख्याता अतीत, अनागत और वर्तमान के अवशिष्ट सभी अनगारों
योद्धा को परीषह सेना के साथ मन, वचन और काया से युद्ध में कुछेक ने प्रायोपगमन, कुछेक ने प्रत्याख्यान-भक्तपरिज्ञा तथा
करना होता है। अतः मृत्यु के समय यह कवचतुल्य आहार उसे कुछेक ने इंगिनी को प्राप्त किया है।
दिया जाता है। ४३५५. सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे वि य पढमसंघयणवज्जा।
४३६३. संगामदुगं महसिलरधमुसल चेव परूवणा तस्स। सव्वे य देसविरता पच्चक्खाणेण तु मरंति॥
असुरसुरिंदावरणं, चेडग एगो गह सरस्स। सभी आर्यिकाएं, सभी प्रथमसंहनन से रहित मुनि, सभी
दो संग्राम हुए-महाशिलाकंटक तथा रथमुशल। इनकी देशविरत भक्तपरिज्ञा को स्वीकार कर मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं।
प्ररूपणा व्याख्याप्रज्ञप्ति में है। असुरेंद्र ने कोणिक को वज्रमय
प्रतिरूपक से ढंक दिया। चेटक के सारथी ने बाणों के एक गृह का ४३५६. सव्वसुहप्पभवाओ, जीवियसाराउ सव्वजणगाओ। आहाराओ रतणं, न विज्जति हु उत्तमं लोए॥
निर्माण किया। आहार समस्त सुखों का उत्पादक, जीवितसार तथा सभी
४३६४. महसिल कंटे तहियं, वÉते कूणिओ उ रधिएणं। का जनक है। ऐसे आहार से अन्य कोई उत्तम रत्न लोक में दूसरा
रुक्खग्गविलग्गेणं, पिढे पहतो उ कणगेणं ।।
४३६५. उप्फिडितुं सो कणगो,कवयावरणम्मि तो ततो पडितो। नहीं है।
तो तस्स कूणिएणं, छिन्नं सीसं खुरप्पेणं॥ ४३४७. विग्गहगते य सिद्धे य मोत्तु लोगम्मि जत्तिया जीवा।
महाशिलाकंटक संग्राम हो रहा था। तब चेटक के रथिक ने सव्वे सव्वावत्थं, आहारे होति उवउत्ता॥
निरंतर बाण वर्षा से कोणिक को आच्छादित कर दिया। परंतु वे विग्रहगति को प्राप्त जीवों तथा सिद्धों को छोड़कर लोक में
सारे बाण उसके वज्रमय शरीर से टकराकर नीचे गिर गए। चेटक जितने जीव हैं, वे सभी अवस्थाओं में आहार में उपयुक्त होते हैं।
वृक्ष पर चढ़ गया और वहीं से कनक-प्रहरण-विशेष से कोणिक ४३५८. तं तारिसगं रयणं, सारं जं सव्वलोगरयणाणं।
की पीठ पर प्रहार किया। वह कनक भी कोणिक के व्रजयम सव्वं परिच्चइत्ता, पादोवगता पविहरंति॥
कवचावरण से टकरा कर नीचे गिर पड़ा। तब कोणिक ने क्षुरप्र से समस्तलोक के रत्नों में सारभूत वैसे (आहारतुल्य) रत्न
चेटक का शिरच्छेद कर डाला। का सर्वथा परित्याग कर प्रायोपगमन अनशन में विहरण करने
४३६६. दिलृतस्सोवणओ, कवयत्थाणी इधं तहाहारो। वाले धन्य हैं।
सत्तू परीसहा खलु, आराहण रज्जथाणीया।। ४३५९. एयं पादोवगम, निप्पडिकम्मं जिणेहि पण्णत्तं।
प्रस्तुत दृष्टांत का यह उपनय है-कवचस्थानीय है तथारूप जं सोऊणं खमओ, ववसायपरक्कम कुणति॥
आहार, शत्रु हैं परीषह और राज्यस्थानीय है आराधना। जिनेश्वर देव ने इस प्रायोपगमन अनशन को निष्प्रतिकर्म
४३६७. जह वाऽऽउंटिय पादे, पायं काऊण हत्थिणो पुरिसो। प्रज्ञप्त किया है। इसको सुनकर क्षपक उसमें व्याप्त रहने के लिए
आरुभति तह परिणी, आहारेणं तु झाणवरं।। पराक्रम करता है।
जैसे हाथी पर चढ़ने वाला पुरुष हाथी के पैरों को ४३६०. कोई पीरसहेहिं, वाउलिओ वेयणद्दिओ वावि। आकुंचित कराकर, उन पर अपना पैर रखकर हाथी पर चढ़ता है,
ओभासेज्ज कयाई, पढमं बितियं च आसज्ज॥ वैसे ही परिज्ञी-भक्तपरिज्ञा को स्वीकार करने वाला आहार के ४३६१. गीतत्थमगीतत्थं, सारेउ मतिविबोहणं काउं। द्वारा उत्तम ध्यान में आरूढ़ होता है।
तो पडिबोहिय छठे, पढमे पगयं सिया बितियं॥ ४३६८. उवगरणेहि विहूणो, जध वा पुरिसो न साधए कज्जं। कोई अनशनी परीषहों से व्याकुलित होकर अथवा वेदना
एवाहारपरिणी दिटुंता तत्थिमे होति।। Jain Education International
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