Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 437
________________ ३९८ आगाढ तापन में निर्विकृतिक आदि प्रायश्चित्त है। तात्पर्य यह है कि उनके घट्टन में निर्विकृतिक, उनके अनागाढ़ तापन में पुरिम, आगाढ़ तापन में एकाशन तथा उद्रावण - मार देने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त है। ४५३९. विगलिंदणंत घट्टण, तावऽणगाढे य गाढ उद्दवणे । पुरिमड्डादिकमेणं, नातव्वं जाव खमणं तु ॥ ४५४०. पंचिंदि घट्ट तावणऽणगाढ गाढे तधेव उद्दवणे । एक्कासण आयाम, खमणं तह पंचकल्लाणं ॥ विकलेन्द्रिय जीवों के घट्टन, अनागाढ़ आगाढ़ तापन तथा उद्रावण में क्रमशः ये प्रायश्चित्त हैं- पुरिमड्ढ, एकाशन, आचाम्ल तथा उपवास । पंचेंद्रिय जीवों के घट्टन, अनागाढ़आगाद परितापन तथा उद्रावण में क्रमशः ये प्रायश्चित्त हैंएकाशन, आचाम्ल, उपवास तथा पंचकल्याणक । ४५४१. एमादीओ एसो, नातव्वो होति जीतववहारो । आगतो जाव आयरियपरंपरएण, जस्स भवे ॥ यह सारा जीतव्यवहार है ऐसा ज्ञातव्य है। जो जिस आचार्य परंपरा से आया है, उसके लिए वह जीतव्यवहार है। ४५४२. बहुसो बहुस्सुतेहिं, जो वत्तो न य निवारितो होति । वत्तऽणुवत्तपमाणं, जीतेण कयं भवति एयं ॥ व्यवहार बहुश्रुतों के द्वारा अनेक बार वृत्त - प्रवर्तित हो चुका है और किसी द्वारा वह निवारित नहीं हुआ है तो वह वृत्तानुवृत्त जीत से प्रमाणित हो जाता है। वह जीतव्यवहार प्रमाणीकृत है। ४५४३. जं जीतं सावज्जं न तेण जीतेण होति ववहारो । जं जीतमसावज्जं, तेण उ जीतेण ववहारो ॥ ४५४४. छार हडि हड्डमाला, पोट्टेण य रंगणं तु सावज्जं । दसविहपायच्छित्तं, होति असावज्जजीतं तु ॥ जीतव्यवहार के दो प्रकार हैं-सावद्य और असावद्य। जो जीत सावध है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो जीत असावद्य है, उस जीत से व्यवहार होता है। लोक में अपराध की विशोधि के लिए अपराधी के शरीर पर राख लगाना, कारागृह में बंदी बनाना, हड्डियों की माला पहनाना, उदर से रेंगने का दंड देना आदि-यह सावद्य जीत है। दस प्रकार का ( आलोचना आदि) प्रायश्चित्त असावद्य जीत है। ४५४५. उस्सण्णबहू दोसे, निद्धंधस पवयणे य निरवेक्खो । एयारिसम्मि पुरिसे, दिज्जति सावज्जजीयं पि ॥ (कभी-कभी लोकोत्तर क्षेत्र में अनवस्थादोष के निवारण के लिए) ऐसे पुरुषों को, जो उत्सन्न -प्रायः दोषों का सेवन करते हैं, सर्वथा निर्दयी और प्रवचन से निरपेक्ष होते हैं, उनको सावद्य जीत भी दिया जाता है। Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य ४५४६. संविग्गे पियधम्मे, य अप्पमत्ते अवज्जभीरुम्मि । कम्हि पमायखलिए, देयमसावज्जजीतं तु॥ जो संविग्न है, प्रियधर्मा है, अप्रमत्त और पापभीरु है, वह कहीं प्रमाद से स्खलित हो जाए तो उसे असावद्य जीत देना चाहिए। ४५४७. जं जीतमसोहिकरं, न तेण जीएण होति ववहारो । जं जीतं सोहिकरं, तेण उ जीएण ववहारो ॥ जो जीत अशोधिकर होता है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो जीत शोधिकर होता है, उस जीत से व्यवहार होना चाहिए। ४५४८. जं जीतमसोहिकरं, पासत्थ- पमत्त संजयाचिण्णं । जइ वि महाणाइण्णं, न तेण जीतेण ववहारो ॥ ४५४९. जं जीतं सोहिकरं, संवेगपरायणेण दंतेणं । एगेण वि आइण्णं, तेण उ जीएण ववहारो ॥ जो जीत पार्श्वस्थ तथा असंयतों द्वारा आचीर्ण है तथा अनेक व्यक्तियों ने उसका आचरण किया है फिर भी उस जीत से व्यवहार नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अशोधिकर होता है। जिस जीत का संवेगपरायण तथा दांत एक भी आचार्य / मुनि ने आचरण किया है, उस जीत से व्यवहार करना चाहिए क्योंकि वह शोधिकर होता है। ४५५०. एवं जहोवदिट्ठस्स, धीरविदुदेसितप्पसत्थस्स । नीसंदो ववहारस्स को वि कहितो समासेणं ॥ इस प्रकार जो धीर और श्रुतधरों द्वारा दर्शित और प्रशंसित है उस यथोपदिष्ट पांच प्रकार के व्यवहार का यह निस्यंद-सार मैंने संक्षेप में कहा है। ४५५१. को वित्थरेण वोत्तूण, समत्थो निरवसेसिते अत्थे । ववहारो जस्स मुहे, हवेज्ज जिब्भासतसहस्सं ॥ ४५५२. किं पुण गुणोवदेसो, ववहारस्स तु विदुप्पसत्थस्स । एसो भे परिकहितो, दुवालसंगस्स णवणीतं ॥ जिसके मुख में लाख जिह्वाएं हैं, वह भी व्यवहारसूत्र के निरवशेष (संपूर्ण) अर्थ को विस्तार से बताने में समर्थ नहीं होता। किंतु विद्वानों द्वारा प्रशंसित इस व्यवहारसूत्र का गुणोत्पादन के निमित्त यह उपदेश आपको कहा है। यह द्वादशांगी का नवनीत है। ४५५३. ववहारकोविदप्पा, तदट्ठे य नो पमायए जोगे । मा हुय तहुज्जमंतो, कुणमाणं एस संबंधो ॥ पांच प्रकार के व्यवहारों में निपुण व्यक्ति व्यवहार के लिए योगों (मनोवाक्काय) का प्रमाद न करे। व्यवहार में उद्यम करते हुए अहंकार न करे। यह पुरुषजातसूत्रों से संबंध है। ४५५४. वृत्ता व पुरिसज्जाता, अत्थतो न वि गंधतो । तेसिं परूवणट्ठाए, तदिदं सुत्तमागतं ॥ www.jainelibrary.org For Private Personal Use Only

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