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आचार्य कहते हैं-जैसे गुणसंपन्न व्यक्ति के प्रति वह प्रयोक्तव्य है, उसे सुनो।
४५०८. पवयणजसंसि पुरिसे, अणुग्गहविसारए तवस्सिम्मि। सुस्सुयबहुस्सुयम्मिय, वि वक्कपरियागसुद्धम्मि ॥ जो पुरुष प्रवचनयशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, श्रुतबहुश्रुत - जो बहुत श्रुत को भी विस्मृत नहीं करता, तथा जिसकी वाणी विनय आदि गुणों के परिपाक से विशुद्ध है - ऐसे गुणान्वित व्यक्ति के प्रति धारणाव्यवहार का प्रयोग किया जा सकता है।
४५०९. एतेसु धीरपुरिसा, पुरिसज्जातेसु किंचि खलितेसु ।
रहिते वि धारइत्ता, जहारिहं देंति पच्छित्तं ॥ इस प्रकार के गुणान्वित व्यक्ति यदि स्खलित हो जाते हैं तो उनको धीरपुरुष प्रथम तीन व्यवहारों के अभाव में व्यवहार आदि सूत्रों के अर्थपदों को धारण करते हुए यथार्ह प्रायश्चित्त देते हैं। ४५१०. रहिते नाम असंते, आइल्लम्मि ववहारतियगम्मि । ताहे वि धारइत्ता, वीसंसेऊण जं भणियं ॥ ४५११. पुरिसस्स उ अइयारं, विधारइत्ताण जस्स जं अरिहं । तं देति उपच्छित्तं, केणं देंती उ तं सुणह ॥ व्यवहारत्रिक के न रहने पर भी आलोचनाप्रदाता धारकर अर्थात् देश-काल की अपेक्षा से विमर्श कर, पुरुष के अतिचारों पर सभी अपेक्षाओं से विचार कर, जिसके लिए जो योग्य है वह प्रायश्चित्त उसे देते हैं। शिष्य ! तुम सुनो, किस आधार पर वे प्रायश्चित्त देते हैं।
४५१२. जो धारितो सुतत्थो, अणुयोगविधीय धीरपुरिसेहिं । आलीणपलीणेहिं, तणात् ह दंतेहिं ॥ जिस आचार्य या मुनि ने आलीन प्रलीन, यतनाशील और दांत धीरपुरुषों से अनुयोगविधि अर्थात् व्याख्यान वेला में सूत्रार्थ को धारण किया है, वह यह प्रायश्चित्त देता है। ४५१३. अल्लीणा णाणदिसु,
पइ पइ लीणा उ होंति पल्लीणा । कोधादी वा पलयं,
जेसि गता ते पलीणा उ ॥ ४५१४. जतणजुओ पयत्तव, दंतो जो उवरतो तु पावेहिं । अहवा दंतो इंदियदमेण नोइंदिएणं च॥ आलीन वह है जो ज्ञान आदि में लीन रहता है। प्रलीन का अर्थ है- प्रत्येक पद में लीन हो जाना, उसका पूर्ण अवगाहन करना अथवा प्रलीन वह होता है जिसके क्रोध आदि का प्रलय हो गया है । यतनायुक्त अर्थात् सूत्र के अनुसार प्रयत्न करनेवाला । दांत वह होता है जो पापों से उपरत होता है अथवा जो इंद्रियदमन तथा नो-इंद्रियदमन (मन) से दान्त है।
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सानुवाद व्यवहारभाष्य
४५१५. अहवा जेणऽण्णइया, दिट्ठा सोधी परस्स कीरंति । तारिसयं चेव पुणो, उप्पन्नं कारणं तस्स ॥ ४५१६. सो तम्मि चेव दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे। तारिसयं अकरेंतो, न हु सो आराहओ होति ॥ ४५१७. सो तम्मि चेव, दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे ।
तारिसयं चिय भूतो, कुव्वं आराहगो होति ॥ कभी किसी ने दूसरों को प्रायश्चित्त देते हुए देखा और यह धारण कर ली कि ऐसे अतिचार में यह प्रायश्चित्त दिया है। पुनः उसी पुरुष के अथवा अन्य किसी के वैसा ही कारण उपस्थित हुआ, वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में वैसा ही प्रायश्चित्त नहीं देता है तो वह आराधक नहीं होता। और जो उसी प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में उस दोषी मुनि को वैसा ही प्रायश्चित्त देता है तो वह आराधक होता है। ४५१८. वेयावच्चकरो वा, सीसो वा
देसहिंडगो वावि । दुम्मेहत्ता न तरति, उवधारेउं बहुं जो तु ॥ ४५१९. तस्स उ उद्धरिऊणं, अत्थपयाइं तु देंति आयरिया । जेहिं करेति कज्जं, आधारेंतो तु सो देसो ॥ जो शिष्य आचार्य का वैयावृत्त्य करने वाला है, आचार्य द्वारा सम्मत है, आचार्य के साथ-साथ देशांतरों में घूमने वाला है वह अपनी मेधा की दुर्बलता के कारण बहु अर्थात् समस्त छेदसूत्रार्थ को धारण नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में आचार्य कुछेक अर्थपदों को उद्धृत कर उसे देते हैं, यथार्थ ज्ञान देते हैं। वह छेदसूत्रों के देश -अंश को धारण कर व्यवहार का संपादन करता है। यह धारणाव्यवहार है।
४५२०. धारणववहारो सो, अधक्कमं वण्णितो समासेणं ।
जीणं ववहारं, सुण वच्छ! जधक्कमं वुच्छं ॥ यह धारणा व्यवहार यथाक्रम संक्षेप में वर्णित है । वत्स ! अब तुम जीतव्यवहार को सुनो। मैं क्रमशः उसको कहता हूं। ४५२१. वत्तणुवत्तपवत्तो, बहुसो अणुवत्तिओ महाणेणं ।
एसो उ जीयकप्पो, पंचमओ होति ववहारो ॥ जो व्यवहार आचार्य अथवा बहुश्रुत द्वारा वृत्त, अनुवृत्त तथा प्रवृत्त तथा बहुत बार अनुवर्तित होता है, वह पांचवां जीतकल्प नामक व्यवहार है।
४५२२. वत्तो णामं एक्कसि, अणुवत्तो जो पुणो बितियवरे । ततियव्वार पवत्तो, परिग्गहीओ महाणं ॥ जो एक बार होता है वह है वृत्त । जो दूसरी बार होता है वह है अनुवृत्त और जो तीसरी बार होता है वह है प्रवृत्त। इसको आचार्य आदि परिगृहीत कर लेते हैं।
४५२३. चोदेती वोच्छिन्ने, सिद्धिपहे ततियगम्मि पुरिसजुगे । वोच्छिन्ने तिविहे संजमम्मि जीतेण ववहारो ॥
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