Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 432
________________ दसवां उद्देशक ३९३ के दस पद तथा कल्पप्रतिसेवना के २४ पदों को यथास्थान उन-उन विभागों के नीचे स्थापित करे। तत्पश्चात् उन दस और २४ पदों के नीचे अठारह पदों (व्रतषट्क आदि) की स्थापना करे। ४४६१. तं पुण होज्जाऽऽसेविय, दप्पेणं अहव होज्ज कप्पेणं। दप्पेण दसविधं तू, इणमो वोच्छं समासेणं॥ इनका दर्प से अथवा कल्प से आसेवन किया हो, उसकी आलोचना करे। दर्प से दस प्रकार के आसेवन का कथन संक्षेप में कहूंगा। ४४६२. दप्प अकप्प निरालंब, चियत्ते अप्पसत्थ वीसत्थे। अपरिच्छ अकडजोगी, अणाणुतावी य णिस्संको॥ १. दर्प अर्थात् निष्कारण धावन आदि करना २. अकल्प का उपभोग ३. निरालंब प्रतिसेवना ४. चियत्त-बिना प्रयोजन अकृत्य की प्रतिसेवना ५. अप्रशस्त-बल, वर्ण आदि के निमित्त प्रतिसेवना ६. विश्वस्त-निर्भय होकर प्राणातिपातादि सेवी ७. अपरीक्षी-युक्तायुक्त के विवेक से विकल ८. अकृतयोगीअगीतार्थ ९. अननुतापी १०. निःशंक-निर्दय इहलोक, परलोक की शंका से रहित। ४४६३. एयं दप्पेण भवे, इणमन्नं कप्पियं मुणेयव्वं । चउवीसतीविहाणं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ पूर्वोक्त प्रकार से प्रतिसेवना करना दर्प प्रतिसेवना है। दूसरी कल्पिका प्रतिसेवना के २४ विधान, मैं संक्षेप में कहूंगा। ४४६४. सण-नाण-चरित्ते, तव-पवयण-समिति-गुत्तिहेउं वा। साहम्मियवच्छल्लेण वावि कुलतो गणस्सेव॥ ४४६५.संघस्सायरियस्स य,असहुस्स गिलाण-बालवुड्डस्स। उदययग्गि-चोर-सावय, भय-कंतारावती वसणे॥ १. दर्शन, २. ज्ञान ३. चारित्र ४. तप ५. प्रवचन ६. समिति ७. गुप्ति ८. साधर्मिकवात्सल्य ९. कुल १०. गण ११. संघ १२. आचार्य १३. असह-असमर्थ १४. ग्लान १५. बाल १६. वृद्ध १७. उदक प्लावन १८. अग्नि-दवाग्नि आदि १९. चोर २०. श्वापद २१. भय २२. कांतार २३. आपदा में और २४. मद्यपान आदि के व्यसन-इनके लिए की जाने वाली प्रतिसेवना कल्पिका प्रतिसेवना है। ४४६६. एयऽन्नतरागाढे, सदसणे नाण-चरण-सालंबो। पडिसेविउं, कयाई, होति समत्थो पसत्थेसु॥ इनमें से किसी विषयक प्रयोजन होने पर आगाढ़ ज्ञान, दर्शन, चारित्र का सालंब प्रतिसेवी कल्पप्रतिसेवना कर कदाचित् प्रशस्त प्रयोजन सम्पन्न करने में समर्थ हो सकता है। यह कल्पिका प्रतिसेवना है। ४४६७. ठावेउ दप्पकप्पे, हेट्ठा दप्पस्स दसपदे ठावे। कप्पाधो चउवीसति, तेसिमहऽट्ठारसपदा उ॥ दर्प और कल्पप्रतिसेवना को स्थापित कर दर्पप्रतिसेवना ४४६८. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे ठाणं ।। ४४६९. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अब्मिंतरं तु बीयं भवे ठाणं॥ ४४७०. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु सेसेसु वि पएसु॥ प्रथम कार्य अर्थात् निष्कारण, प्रथम पद अर्थात् दर्प से, प्रथम षट्क (व्रतषट्क) के अंतर्गत प्रथम स्थान अर्थात् प्राणातिपात का आसेवन किया, इसी प्रकार दूसरे स्थान से यावत् छठे पर्यंत सभी स्थानों का आसेवन किया, उसकी आलोचना करे। ४४७१. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। बितिए छक्के अन्भिंतरं तु पढमं भवे ठाणं॥ ४४७२. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। बितिए छक्के अन्भिंतरं तु सेसेसु वि पए। ४४७३. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। ततिए छक्के अन्भितरं तु पढमं भवे ठाणं। ४४७४.पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। ततिए छक्के अन्भितरं तु सेसेसु वि पदेसु॥ इसी प्रकार द्वितीय षट्क (कायषट्क) तथा तृतीय षट्क (अकल्प, गृहिभाजन, पल्यंक, निषद्या, स्नान और विभूषा) इनमें दर्पलक्षण वाले प्रथम कार्य को, प्रथम पद-दर्प से यथाक्रम प्रतिसेवना की आलोचना पूर्ववत् करे। (इनमें विकल्पों की सर्वसंख्या १८x१०-१८० होती है। यह प्रथम पद 'दर्परूप' की विशोधि है।) ४४७५. बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे ठाणं॥ पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु सेसेसु वि पएसु॥ ४४७७. बितियस्स य कज्जस्सा,पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। बितिए छक्के अब्मिंतरं तु पढमं भवे ठाणं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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