Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 427
________________ ३८८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ज्ञाता होता है, वह इंगिनीमरण को स्वीकार कर सकता है। प्रथम संहनन (व्रजऋषभनाराच) में वर्तमान मुनि शैलप्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाले के दो प्रकार हैं-निर्हारी कुड्य के समान होते हैं। वे प्रायोपगमनमरण स्वीकार करते हैं। और अनिर्हारी। उनके व्यवच्छेद से चौदहपूर्वियों का भी व्यवच्छेद हो जाता है। ४३९५. पादोवगमं भणियं, समविसमे पादवो जहा पडितो। ४४०२. दिव्वमणुया उ दुग तिग, नवरं परप्पओगा, कंपेज्ज जधा चलतरुव्व। अस्से पक्खेवगं सिया कुज्जा। इसे पादपोपगम (प्रायोपगमन) इसलिए कहा है कि जैसे वोसठ्ठचत्तदेहो, पादप विषम अथवा समरूप से गिरा हो, वह वैसे ही स्थित रहता अधाउयं कोइ पालेज्जा। है, वैसे ही अनशनी भी यावज्जीवं उसी प्रकार पड़ा रहता है जैसे देवता अथवा मनुष्य द्रव्यों का द्विक अथवा त्रिक अनशनी वह सम या विषमरूप से पड़ा है। विशेष यह है कि जैसे वृक्ष पर- के मुंह में प्रक्षेप कर दे। फिर भी वह व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि प्रयोग से कंपित होता है, वैसे ही वह भी पर-प्रयोग से चल होता यथायुः यथावस्थित आयु तक प्रतिज्ञा का पालन करता है। ४४०३. अणुलोमा पडिलोमा, दुगं तु उभयसहिता तिगं होति। ४३९६. तसपाणबीयरहिते, विच्छिन्नवियारथंडिलविसुद्धे। अधवा चित्तमचित्तं, दुगं तिगं मीसगसमग्गं॥ निदोसा निदोसे, उति अब्भुज्जयं मरणं॥ द्रव्यों का द्विक तथा त्रिक-अनुलोम द्रव्य, प्रतिलोमद्रव्य विशुद्ध स्थंडिल भूमी जो त्रसप्राण तथा बीज रहित हो, यह द्विक तथा उभयसहित त्रिक, अथवा सचित्त, अचित्त द्रव्यनिर्दोष हो, विस्तीर्ण हो वहां निर्दोष मुनि अभ्युद्यतमरण स्वीकार यह द्विक तथा वही मिश्रसमग्र त्रिक है। करते हैं। ४४०४. पुढवि-दग-अगणि-मारुय४३९७. पुव्वमवियवेरेणं, देवो साहरति कोवि पाताले। वणस्सति तसेसु कोवि साहरति। मा सो चरमसरीरो, न वेदणं किंचि पाविहिति॥ वोसठ्ठचत्तदेहो, पूर्वजन्म के वैर के कारण कोई देव उस प्रायोपगमन अधाउयं कोवि पालेज्जा॥ अनशनी का संहरण कर पाताल में ले जाता है और वह कोई प्रायोपगमन अनशनी मुनि का पृथ्वीकाय में, अप्काय चरमशरीरी होने के कारण किंचित् वेदना प्राप्त नहीं करता हुआ में, अग्निकाय में, वायुकाय में अथवा वनस्पति काय में संहरण उस उपसर्ग को सहन करता है। कर ले। वह संहृत व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का ४३९८. उप्पन्ने उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य।। पालन करता है। सव्वे पराइणित्ता, पाओवगता पविहरंति॥ ४४०५. एगंतनिज्जरा से, दुविधा आराधणा धुवा तस्स। सभी उत्पन्न दिव्य, मानुष तथा तैरश्च उपसर्गों को अंतकिरियं व साधू करेज्ज देवोववत्तिं वा॥ पराजित कर प्रायोपगमन अनशनी विचरण करते हैं। उसके एकांत निर्जरा होती है तथा दो प्रकार की आराधना४३९९. जह नाम असी कोसे, सिद्धिगमनयोग्य अथवा कल्पोपपत्तियोग्य निश्चित होती है। या अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णे।। तो वह साधु अन्तक्रिया करता है अथवा देवों में उपपन्न होता है। इय मे अन्नो देहो, ४४०६. मज्जणगंधं पुप्फोवयारपरिचारणं सिया कुज्जा। अन्नो जीवो त्ति मण्णंति॥ वोसठ्ठचत्तदेहो, अधाउयं को वि पालेज्जा ।। जैसे तलवार कोशगत है, परंतु कोश अन्य है तथा तलवार कदाचित् प्रायोपगमन में स्थित मुनि को कोई स्नान करा अन्य है, वैसे ही मेरा यह शरीर अन्य है तथा आत्मा अन्य दे, शरीर पर गंधद्रव्य लगा दे, पुष्पोपचार कर दे, परिचारणाहै-इस प्रकार वह मानता है। गले लगाना, चुम्बन आदि करना ये सारी क्रियाएं करे, फिर भी ४४००. पुव्वावरदाहिणउत्तरेहिं, वातेहि आवयंतेहिं।। वह व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का पालन करता है। जह न वि कंपति मेरू, तध ते झाणाउ न चलंति॥ ४४०७. पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो देवकुरु-उत्तरकुरासु। जैसे मेरुपर्वत पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर-इन कोई तु साहरेज्जा, सव्वसुहा जत्थ अणुभावा।। दिशाओं से आकर टकराने वाली वायुओं से प्रकंपित नहीं होता, कोई देव पूर्वभविक प्रेम के कारण अनशन में स्थित उस वैसे ही प्रायोपगमन में स्थित मुनि ध्यान से चलित नहीं होता। मुनि का संहरण कर देवकुरु अथवा उत्तरकुरु में ले जाता है, जहां ४४०१. पढमम्मि य संघयणे, वटुंता सेलकुड्डसमाणा। सभी अनुभाव शुभ होते हैं। (फिर भी मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का तेसिं पि य वुच्छेदो, चोदसपुव्वीण वोच्छेदे॥ पालन करता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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