Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 425
________________ ३८६ सानुवाद व्यवहारभाष्य जैसे उपकरणविहीन पुरुष कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता कालगत मुनि रत्नाधिक-वृद्ध हो सकता है। उसके शरीर वैसे ही परिज्ञी-भक्तप्रत्याख्याता आहार के बिना परीषहों आदि पर तथा उपकरण पर चिन्ह न करने पर, शव को देखकर, इस को पराजित नहीं कर सकता। यहां ये दृष्टांत हैं गृहस्थ को किसी ने मारा है, यह सोचकर कोई दंडिक को ४३६९. लावए पवए जोधे, संगामे पंथिगे ति य। शिकायत करता है। दंडिक मार्गणा-गवेषणा करने के लिए __ आउरे सिक्खए चेव, दिलुतो कवए ति या॥ आसपास के गांवों के लोगों को दंडित कर सकता है। ४३७०. दत्तेणं नावाए, आउह-पहुवाहणोसहेहिं च। ४३७६. न पगासेज्ज लहुत्तं, परीसहुदएण होज्ज वाघातो। उवगरणेहिं च विणा, जहसंखमसाधगा सव्वे॥ उप्पण्णे वाघाते, जो गीतत्थाण उ उवाओ। जैसे लावक-फसल को काटने वाला दात्र के बिना, 'यह भक्तप्रत्याख्याता है'-यह बात प्रकाशित न करे प्लावक-नदी पार कराने वाला नावा के बिना, संग्राम में योद्धा क्योंकि परीषहों के उदय से प्रत्याख्यान का व्याघात-विलोप हो आयुधों के बिना, पथिक उपानत् (जूतों) के बिना, रोगी औषधि सकता है। व्याघात उत्पन्न होने पर गीतार्थों का उपाय प्रयुक्त के बिना तथा शिष्यक (वादित्र कला आदि सीखनेवाला) करना चाहिए। उपकरणों के बिना ये सारे यथोक्त साधनों के बिना कार्य के ४३७७. को गीताण उवाओ, संलेहगतो ठविज्जते अन्नो। असाधक होते हैं। उच्छहते जो अन्नो, इतरो उ गिलाणपडिकम्मं ॥ ४३७१. एवाहारेण विणा, समाधिकामो न साहए समाधि। ४३७८. वसभो वा ठाविज्जति, तम्हा समाधिहेऊ, दातव्वो तस्स आहारो॥ अण्णस्सऽसतीय तम्मि संथारे। इसी प्रकार समाधि का इच्छुक मुनि आहार के बिना कालगतो त्ति य काउं, समाधि को नहीं साध सकता। अतः समाधि के लिए उस परिज्ञी संझाकालम्मि णीणेति।। को आहार देना चाहिए। गीतार्थों का उपाय क्या है ? आचार्य कहते हैं-ऐसी स्थिति ४३७२. सरीमुज्झियं जेण, को संगो तस्स भोयणे। में जो संलेखनागत अन्य मुनि है उसको अथवा अन्य कोई मुनि समाधिसंधणाहेत्रे, दिज्जए सो उ अंतिए॥ को जो उपाय के अनुसार करने में उत्साहित है तो उसे उस जिसने शरीर को छोड़ दिया, उसके मन में भोजन के प्रति परिशी के संस्तारक पर सुला दिया जाता है और उस भक्तकैसा लगाव! आचार्य कहते हैं-समाधि के संधान के लिए प्रत्याख्याता का निर्जनस्थान में ग्लानपरिकर्म किया जाता है। अर्थात् उसकी समाधि का व्याघात न हो, इसलिए अंत समय में यदि यह संभव न हो तो वृषभ मुनि को उस संस्तारक पर उसे आहार दिया जाता है। स्थापित करना चाहिए। फिर रात्री में वह भक्तप्रत्याख्याता मुनि ४३७३. सुद्धं एसित्तु ठावेंति, हाणीए वा दिणे दिणे। कालगत हो गया ऐसा प्रकाशित कर, रात्री के चरम प्रहर के पुव्वुत्ताए उ जयणाए, तं तु गोवेंति अन्नहिं ॥ संध्याकाल में उसे बाहर भेज दिया जाता है। . शुद्ध आहार-पानक की गवेषणा कर उसको स्थापित करते ४३७९. एवं तू णायम्मी, दंडिगमादीहि होति जयणा उ। हैं। वैसे आहार की अप्राप्ति होने पर प्रतिदिन पूर्वोक्त यतना से सय गमणपेसणं वा, खिसण चउरो अणुग्घाता।। गवेषणा कर अन्यत्र गुप्तरूप में उसको स्थापित करते हैं। यदि दंडिक आदि को यह ज्ञात हो जाए तो यह यतना ४३७४. निव्वाघाएणेवं, कालगयविगिंचणा उ विधिपुव्वं। ज्ञातव्य है। सभी साधु वहां से विहार कर जाएं अथवा किसी कातव्व चिंधकरणं, अचिंधकरणे भवे गुरुगा। सहायक के साथ उसे अन्यत्र प्रेषित कर दे। जो परिज्ञा का लोप निर्व्याघातरूप से परिज्ञी के कालगत हो जाने पर उसका । करने वाले की खिंसना करता है उसे चार अनुद्घात गुरुमास का विधिपूर्वक परिष्ठापन करना चाहिए तथा उस पर चिन्ह करना प्रायश्चित्त आता है। चाहिए।' चिन्ह न करने पर चारगुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ४३८०. सपरक्कमे जो उ गमो, नियमा अपरक्कमम्मि चेव। ४३७५. सरीर-उवगरणम्मि य, नवरं पुण नाणत्तं, खीणे जंघाबले गच्छे।। अचिंधकरणम्मि सो उ रातिणिओ। सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान के विषय में जो विकल्प है वही मग्गणगवेसणाए, अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान में नियमतः ज्ञातव्य है। केवल यह गामाणं घातणं कुणति॥ नानात्व है कि अपराक्रम जंघाबल के क्षीण हो जाने के कारण १. चिन्हकरण दो प्रकार से होता है-शरीर पर, उपकरण पर। शरीर रजोहरण, चोलपट्टक तथा मुख पर मुखवस्त्रिका। पर-उसका लोच करना चाहिए। उपकरण पर-उसके पास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492