Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 415
________________ ३७६ सानुवाद व्यवहारभाष्य है। उपकरण तथा गण (पक्ष) के निमित्त व्युद्ग्रह-कलह तथा है। फिर बारहवें वर्ष में विकृष्ट तप कर पारणक के आचाम्ल में गणभेद को देखकर तथा बाल आदि और स्थविरों की उचित भरपेट खाता है। वैयावृत्त्य की उपेक्षा देखकर अप्रीति होती है और उससे ध्यान ४२४१. संवच्छराणि चउरो, होति विचित्तं चउत्थमादीयं । का व्याघात होता हैं। काऊण सव्वगुणितं, पारेती उग्गमविसुद्ध। ४२३५. सिणेहो पेलवी होति, निग्गते उभयस्स वि। संलेखना करने वाला पहले चार वर्षों में उपवास आदि आहच्च वावि वाघाते, णो सेहादि विउब्भमो॥ विचित्र तप करता है और उद्गम विशुद्ध सर्वगुणित शुद्ध आहार स्वगण से निर्गत हो जाने पर आचार्य और गण-दोनों का से पारणा करता है। परस्पर स्नेह पेलव-कम हो जाता है। भक्तपरिज्ञा में व्याघात ४२४२. पुणरवि चउरणे तू, विचित्त काऊण विगतिवज्जंतु। देखकर शैक्ष मुनियों का व्युद्गम अथवा विपरिणाम भी हो सकता पारेति सो महप्पा, णिद्धं पणियं च वज्जेती॥ पुनः चार वर्षों तक वह महात्मा मुनि विचित्र तप करता है ४२३६. दव्वसिती भावसिती, अणुयोगधराण जेसिमुवलद्धा। और पारणक में विकृति नहीं लेता। उसमें भी स्निग्ध और प्रणीत न हु उड्ढगमणकज्जे, हेट्ठिल्लपदं पसंसंति॥ आहार का वर्जन करता है। ४२३७. संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठितीविसेसाणं। ४२४३. अण्णा दोन्नि समाओ, चउत्थ काऊण पारि आयामं। उवरिल्लपरक्कमणं, भावसिती केवलं जाव। कंजीएणं तु ततो, अण्णेक्कसम इमं कुणति॥ निःश्रेणी के दो प्रकार हैं-द्रव्यनिःश्रेणी तथा भावनिःश्रेणी। आगे दो वर्ष उपवास करता है और आचाम्ल से पारणा द्रव्यनिःश्रेणी मकान आदि के ऊपर-नीचे चढ़ने-उतरने के लिए करता है। फिर अन्य एक वर्ष उपवास का पारणक काजी के होती है। भावनिःश्रेणी भावों के उतार-चढ़ाव की द्योतक है। जिन आचाम्ल से करता है। अनुयोगधर आचार्यों को यह निःश्रेणी उपलब्ध है, वे ऊर्ध्वगमन ४२४४. तत्थेक्कं छम्मासं, चउत्थ छटुं व काउ पारेति। के कार्य में अधस्तन की प्रशंसा करते। वे संयमस्थानों, आयंबिलेण नियमा, बितिए छम्मासिय विगिट्ठ। सयमकडको, जो लेश्या के परिणाम विशेष है, उनमें ऊपर से ४२४५. अट्ठम-दसम-दुवालस, काऊणायंबिलेण पारेति । ऊपर क्रमण करते हुए यावत् केवलज्ञान तक पहुंच जाते हैं। यह अन्नेक्कहायणं तू, कोडीसहियं तु काऊण ॥ भावशीति अर्थात् भावनिःश्रेणी है। ४२४६. आयंबिल उसिणोदेण, पारे हावेत आणुपुव्वीए। ४२३८. उक्कोसा य जहन्ना, दुविहा संलेहणा समासेण। जह दीवे तेल्लवत्ति, खओ समं तह सरीरायुं॥ छम्मासा उ जहन्ना, उक्कोसा बारससमा उ॥ ग्यारहवें वर्ष के पहले छह महीनों तक उपवास अथवा संलेखना के दो भेद हैं-जघन्य और उत्कृष्ट। जघन्य बेला कर नियमतः आचाम्ल से पारणा करता है। दूसरे छह संलेखना का कालमान है छहमास और उत्कृष्ट संलेखना का महीनों में विकृष्ट तप-तेला अथवा चोला अथवा पंचोला कर कालमान है-बारह वर्ष। आचाम्ल से पारणा करता है। अन्य एक वर्ष- बारहवें वर्ष में ४२३९. चिट्ठतु जहण्ण मज्झा, उक्कोसं तत्थ ताव वोच्छामि।। कोटिसहित तप कर आचाम्ल अथवा उष्णोदक से पारणा करता जं संलिहिऊण मुणी, साहेती अत्तणो अत्थं॥ है तथा क्रमशः एक-एक कवल कम करता है। जैसे दीपक में तेल जघन्य और उत्कृष्ट के मध्य में उत्कृष्ट का कथन करूंगा और बाती-दोनों एकसाथ क्षीण हो जाते हैं वैसे ही शरीर और जिससे मुनि आत्मा का संलेखन कर आत्मा का अर्थ-प्रयोजन आयुष्य एक साथ क्षीण हो जाते हैं। को सिद्ध करते हैं। ४२४७. पच्छिल्लहायणे तू, चउरो धारेंतु तेल्लगंडूसं। ४२४०. चत्तारि विचित्ताई, विगतीनिज्जूहिताणि चत्तारि। निसिरे खेल्लमल्लम्मि किं कारणं गल्लधरणं तु॥ एगंतरमायामे, णाति विगिठे विगिटे य॥ ४२४८. लुक्खत्ता मुहर्जतं, मा हु खुभेज्ज तेण धारेति। मुनि चार वर्षों तक विचित्र तप (कभी उपवास, कभी बेला, मा हु नमोक्कारस्स, अपच्चलो सो हविज्जाहि॥ कभी तेला, चोला, पंचोला आदि) करता है। फिर चार वर्ष पश्चिम-अंतिम अर्थात् बारहवें वर्ष के अंतिम चार महीनों विचित्र तप करता हुआ पारणक में विकृति ग्रहण नहीं करता। में प्रत्येक पारणक में एक चुल्लूभर तेल मुंह में धारण करे। फिर इसके पश्चात् दो वर्षों तक एकांतर तप करता है तथा आचाम्ल । उसको खेलमल्लक (श्लेष्मपात्र) में विसर्जित कर दे। प्रश्न होता से पारण करता है। ग्यारहवें वर्ष में अतिविकृष्ट तप नहीं करता, है कि गले में तेल धारणा करने का प्रयोजन क्या है ? उत्तर उपवास वेला आदि कर आचाम्ल करता है, उसमें परिमित खाता है-रूक्ष होने के कारण मुखयंत्र क्षुब्ध न हो जाए, सिकुड़ न जाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492