Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 413
________________ ३७४ सानुवाद व्यवहारभाष्य नव्या इससे दुगुने पूर्वार्ध (८० पूर्वार्ध), इससे दुगुने निर्विकृतिक और करने वाले भी ऐसे देखे जाते हैं। यह जो कहा गया कि तीर्थ (१६० निर्विकृतिक) कराते हैं। जो प्रायश्चित्त प्राप्त व्यक्ति पंच ज्ञान-दर्शनयुक्त ही है, इस विषय में सुनो। कल्याणक को अव्यवच्छित्ति से करने में समर्थ न हो तो, उसके ४२१३. एवं तु भणंतेणं, सेणियमादी वि थाविया समणा। प्रायश्चित्त के सन्निकाश-सदृश कोई दूसरा कराते हैं। (इसका समणस्स य जुत्तस्स य, नत्थी नरएसु उववाओ। तात्पर्य है कि किसी को पंचकल्याणक का प्रायश्चित्त प्राप्त है। वह इस प्रकार कहने वाले तुमने श्रेणिक आदि को भी श्रमण पहले, दूसरे, तीसरे कल्याण के किसी एक के आगे के व्यवस्थापित कर दिया। श्रमणगुणों से युक्त श्रमण का नरक आदि कल्याणकों को क्रमशः करता है फिर शेष को आचाम्ल की विधि में उपपात नहीं होता। के अनुसार पूरा करता है।) ४२१४. जंपिय हु एक्कवीसं, वाससहस्साणि होहितो तित्थं । ४२०७. चउ-तिग-दुगकल्लाणं, एगं कल्लाणगं च कारेती। ते मिच्छासिद्धी वी, सव्वगतीसुं व होज्जाहि॥ ___ जं जो उ तरति तं तस्स, देंत असहुस्स भासेंती॥ सूत्रों में कहा गया है कि तीर्थ का अनुवर्तन इक्कीस हजार जो पंचकल्याणक को यथाक्रम करने में समर्थ न हो तो वर्षों तक होगा। यह कथन भी मिथ्या हो जाएगा। 'ज्ञानउससे चार, तीन, दो अथवा एक कल्याणक ही कराते हैं। जो दर्शनयुक्त तीर्थ है-यह कहने पर सभी गतियों में सम्यग्ज्ञानमुनि जिस कल्याणक को करने में समर्थ होता है उसे वह देते हैं। दर्शनयुक्त जीवों का अस्तित्व रहता है। जो एक कल्याणक करने में भी समर्थ न हो तो उसको कहकर ४२१५. पायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि न वट्टति। सारा प्रायश्चित्त क्षमा कर देते हैं। (अथवा एक उपवास, एक __ चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया। आचाम्ल अथवा एक एकाशन आदि देते हैं।) प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र भी नहीं रहता। चारित्र के ४२०८. एवं सदयं दिज्जति, जेणं सो संजमे थिरो होति। अभाव में तीर्थ की सच्चरित्रता नहीं होती। न य सव्वहा न दिज्जति, अणवत्थपसंगदोसाओ॥ ४२१६. अचरित्ताय तित्थस्स, निव्वाणम्मि न गच्छति। इस प्रकार प्रायश्चित्तदाता सानुकंप होकर उसे प्रायश्चित्त निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया॥ देते हैं, जिससे वह संयम में स्थिर रह सके। यह नहीं होता कि तीर्थ की अचरित्रता से साधु निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। सर्वथा प्रायश्चित्त नहीं देते। इससे अनवस्थादोष का प्रसंग प्राप्त निर्वाण के अभाव में सारी दीक्षा निरर्थक हो जाती है। होता है। ४२१७.न विणा तित्थं नियंठेहिं, नियंठा व अतित्थगा। ४२०९. दिटुंतो तेणएण, पसंगदोसेण जध वह पत्तो। छक्कायसंजमो जाव, तावऽणुसज्जणा दोण्ह ।। पावंति अणंताई, मरणाइ अवारियपसंगा।। निग्रंथों के बिना तीर्थ नहीं होता। तीर्थ के बिना निग्रंथ भी अनवस्थादोष के प्रसंग में चोर बालक का दृष्टांत है। उस अतीर्थिक हो जाते हैं। जब तक षट्कायसंयम है तब तक बालक का वध कर डाला। इसी प्रकार प्रसंग का निवारण न करने दोनों-संयम और निग्रंथ की अनुवर्तना है। वाले अनेक मरणों को प्राप्त होते हैं। ४२१८. सव्वण्णूहि परूविय, छक्काय-महव्वया य समितीओ। ४२१०. निब्भच्छणाति बितियाय,वारितो जीवियाण आभागी। सच्चेव य पण्णवणा, संपयकाले वि साधूणं ।। नेव य थणछेदादी,पत्ता जणणी य अवराहं॥ ४२१९. तं णो वच्चति तित्थं, दंसण-नाणेहि एव सिद्धं तु। ४२११. इय अणिवारितदोसा, संसारे दुक्खसागरमुवेती। निज्जवगा वोच्छिन्ना, जं पिय भणियं तु तं न तधा॥ विणियत्तपसंगा खलु, करेंति संसारवोच्छेदं। सर्वज्ञों ने छहकाय की रक्षा के लिए महाव्रतों तथा दूसरे बालक की निर्भर्त्सना कर उसे चोरी करने से समितियों की प्ररूपणा की। वर्तमान काल में भी साधुओं की वही निवारित किया। वह जीवित रहकर सुखों का उपभोक्ता बना तथा प्ररूपणा है। तब यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञान-दर्शन से तीर्थ जननी भी स्तनच्छेद आदि अपराध को प्राप्त नहीं हुई। दोषों का चलता है। यह जो कहा जाता है कि निर्यापक व्यवच्छिन्न हो गए वर्जन न करने पर जीव संसार में दुःखसागर में गिरते हैं और हैं, वह भी वैसे नहीं है। दोषों के प्रसंग का वर्जन करने पर जीव संसार का व्यवच्छेद कर ४२२०. सुण जध निज्जवगऽत्थी, डालते हैं। दीसंति जहां य निज्जविज्जंता। ४२१२. एवं धरती सोही, देंत करेंता वि एव दीसंति। इह दुविधा निज्जवगा, जं पि य दंसणनाणेहि, जाति तित्थं ति तं सुणसु॥ अत्ताण परे य बोधव्वा।। इस प्रकार शोधि-प्रायश्चित्त भी है और उसको देने वाले जहां निर्यापक देखे जाते हैं वहां निर्याप्यमान भी होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492