Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 412
________________ दसवां उद्देशक ३७३ ४१९३. बउसपडिसेवगा खलु इत्तरि छेदा य संजता दोन्नि। ४२००. अणमप्पेण कालेण, सो तगं तु विमोयए। जा तित्थऽणुसज्जंती, अत्थि हु तेणं तु पच्छित्तं॥ दिटुंतेसो भणितो, अत्थोवणओ इमो तस्स॥ बकुश और प्रतिसेवना कुशील तथा सामायिकचारित्री जिस असद्विभव वाले व्यक्ति ने धनिक से सौ रूप्यक एक और छेदोपस्थाप्यचारित्री-ये तीर्थपर्यंत वर्तमान रहते हैं। कार्षापण के ब्याज से ऊधार लिए हैं, वह धनिक के घर में इसलिए वर्तमान में भी प्रायश्चित्त है ही। गृहकार्य कर धनिक के कार्षापण का निवेश कर देता है। वह कुछ ४१९४. जदि अत्थि न दीसंती, केइ करेंतत्थ धणियदिद्रुतो।। ही समय में ऋण से मुक्त हो जाता है। यह दृष्टांत कहा है और यह संतमसंते विहिणा, मोयंता दो वि मुच्चंति॥ उसका अर्थोपनय है। जिज्ञासु पूछता है-यदि प्रायश्चित्त है तो उसे करने वाले ४२०१. संतविभवेहि तुल्ला, घितिसंघयणेहि जे उ संपन्ना। कोई नहीं दिखाई देते। यह क्यों? आचार्य कहते हैं-वे उपायों से ते आवन्ना सव्वं, वहति निरणुग्गहं धीरा।। उसका निर्वहन करते हैं, इसलिए दिखाई नहीं देते। यहां वणिक जो मुनि धृति और संहनन से संपन्न हैं वे सद्विभव वणिक (धनिक) का दृष्टांत ज्ञातव्य है। विभवसहित और विभवरहित-ये के तुल्य होते हैं। वे धीर पुरुष प्राप्त सारे प्रायश्चित्त को दोनों विधिपूर्वक मुक्त किए जाने पर ऋण से मुक्त हो सकते हैं। अनुग्रहरहित होकर वहन करते हैं। ४१९५. संतविभवो तु जाधे, मग्गति ताहे य देति तं सव्वं । ४२०२. संघयण-घितीहीणा, असंतविभवेहि होति तुल्ला तु। जो पुण असंतविभवो, तत्थ विसेसो इमो होति॥ निरवेक्खो जदि तेसिं, देति ततो ते विणस्संति। धनिक के पास दो प्रकार के व्यक्ति ऋण लेते हैं। सद्विभव जो मुनि धृति और संहनन से हीन होते हैं वे असद्विभव वणिक वह होता है जो जब मांगा जाता है तब सारा ऋण चुका वणिक के तुल्य होते हैं। कोई निरपेक्ष होकर उनको प्रायश्चित्त देता है। जो असद्विभव वाला वणिक् होता है, उसके लिए यह देता है तो वे विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। विशेष विधि है। ४२०३. ते तेण परिच्चत्ता, लिंगविवेगं तु काउ वच्चंति। ४१९६. निरवेक्खो तिण्णि चयति, तित्थुच्छेदो अप्पा, एगाणिय तेण चत्तो य॥ अप्पाण धणागमं च धारणगं। अथवा वे प्रायश्चित्त से भग्न होकर साधुवेश को छोड़कर सावेक्खो पुण रक्खति, चले जाते हैं। इस प्रकार वे प्रायश्चित्तदाता से परित्यक्त हो जाते अप्पाण धणं च धारणगं॥ हैं। एक-एक के त्याग से तीर्थ का उच्छेद हो जाता है। वह धनिक दो प्रकार के होते हैं-सापेक्ष और निरपेक्ष। जो प्रायश्चित्तदाता स्वयं को एकाकी कर देता है और शनैः शनैः सापेक्ष होता है वह असद्विभव वाले से ऋण का धन उपाय से गच्छ भी परित्यक्त हो जाता है। लेता है। वह तीनों का रक्षण करता है-स्वयं का, धन का और ४२०४. सावेक्खो पवयणम्मि, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो। धारणक का। निरपेक्ष तीनों को गंवा देता है-स्वयं को, धन को चारित्तरक्खणटुं, अव्वोच्छित्तीय तु विसुज्झो।। और धारणक को। जो आचार्य प्रवचन-तीर्थ के प्रति सापेक्ष होता है, ४१९७. जो तु असंते विभवे, पाए घेत्तूण पडति पाडेणं। अनवस्था के प्रसंग के निवारण में कुशल होता है, वह चारित्र की सो अप्पाण धणं पि य, धारणगं चेव नासेति॥ रक्षा करने में समर्थ होता है तथा तीर्थ की अविच्छित्ति के उपायों निरपेक्ष धनिक है वह असद्विभव वाले के पैरों को को साध लेता है। पकड़कर नीचे गिर पड़ता है इससे वह स्वयं का, धन का और ४२०५. कल्लाणगमावन्ने, अतरंत जहक्कमेण काउं जो। धारणक का-तीनों का नाश कर डालता है। दस कारेंति चउत्थे, तब्बगुणायंबिलतवे व॥ ४१९८. जो पुण सहती कालं, सो अत्थं लभति रक्खतीतं च। ४२०६. एक्कासणपुरिमड्ढा, निव्विगती चेव बिगुणबिगुणा य। न किलिस्सति य संय पी, एव उवाओ उ सव्वत्थ ।। पत्तेयाऽसहु दाउं, कारेंति व सन्निगासं तु॥ जो धनिक ऋणधारक से ऋणप्राप्ति के काल को सहन जिनके प्रायश्चित्त स्वरूप पंच कल्याणक (पांच उपवास, करता है, वह ऋणधन को प्राप्त कर लेता है तथा धारणक की भी पांच आचाम्ल, पांच एकाशन, पांच पूर्वार्ध तथा पांच रक्षा करता है तथा स्वयं को भी क्लेश में नहीं डालता। इसलिए निर्विकृतिक) आए हैं और वे यदि इनकी क्रमशः अनुपालना नहीं सर्वत्र उपाय करना चाहिए। कर सकते तो उनको इनके बदले दस उपवास कराते हैं। यह भी ४१९९. जो उ धारेज्ज वद्धतं, असंतविभवो सयं। करने में असमर्थ हों तो द्विगुणित आचाम्ल अर्थात् बीस कुणमाणो य कम्मं तु, निवेसे करिसावणं॥ आचाम्ल कराते हैं। इसी प्रकार दुगुने एकाशन (४० एकाशन), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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