Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 409
________________ ३७० सानुवाद व्यवहारभाष्य सुखकारी है वह सुख है। ऐहिक और पारत्रिक प्रयोजन सिद्धकारी है, वह है क्षेम। जो कल्याणकारी है, वह है निःश्रेयस। आनुगमिक वह है जो मोक्ष के लिए अनुगमन करता है। ४१५०. दोसा कसायमादी, बंधो अधवावि अट्ठपगडीओ। निययं व णिच्छितं वा, घात विणासो य एगट्ठा। दोष है कषाय आदि। बंध है आठ कर्मों का बंध अथवा पूर्वबद्ध आठ कर्म प्रकृतियां। इनका विनाश है-दोषनिघातविनय। नियत, निश्चित, व्याघात और विनाश एकार्थक हैं। ४१५१. कुद्धस्स कोधविणयण, दुट्ठस्स य दोसविणयणं जंतु। कंखिय कंखाछेदो, आयप्पणिधाणचउहेसो॥ दोषनिर्घातविनय के चार प्रकार हैं-क्रुद्ध का क्रोधविनयन, दुष्ट का दोषविनयन, कांक्षित का कांक्षाच्छेद तथा आत्मप्रणिधान। ४१५२. सीतघरं पिव दाहं, वंजुलरुक्खो व जह उ उरगविसं। कुद्धस्स तथा कोहं, पविणेती उवसमेति त्ती।। जैसे शीतगृह-जलयंत्रगृह दाह का अपनयन कर देता है, जैसे वंजुलवृक्ष सर्पविष को दूर कर देता है, वैसे ही कुद्ध व्यक्ति के क्रोध का प्रविनयन, उपशमन करना। ४१५३. दुट्ठो कसायविसएहि, माण-मायासभाव दुट्ठो वा। तस्स पविणेति दोसं, नासयते धंसते व ति॥ जो कषाय, विषय, मान और माया से दुष्ट है अथवा जो स्वभावतः दुष्ट है, उसके दोष का प्रविनयन करना, ध्वंस करना, नाश करना। ४१५४. कंखा उ भत्तपाणे, परसमए अहवा संखडीमादी। तस्स पविणेति कंखं, संखडि अन्नावदेसेणं।। जिसके भक्तपान की, परसमय की अथवा संखडि आदि की कांक्षा होती है, उस कांक्षा का अपनयन करना, उच्छेद करना। संखडिकांक्षा को अन्यापदेश-अन्योक्ति से अपनयन करना। ४१५५. जो एतेसु न वट्टति कोधे दोसे तधेव कंखाए। __ सो होति सुप्पणिहितो, सोभणपणिधाणजुत्तो वा॥ जो इन क्रोध, दोष तथा कांक्षा में प्रवर्तन नहीं करता वह सुप्रणिहित, शोभनप्रणिधानयुक्त होता है अर्थात् आत्मप्रणिधानवान होता है। ४१५६. छत्तीसेताणि । ठाणाणि, भणिताणऽणुपुव्वसो। जो कुसलो य एतेहिं ववहारी सो समक्खातो॥ ये छत्तीस स्थान क्रमशः कहे गए हैं। जो इनमें कुशल है वह आगमव्यवहारी कहा गया है। १. सरागसंयत ही षट्स्थानपतित संयमस्थानों में वर्तमान होते हैं। उनमें संख्यातीत संयमस्थान होते हैं। सरागसंयत में किसी का संयमस्थान बढ़ता है, किसी का घटता है और किसी का बढ़ता-घटता है। ४१५७. अट्ठहि अट्ठारसहिं, दसहि य ठाणेहि जे अपारोक्खा । आलोयणदोसेहिं, छहिं अपारोक्खविण्णाणा।। ४१५८. आलोयणागुणेहिं, छहिं य ठाणेहि जे अपारोक्खा । पंचहि य नियंठेहिं, पंचहि य चरित्तमंतेहिं।। आगमव्यवहारी कौन होता है-जो आचारवान् आदि आठ स्थानों में, व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों में तथा दस प्रायश्चित्त स्थानों में प्रत्यक्षज्ञानी है तथा जो दश आलोचना के दोषों तथा छह काय अथवा व्रत आदि स्थानों में प्रत्यक्षज्ञानी है तथा जो आलोचना के दस गुणों तथा षट्स्थानपतित स्थानों में पांच प्रकार के निग्रंथों तथा पांच प्रकार के चारित्रों में जो प्रत्यक्षज्ञानी है वह होता है आगमव्यवहारी। ४१५९. अट्ठायार व मादी, वयछक्कादी हवंति अट्ठरसा। . दसविधपायच्छित्ते, आलोयण दोसदसहिं वा।। ४१६०. छहि काएहि वतेहि व, गुणेहि आलोयणाय दसहिं च। छट्ठाणवडितेहिं, छहि चेव तु जे अपारोक्खा। आलोचनाह के आचारवान् आदि आठ स्थान (गाथा ५२०), व्रतषट्क आदि अठारह स्थान दस प्रकार के प्रायश्चित्त (४१८०), आलोचना के दश दोष (५२३) व्रतषट्क तथा कायषट्क और आलोचना के दस गुणों (५२१, ५२२) तथा षट्स्थान पतित के छहों स्थानों-इन सबके जो प्रत्यक्षज्ञानी हैं, वे आगमव्यवहारी हैं। ४१६१. संखादीया ठाणा, छहि ठाणेहि पडियाण ठाणाणं। जे संजया सरागा, सेसा एक्कम्मि ठाणम्मि।। . षट्स्थानपतित के ये छह स्थान हैं-१. अनंतभागवृद्धि २. असंख्यातभागवृद्धि ३. संख्यातभागवृद्धि ४. संख्यातगुणवृद्धि ५. असंख्यातगुणवृद्धि ६. अनंतगुणवृद्धि। संयम के ये स्थान सराग संयतों में प्राप्त होते हैं। वीतराग संयत में एक ही स्थान पाया जाता है। वह है-परमप्रकर्षप्राप्त संयम-स्थान। जो इन स्थानों के प्रत्यक्षज्ञाता हैं वे आगमव्यवहारी हैं। ४१६२. एयागमववहारी, पण्णत्ता रागदोसणीहूया। आणाय जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति॥ जो जिनेश्वरदेव की आज्ञा से व्यवहार का व्यवहरण करते हैं, वे राग-द्वेष से रहित होते हैं। वे आगमव्यवहारी प्रज्ञप्त हैं। ४१६३. एवं भणिते भणती, ते वोच्छिन्ना व संपय इहई। तेसु य वोच्छिन्नेसुं, नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स।। वीतराग का चारित्र-संयमस्थान न बढ़ता है न घटता है, वह सदा अवस्थित रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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