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सानुवाद व्यवहारभाष्य
३७१३. दास-भयगाण दिज्जति, उक्खित्तं जत्थ भत्तयं नियतं। चार सूत्र-पहला, तीसरा, पांचवां, सातवां- शय्यातर के
तम्मि वि सो चेव गमो, अंतो बाहिं व देंतम्मि॥ दोषों से संबंधित तथा चार सूत्र-दूसरा, चौथा, छठा और आठवां
दास, भृतक आदि से संबंधित चार सूत्रों में पहले और क्रमशः भद्रक-प्रांत दोषों से संबंधित हैं। तीसरे सूत्र के अनुसार जो दिया जाता है वह सागारिकपिंड होने ३७२०. दारुग-लोणे गोरस-सूवोदग-अंबिले य सागफले। के कारण नहीं कल्पता और दूसरे तथा चौथे सूत्र के अनुसार
उवजीवति सागरियं, एगपए वावि अभिणिपए।। उन्हें उत्क्षिप्त-हस्तोत्पाटित नियत भक्त दिया जाता है, वे उसे लकड़ी, लवण, गोरस, सूप, आम्लपानी, शाकफल-ये अपने घर ले जाते हैं, वे घर के अंतर्या बहिर् देते हैं तो वही गम शय्यातर के हों और पिंड एक चुल्ली अथवा पृथक् चुल्ली से है, विकल्प है अर्थात् वह कल्पता है।
पकता हो तो शय्यातरदोषों का प्रसंग आता है। ३७१४. निययानिययविसेसो, आदेसो होति दास-भयगाणं। ३७२१. भीताइ करभयस्सा, अंतो बाहिं व होज्ज एगपया। अच्चियमणच्चिए वा, विसेसकरणं पयत्तो य॥
अभिणिपए न वि कप्पति, पक्खेवगमादिणे दोसा॥ आदेश (अतिथि) दास और भृतक नियत-अनियत से लोग चुल्ली के कर (टेक्स) के भय से घर से बाहर और विशेषित होते हैं। आदेश अनियत होते हैं। दास और भृतक भीतर एक ही चुल्ली रखते हैं। वैसे शय्यातर के यहां से भक्तपान नियत होते हैं। आदेश अर्चित होते हैं, दास और भृतक अनर्चित लेना शय्यातरदोषों से ग्रस्त होना है। अभिनिप्रजा-पृथक् चुल्ली होते हैं। आदेश के भोजन के लिए विशेष प्रयत्न करना होता है, से भी पिंड लेना नहीं कल्पता, क्योंकि इसमें प्रक्षेप आदि दोष दास और भृतक के लिए वैसा प्रयत्न नहीं करना पड़ता। होते हैं। ३७१५. नीसट्ठ अपडिहारी, समणुण्णातो त्ति मा अतिपसंगा। ३७२२. जं देसी तं देमो, एते घेत्तुं न इच्छते अम्हं। एगपदे परपिंडं, गेण्हे परसुत्तसंबंधो॥
अधवा वि अकुलज त्ति य, गेण्हति अदिट्ठमादीयं ।। दिया हुआ अप्रतिहारी पिंड समनुज्ञात है-ऐसा सोचकर भद्रक प्रांत से कहता है-तुम साधुओं को जो दोगे, हम अतिप्रसंग से एक की तुलना में शय्यातर से व्यतिरिक्त पिंड तुम्हें दे देंगे। ये साधु हमारे घर से लेना नहीं चाहते। यह ग्रहण न कर ले इसीलिए आगे के आठ सूत्रों का प्रतिपादन है। भद्रककृत प्रक्षेप आदि दोष हैं। अथवा प्रांत कहता है-ये साधु यही सूत्रसंबंध है।
अकुलीन हैं। ये अदृष्ट आदि ग्रहण करते हैं। ३७१६. पुरपच्छसंथुतो वावि, नायओ उभयसंथुतो वावि। ३७२३. बितियपदऽदिट्ठगहणं, असती तव्वज्जितेण दिट्ठस्स।
एगवगडा घरं तू पया उ चुल्ली समक्खाता।। दिढे वि पत्थियाण, गहणं अंतो व बाहिं वा॥ ज्ञातक अर्थात् स्वजन के तीन प्रकार हैं-पूर्वसंस्तुत, अपवादपद में यदि अदृष्टग्रहण का अभाव हो तब शय्यातर पश्चात्संस्तुत, उभयसंस्तुत। एकवगडा का अर्थ है-एक गृह को वर्जित कर दृष्ट का ग्रहण किया जा सकता है तथा प्रस्थित और प्रजा का अर्थ है-चुल्ली।
व्यक्तियों के पिंड का ग्रहण शय्यातर के देखे जाने पर भी अंतर ३७१७. एगपए अभिणिपए, अट्ठहि सुत्तेहि मग्गणा जत्थ।। अथवा बाहिर लिया जा सकता है।
सागारियदोसेहिं, पसंगदोसेहि य अगेज्झं॥ ३७२४. साधारणमेगपय त्ति, किच्चं तहियं निवारियं गहणं। एक चुल्ली तथा अभिनिप्रजा-पृथक् चुल्ली के अधिकार __ इदमवि सामण्णं वि य, साधारणसालसु य जोगो॥ से पिंड की मार्गणा आठ सूत्रों से होती है। पहले, तीसरे, पांचवे पूर्वसूत्र में एक चुल्ली पर पकने वाले पिंड को साधारण तथा सांतवे सूत्र में सागारिक दोषों के कारण तथा दूसरे, चौथे, मानकर उसके ग्रहण का निषेध किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में भी छठे और आठवें सूत्र में प्रसंगदोष के कारण भक्तपान अग्राह्य साधारण शाला (शय्यातर के साथ अन्य व्यक्तियों की तैलविक्रय होता है।
शाला) में सामान्य मानकर निषेध किया जाता है। यह पूर्वसूत्र से ३७१८. आइल्ला चउरो सुत्ता, चउस्सालादवेक्खतो।। प्रस्तुत सूत्र का संबंध है।
पिहघरेसु चत्तारि, सुत्ता एक्कनिवेसणे।। ३७२५. तेल्लिय-गोलिय-लोणिय-दोसिय प्रथम चार सूत्र चतुःशाला की अपेक्षा से हैं-दो कुटंबों का
सुत्तिय य बोधिकप्पासो। वहीं अवस्थान होने के कारण। अंतिम चार सूत्र एक ही
गंघिय सोडियसाला, निवेशन-परिक्षेप में पृथग् गृहों से संबंधित है।
जा अन्ना एवमादी उ॥ ३७१९. सागारियस्स दोसा, चउसु सुत्तेसु पसंगदोसा य। तैलिक, गोलिक, लावणिक, दौषिक, सौत्रिक, बोधिक,
__ भद्दगपंतादीया, चउसुं पि कमेण णातव्वा॥ कासिक, गंधिक-ये शालाएं तथा शौंडिकशाला और इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only
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