Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 389
________________ ३५० सानुवाद व्यवहारभाष्य ३८८०. असतीय पमुह कोट्ठग, सालाए मंडवे रसवतीए। अवस्थिति तक नहीं होंगे, परंतु जीत व्यवहार तीर्थकाल तक पासहितो अगंभीरे, एलुगविक्खंभमेत्तम्मि॥ प्रवृत्त होगा। औद्यानिकी आदि के अभाव में साधक शाला के प्रमुख ३८८६. दव्वे भावे आणा, भावाणा खलु सुयं जिणवराणं। कोष्ठक, मंडप अथवा अगंभीर-अतिप्रकाश वाली रसवती के सम्मं ववहरमाणो, उ तीय आराहओ होति। निष्क्रमण-प्रवेश के स्थान को छोड़कर देहलीमात्र का उल्लंघन आज्ञा दो प्रकार की होती है-द्रव्य आज्ञा और भाव आज्ञा। कर एकपार्श्व में स्थित होकर भिक्षा ले। द्रव्य आज्ञा है-राजा आदि की। भाव आज्ञा है-जिनेश्वर देव का ३८८१. बहुआगमितो पडिम, श्रुत। जो सम्यग् व्यवहार करता है वह आज्ञा का आराधक होता पडिवज्जति आगमो इमो वि खलु। सव्वं व पवयणं पवयणी ३८८७. आराहणा उ तिविधा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा उ। य ववहारबिसयत्थं॥ एक दुग तिग जहन्नं, दु तिगट्ठभवा उ उक्कोसा। ३८८२. खलियस्स व पडिमाए, आराधना के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। ववहारो को त्ति सो इमं सुत्तं। उत्कृष्ट आराधना का फल है-एक भव, मध्यम आराधना का फल ववहारविहिण्णू वा, __ है दो भव और जघन्य आराधना का फल है तीन भव। अथवा पडिवज्जति सुत्तसंबंधो॥ उत्कृष्ट आराधना का जघन्य फल है दो भव, मध्यम आराधना का प्रतिमा को स्वीकार करने वाला बहु आगमिक होता है। यह तीन भव और जघन्य आराधना का आठ भव। पांच प्रकार का व्यवहार भी आगम है। सारा प्रवचन तथा ३८८८. जेण य ववहरति मुणी, प्रावचनिक व्यवहार के विषय में आता है। जो प्रतिमा में स्खलित जंपि य ववहरति सो वि ववहारो। होता है उसके प्रति क्या व्यवहार होता है-इसका प्रतिपादक है ववहारो तहिं ठप्पो, यह सूत्र। अथवा व्यवहारविधि का ज्ञाता ही प्रतिमा स्वीकार __ ववहरियव्वं तु वोच्छामि।। करता है। यही सूत्रसंबंध है। मुनि जिससे व्यवहार करता है और जिस व्यवहर्तव्य का ३८८३. सो पुण पंचविगप्पो,आगम-सुत-आण-धारणा-जीते। प्रयोग करता है, वह भी व्यवहार है। व्यवहार को यहां संस्थापित संतम्मि ववहरते, उप्परिवाडी भवे गुरुगा॥ करता हूं, आगे उसकी व्याख्या करूंगा। अब व्यवहरितव्य के व्यवहार पांच प्रकार का है-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा विषय में कहूंगा। और जीत । जो उत्क्रम से व्यवहार करता है उसको चार गुरुमास ३८८९. आभवंते य पच्छित्ते, ववहरियव्वं समासतो दुविहं। का प्रायश्चित्त आता है। जैसे-(आगम के रहते श्रुत से व्यवहार दोसु वि पणगं पणगं, आभवणाए अधीगारो॥ करना उत्क्रमण है। इसी प्रकार श्रुत के रहते आज्ञा से, आज्ञा के व्यवहरितव्य संक्षेप में दो प्रकार का है-आभवत् और रहते धारणा से और धारणा के रहते जीत से व्यवहार करना प्रायश्चित्त। दोनों के पांच-पांच प्रकार हैं। यहां आभवत् का उत्क्रमण है।) अधिकार है। ३८८४. आगमववहारी आगमेण ववहरति सो न अन्नेणं। ३८९०. खेत्ते सुत-सुह-दुक्खे, मग्गे विणए य पंचहा होइ। न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेति॥ सच्चित्ते अच्चित्ते, खेत्ते काले य भावे य ॥ आगमव्यवहारी आगम के अनुसार व्यवहार करता है, आभवत् के पांच प्रकार हैं-क्षेत्र, श्रुत, सुख-दुःख, मार्ग अन्य अर्थात् श्रुत आदि से नहीं। सूर्य के प्रकाश को दीपक का और विनय। प्रायश्चित्त के पांच प्रकार-सचित्त, अचित्त, क्षेत्र, प्रकाश विशेषित नहीं करता। काल और भाव। ३८८५. सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो। ३८९१. वासासु निग्गताणं, अट्ठसु मासेसु मग्गणा खेत्ते। होहिंति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो तु॥ आयरियकहण साहण, नयणे गुरुगा य सच्चित्ते॥ (जिस काल में 'ववहारे पंचविहे पण्णत्ते'-इस सूत्र की आठ महीनों तक ऋतुबद्धकाल में विहरण करने के पश्चात् रचना हुई तब आगम था। फिर आज्ञा आदि का सूत्र में निपात वर्षावास क्षेत्र की मार्गणा करने के लिए कुछेक मुनि जाते हैं। वे क्यों हुआ?) कहा जाता है-सूत्र अनागत विषय हो जाएगा तब लौटकर आचार्य को क्षेत्रविषयक जानकारी देते हैं। उसे कोई शेष व्यवहारों से व्यवहार करना होगा। व्यवहार भी क्षेत्र और अन्यत्र से समागत मुनि सुनकर अपने आचार्य को वह बात काल के आधार पर होता है। प्रथम चार व्यवहार तीर्थ की कहता है और उनको उस क्षेत्र में ले जाता है और वहां जाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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