Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 398
________________ दसवां उद्देशक इससे क्लेश पाते हैं तो कुलस्थविर, गणस्थविर तथा संघस्थविर को उन्हें अर्पित कर दिया जाता है। ३९९३. सुह-दुक्खे उवसंपद, एसा खलु वण्णिया समासेणं । अह एत्तो उवसंपय, मग्गोग्गह वज्जिते वुच्छं । संक्षेप में सुखदुःख उपसंपदा का वर्णन कर दिया गया है। आगे मार्गावग्रहवर्जित अर्थात् मार्गोपसंपद कहूंगा। ३९९४ मग्गोवसंपयाए. गीतत्थेणं परिग्गहीतस्स | अग्गीतस्स वि लाभो, का पुण उवसंपया मग्गे ॥ मार्गोपसंपदा में गीतार्थ द्वारा परिगृहीत लाभ अगीतार्थ के भी होता है। मार्ग की उपसंपदा क्या है? ३९९५. जह कोई मम्गण्णू, अन्नं देसं तु वच्चती साधू । उवसंपज्जति उ तगं, तत्थऽण्णो गंतुकामो उ ॥ कोई मार्गज्ञ साधु अन्य देश को जा रहा है। उस देश को जाने वाला अन्य व्यक्ति उस साधु के पास उपसंपन्न होता है। ३९९६. अव्वत्तो अविहाडो, अदिद्वदेसी अभासिओ बावि एगमणेगे उवसंपयाय, चउभंग जा पंथो ॥ वह उपसंपन्न होने वाला मुनि अव्यक्त है, अप्रगल्भ है, अदृष्टदेशी- जिसने देशांतर न देखा हो, अभाषिक देशभाषा के ज्ञान से विकल है। इसमें एक अनेक की चतुर्भंगी होती है १. एक एक को उपसंपन्न २. एक अनेक को उपसंपन्न ३. अनेक एक को उपसंपन्न ४. अनेक एक को उपसंपन्न यह उपसंपदा जब तक मार्ग है तब तक की होती है। ३९९७. गतागत गतनियत्ते, फिडिय गविट्ठे तव अगविद्वे । उम्भामग सन्नायग, नियऽदिडे अभासी य॥ गतागत मार्गोपसंपद्-जिनके साथ जाना उन्हीं के साथ लौट आना। २. गतनिवृत्त मार्गोपसंपद-साथ जाना परंतु कारणवश उनके साथ न लौट पाना। ३. स्फिटित गवेषित तथा स्फिटित अगवेषित किसी देशांतर में गए और वहां उद्घामक भिक्षाचार्य के लिए जाना पड़ा मार्ग की अजानकारी के कारण भटक गया। शातिजनों ने गवेषणा की। यह स्फिटित गवेषित मार्गोपसंपद है। अपरिचित देश में अर्थात् अदृष्ट देश में यत्र-तत्र भटक जाना । अभाषी-प्रादेशिक भाषा की अजानकारी के कारण स्थान पर न आ पाना, भटक जाना। इनकी गवेषणा करने पर भी न मिल पाना । यह स्फिटित अगवेषित मार्गोपसंपद है। ३९९८. उवण अनपंथेण वा मतं अगविसंत न लगति । अगविट्ठोत्ति परिणते, गवेसमाणा खलु लभंती ॥ जो उपनष्ट हो गया है-अपने ज्ञातिजनों के साथ चला गया है, जो किसी दूसरे मार्ग पर चला गया है। यदि मार्गोपदेशक उनकी गवेषणा नहीं करते हैं तो उसका लाभ उन्हें नहीं मिलता। यदि उनके मन में यह भाव परिणत होता है कि हमने गवेषणा नहीं Jain Education International ३५९ की और उसकी गवेषणा प्रारंभ करते हैं तो उनको वह लाभ प्राप्त होता है। ३९९९. अम्मा- पितिसंबद्धा, मित्ता य वयंसगा य जे तस्स । दिट्ठा भट्ठा य तहा, मम्गुवसंपन्नओ लभति ॥ उपसंपद्यमान जाते-आते माता-पिता से संबद्ध अथवा मित्र और वयंसकों से संबंद्ध तथा जो दृष्ट और माषित हैं, उनका जो सचित्त आदि का लाभ होता है, वह सारा मार्गोपदेशक नेता का होता है। ४००० विणओवसंपयाए, पुच्छण साहण अपुच्छ गहणे य नायमनाए दोन्नि वि, नमंति पक्किल्लसाली व ॥ विनयोपसंपद वक्तव्यता प्रच्छना, कथन, अपृच्छा से । ग्रहण, ज्ञात-अज्ञात, दोनों का नमना, पक्कशालि का कथन | (इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में ।) ४००१ कारणमकारणे वा अदिट्ठदेसं गया विहरमाणा । पुच्छा विहारखेत्ते अपुच्छ लहुगो य जं वावि ॥ कारण अथवा अकारण ही विहार करते हुए मुनि अदृष्ट प्रदेश में पहुंच गए। वहां उनके सांभोगिक मुनि हों तो उनको विहारक्षेत्र के विषय में पूछे यदि वे पृच्छा नहीं करते अथवा पूछने पर वे नहीं बताते तो दोनों को लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। ४००२. सच्चित्तम्मि उ लदे, अण्णोण्णस्स अनिवेदणे लहुगो । ववहारेण व हाउं पुणरवि दाउं नवरि मासो ॥ यदि वहां सचित्त का लाभ होता है तो परस्पर निवेदन करना चाहिए। निवेदन न करने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इस स्थिति में उस असमाचारी का प्रतिषेध करने के लिए आगम प्रसिद्ध व्यवहार से उससे उस लाभ का हरण कर पुनः उसे मासलघु के प्रायश्चित्तपूर्वक दिया जा सकता है। ४००३. नाए व अनाए वा, होति परिच्छाविधी जहा हेट्ठा । अपरिच्छणम्मि गुरुगा, जो उ परिच्छाय अविसुद्धो ॥ ज्ञात, अज्ञात होने पर निम्न कथित परीक्षाविधि करनी चाहिए। बिना परीक्षा किए उपसंपन्न करने पर अथवा परीक्षा करने पर अविशुद्ध को उपसंपन्न करने पर, प्रत्येक में चार-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४००४. केई भांति ओमो, नियमा निवेयइ इच्छ इतरस्स । तं तु न जुज्जति जम्हा, पक्किल्लगसालिदिद्वंतो ॥ कुछ कहते हैं-यदि रत्नाधिक की इच्छा हो तो अवमरात्निक मुनि निवेदन करता है, अन्यथा नहीं। यह कथन उचित नहीं है। इसीलिए पक्कशालि का दृष्टांत उपन्यस्त है। ४००५. बंदणालोयणा चेय. तहेब य सेहेण उवउत्तम्मि, इतरो पच्छ For Private & Personal Use Only निवेयणा! कुव्वती ॥ www.jainelibrary.org

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