Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 403
________________ है। ३६४ सानुवाद व्यवहारभाष्य द्रव्य-सचित्तादि और उनकी पर्याय-अवस्था विशेष तथा यदि आगम और आलोचना-दोनों समान अर्थात् परस्पर क्रमशः क्षेत्र, काल और भाव से परिशुद्ध आलोचना को सुनकर अविसंवादिरूप में प्रस्तुत होते हों तो यह है आगमविमर्श। अथवा फिर आगमव्यवहारी व्यवहार का प्रयोग करते हैं, प्रायश्चित्त देते। यह आलोचक प्रायश्चित्तसह है अथवा नहीं तथा इसकी शोधि किस प्रायश्चित्त से हो सकती है-यह विमर्श आगमविमर्श है। ४०५६. सहसा अण्णाणेण व, भीतेण व पेल्लितेण व परेण। ४०६३. नाणमादीणि अत्ताणि, जेण अत्तो उ सो भवे। वसणेण पमादेण व, मूढेण व रागदोसेहिं।। रागद्दोसपहीणो वा, जे व इट्ठा विसोधिए। यदि प्रतिसेवक सहसा, अज्ञानवश, भीत होकर, दूसरे के आप्त वह है जिसने ज्ञान, दर्शन चारित्र को प्राप्त कर लिया द्वारा प्रेरित होकर, व्यसन-द्यूत आदि से, प्रमाद से, मूढ़ता से है अथवा जो राग-द्वेष से प्रहीण है अथवा जो शोधि-प्रायश्चित्त अथवा राग-द्वेष से-इन कारणों से प्रतिसेवना कर प्रायश्चित्त । के लिए इष्ट है-अपेक्षित है वह आप्त है। लेने के लिए उसी प्रकार से आलोचना करता है तो प्रायश्चित्त ४०६४. सुत्तं अत्थे उभयं, आलोयण आगमो वि इति उभयं। देते हैं, अन्यथा नहीं। जं तदुभयं ति वुत्तं, तत्थ इमा होति परिभासा॥ ४०५७. पुव्वं अपासिऊणं, छूढे पादम्मि जं पुणो पासे। सूत्र और अर्थ-यह उभय है अथवा आलोचना और न य तरति नियत्तेउं, पायं सहसा-करणमेयं । आगम-यह उभय है। जो तदुभय कहा गया, उसकी यह परिभाषा पहले भूमी-प्रदेश को नहीं देखा। आगे पैर रखने के लिए होती है। उसे उठाया। तब देखा कि उस प्रदेश में जीव है, किंतु पैर को ४०६५. पडिसेवणातियारे, जदि नाउट्टति जहक्कम सव्वे। नीचे रखने से रोक नहीं सकता। उससे जो जीव का व्यापादन न हु देंती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स। होता है, यह सहसाकरण है। ४०६५/१. पडिसेवणातियारे, जदि आउट्टति जहक्कम सव्वे। ४०५८. अन्नतरपमादेण, असंपउत्तस्स णोवउत्तस्स। देति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स॥ इरियादिसु भूतत्थे, अवट्टतो एतदण्णाणं॥ यदि आलोचक प्रतिसेवना के सभी अतिचारों की यथाक्रम पांच प्रकार के प्रमादों में से किसी एक से भी जो असंप्रयुक्त से आलोचना नहीं करता तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं है, उसमें उपयुक्त नहीं है तथा ईर्या आदि समितियों में तत्त्वतः देते। यदि आलोचक प्रतिसेवना के सभी अतिचारों की यथाक्रम अवर्तमान है-यह है अज्ञान। से आलोचना कर लेता है तब आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त ४०५९. भीतो पलायमाणो, अभियोगभएण वावि जं कुज्जा। देते हैं। पडितो व अपडितो वा, पेलिज्जउ पेल्लिओ पाणे॥ ४०६६. कधेहि सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणो वि गृहति। अभियोग के भय से भीत होकर पलायमान व्यक्ति जीव न तस्स देंति पच्छित्तं, बेंति अन्नत्थ सोधय ।। हिंसा करता है। दूसरे के द्वारा प्रेरित होकर कोई गिरता है अथवा नहीं गिरता, वह अन्य जीवों को प्रेरित करता है-पीड़ा आदि आलोचक को कहते हैं-सभी कह दो। इतना कहने पर भी पहुंचाता है। जो जानता हुआ भी अतिचारों को छुपाता है तो उसे आगम४०६०. जूतादि होति वसणं, पंचविधो खलु भवे पमादो उ। व्यवहारी प्रायश्चित्त नहीं देते किंतु कहते हैं-तुम अन्यत्र शोधिमिच्छत्तभावणाओ, मोहो तह रागदोसा य॥ प्रायश्चित्त लो। द्यूत आदि व्यसन हैं। प्रमाद पांच प्रकार का होता है। ४०६७. न संभरति जो दोसे, सब्भावा न य मायया। मिथ्यात्व भावना है मोह। राग-द्वेष ज्ञात हैं। पच्चक्खी साहते ते उ, माइणो उ न साधए।। ४०६१. एतेसिं ठाणाणं, अन्नतरे कारणे समुप्पन्ने । जिसे माया से नहीं किंतु सद्भाव से ही दोषों की स्मृति तो आगमवीमंसं. करेंति अत्ता तदभएणं॥ नहीं है, उसे प्रत्यक्षज्ञानी स्मृति कराते हैं। मायावी को वे स्मति इन स्थानों में से किसी भी स्थान का कारण उत्पन्न होने पर नहीं कराते। आप्त पुरुष जो आलोचना देते हैं उसकी सूत्र और अर्थ- दोनों से ४०६८.जदि आगमो य आलोयणा य दो वि विसमं निवडियाइं। आगमविमर्शना करते हैं। न हु देती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स॥ ४०६२. जदि आगमो य आलोयणा य यदि आगम और आलोचना-दोनों विषम-विसंवादी होते दोण्णि वि समं तु निवयंतो। हैं अर्थात् आलोचक ने जैसे आलोचना की आगमज्ञानी ने उसके एसा खलु वीमंसा, अतिचारों को वैसा नहीं देखा, न्यून या अधिक देखा है तो जो वऽसहू जेण वा सुज्झे॥ आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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